मंगलवार, 31 जुलाई 2018

प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी


रमा जैसवाल का एक प्रकाशित शोध पत्र
प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी  
(मैंने किंचित परिवर्तन कर इस शोध पत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया है. आज प्रस्तुत है इसका द्वितीय और अंतिम भाग.)
बंगला साहित्य में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय और उनके बाद रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय ने बंग महिलाओं की सामाजिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है. नवजागरण काल में मराठी में एच. एन. आप्टे, गुजराती में नर्मद व गोवर्धन राम त्रिपाठी, तेलगू में गुरजाड और मलयालम में चन्दू मेनन ने अपने-अपने क्षेत्र की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, उर्दू में, मिर्ज़ा हादी रुसवा ने लखनऊ की एक तवायफ़ उमराव जान अदा की जि़न्दगी पर एक मार्मिक उपन्यास लिखा है. अल्ताफ़ हुसेन हाली की नज्मों - 'चुप की दाद' और 'मुनाजात-ए-बेवा' में औरत की त्यागमयी और दुःख भरी कहानी कही गयी है. हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी रचनाओं में उत्तर भारतीय नारी की दुर्दशा को चित्रित किया है पर प्रेमचंद से पहले किसी और साहित्यकार ने उत्तर भारतीय नारी के जीवन के हर अच्छे-बुरे पहलू को उजागर करने का न तो बीड़ा उठाया और न ही उसके प्रस्तुतीकरण में वह महारत हासिल की जो कि प्रेमचंद को हासिल हुई.
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय नारी में धैर्य, सहनशीलता, सेवाभाव, त्याग, कर्तव्यपरायणता, ममता और करुणा का सम्मिश्रण देखकर कहा है -
‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी.’
परन्तु प्रेमचंद को अन्यायी के सामने नारी का दुर्गा का रूप धारण करना अथवा चंडी का रूप धारण करना बहुत भाता है. प्रेमचंद यह दर्शाते हैं कि ममता, कोमलता, सहनशीलता और त्याग की प्रतिमूर्ति भारतीय नारी आवश्यकता पड़ने पर सिंहनी भी बन जाती है और अगर यह सिंहनी कहीं घायल हुई तो उसके प्रतिशोध की ज्वाला में बड़े से बड़ा दमनकारी भी भस्म हो जाता है.
सामाजिक असमानता की शिकार भारतीय नारी पग-पग पर शोषित और अपमानित होती है इसीलिए प्रेमचंद की विद्रोहिणी नारी दमनकारी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने और उनकी अवमानना करने में सबसे आगे रहती है.
दहेज की प्रथा भारतीय समाज का कलंक है,  इस एक प्रथा के कारण स्त्री जाति को जितना अपमान और यातना झेलनी पड़ती है,  उसका आकलन करना भी असम्भव है. प्रेमचंद की अनेक कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियां इस प्रथा के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटा पाई हैं. उनकी कहानी ‘कुसुम’ की नायिका कुसुम, बरसों तक अपने पति द्वारा अपने मायके वालों के शोषण का समर्थन करती है पर अन्त में उसकी आँखे खुल जाती हैं और वह अपने पति की माँगों को कठोरता पूर्वक ठुकरा देती है. अपनी माँ से वह कहती है-
‘यह उसी तरह की डाकाजनी है जैसी बदमाश लोग किया करते हैं. किसी आदमी को पकड़ कर ले गए और उसके घरवालों से उसके मुक्ति-धन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली.’
            कुसुम की माँ थोड़े से पैसों की खातिर दामाद को नाराज़ करने की बात को अनुचित कहती है तो वह जवाब देती है-
‘ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा ! जो आदमी इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह नहीं होगा. मैं कहे देती हूं, वहां रुपये गए तो मैं ज़हर खा लूंगी.’
अनमेल विवाह मुख्य रूप से दहेज की प्रथा का ही परिणाम होता है. प्रेमचंद पुरुषों के बहु-विवाह और विधुरों के क्वारी कन्या से विवाह करने के दुराग्रह को इसका कारण मानते हैं. प्रेमचंद के वे नारी पात्र जिनका कि अनमेल विवाह हुआ है,  कभी सुखी नहीं दिखाए जाते. ‘निर्मला’ उपन्यास की नायिका इसका ज्वलन्त उदाहरण है. निर्मला की अपने से दुगुनी उम्र के पति के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है. जब अधेड़ पति अपनी जवानी के दम-ख़म और बहादुरी का झूठा राग अलापते हैं तो उसे या तो उनसे घृणा होती है या उन पर उसे तरस आता है.
‘नया विवाह’ कहानी की युवती आशा का विवाह अधेड़ लाला डंगामल से होता है. आशा, डंगामल के लाए नए-नए कपड़े और आभूषण पहन कर जवान गबरू नौकर जुगल को रिझाती है. जुगल आशा से लाला जी के लिए कहता है कि वह उसके पति नहीं बल्कि उसके बाप लगते हैं तो वह उसे डांटने के बजाय अपने भाग्य का रोना लेकर बैठ जाती है और फिर उससे मज़ाक में कहती है कि वह उसकी शादी एक बुढि़या से करा देगी क्योंकि वह उसको जवान लड़की से कहीं ज़्यादा प्यार देगी और उसे सीधे रस्ते पर लाएगी. इस प्रसंग के बाद जुगल और आशा के संवाद दृष्टव्य हैं-
            जुगल- यह सब माँ का काम है. बीबी जिस काम के लिए है, उसी काम के लिए है.
आशा- आखि़र बीबी किस काम के लिए है?
जुगल- आप मालकिन हैं,  नहीं तो बता देता कि बीबी किस काम के लिए है.
            कहानी के अंत में आशा, अपना आँचल ढरकाते हुए जुगल को लाला जी के जाने बाद अकेले में मिलने के लिए बुलाती है.
प्रेमचंद आशा के व्यवहार को सर्वथा स्वाभाविक मानते हैं,  उनकी दृष्टि में आशा का ऐसा करना कोई पाप नहीं है बल्कि अपने ऊपर हुए सामाजिक अन्याय के प्रति एक विद्रोह मात्र है.
गबन उपन्यास की नायिका जालपा मध्यवर्गीय परिवार की गहनों की शौकीन, ऐसी युवती है जिसे भौतिकवादी सुखों की खातिर पति का रिश्वत लेना भी गलत नहीं लगता है परन्तु जब उसका पति रमानाथ खुद को जेल जाने से बचाने के लिए और रुपयों व ओहदे के लालच में, पुलिसवालों के साथ मिलकर क्रान्तिकारियों के विरुद्ध झूठी गवाही देता है तो वह उसके उपहारों को ठुकराते हुए उसे अपना पति मानने से इंकार कर देती है-
‘ईश्वर करे तुम्हें मुंह में कालिख लगा कर भी कुछ न मिले. --- लेकिन नहीं,  तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिसवाले कभी नाराज़ नहीं करेंगे. ---- झूठी गवाही,  झूठे मुकदमें बनाना और पाप के व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिखा गया. जाओ शौक से जि़न्दगी के सुख लूटो.------ मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है मैंने समझ लिया कि तुम मर गए. तुम भी समझ लो कि मैं मर गई.’
 प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘जुलूस’ की मिठ्ठन अपने दरोगा पति बीरबल सिंह द्वारा निहत्थे देशभक्त इब्राहीम अली पर कातिलाना हमला करने के लिए उसे धिक्कारती है. बीरबल सिंह जब उसे अपनी तरक्की होने की सम्भावना बताता है तो वह कहती है-
‘शायद तुम्हें जल्द तरक्की भी मिल जाय. मगर बेगुनाहों के खून से हाथ रंगकर तरक्की पाई तो क्या पाई! यह तुम्हारी कारगुज़ारी का इनाम नहीं,  तुम्हारे देशद्रोह की कीमत है.’
शहीद इब्राहीम के जनाज़े में शामिल होने के बाद मिट्ठन अपने अंग्रेज़ समर्थक पति बीरबल सिंह से अलग रहने का फ़ैसला भी कर लेती है पर जब वह शहीद इब्राहीम अली की बेवा के सामने माफ़ी मांगने के लिए आए हुए बीरबल सिंह को देखती है तो फिर वह उसे क्षमा भी कर देती है.  
प्रेमचंद की कहानी ‘जेल’ की आन्दोलनकारी मृदुला, किसान आन्दोलन में अपनी सास,  अपने पति और अपने पुत्र को गंवाकर स्वयं भी आन्दोलन में कूद पड़ती है. वह शहीदों के सम्मान में आयोजित जुलूस का नेतृत्व करती है और जेल जाती है.
प्रेमचंद के अनेक नारी पात्र साहस और वीरता में पुरुषों से आगे हैं. ओरछा के राजा चम्पत राय की धर्मपत्नी और छत्रसाल की माँ, रानी सारंधा और वज़ीर हबीब का रूप धारण किए हुए तैमूर की बेग़म हमीदा इसका प्रमाण हैं. सत्य के मार्ग पर चलते हुए जब ऐसे नारी पात्र अन्याय का सामना करते हैं तो पाठक उनके चरित्र के प्रति श्रद्धानत हो जाता है.
प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से दो सन्देश देना चाहते हैं - एक तो यह कि पुरुष स्त्री को अपने से कमज़ोर और अयोग्य समझकर उस पर अत्याचार करने का पाप न करे और दूसरा यह कि यदि नारी जाति पर अत्याचार का सिलसिला यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वह विद्रोहिणी बनकर अपने ऊपर ज़ुल्म ढाने वाले पुरुष-प्रधान समाज को ही मिटा देगी.
‘कर्मभूमि’ उपन्यास में सुखदा व नैना हरिजनों के मन्दिर पवेश के अधिकारों की खातिर जेल जाती हैं. उनके इस सामाजिक विद्रोह को सफलता भी मिलती है. इसी उपन्यास में मुन्नी का चरित्र एक विद्राहिणी का चरित्र है. दो गोरे सिपाही मुन्नी का बलात्कार करते हैं. मौका पाकर मुन्नी बीच बाज़ार में बलात्कारी की हत्या कर देती है. अदालत में दोषमुक्त होने के बाद मुन्नी समाजसेवा के कार्य में लग जाती है. अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेमचंद बार-बार विद्रोहिणी नारी के साहस और क्रोध को सृजन का मोड़ देना चाहते हैं. समाज सुधार के प्रति समर्पित एक साहित्यकार की नारी उत्थान के प्रति यह एक ईमानदार कोशिश है.
प्रेमचंद ने विद्रोहिणी नारी के उचित कार्यों की स्तुति तो की ही है,  साथ ही उन्होंने उसके सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध व्यवहार का दायित्व भी नारी शोषक पुरुष समाज की लिंग-भेदी सामाजिक मान्यताओं पर रख दिया है. पुरुष प्रधान समाज को प्रेमचंद का सन्देश है कि जब तक लिंग-भेदी अन्याय समाप्त नहीं होगा, नारी विद्रोह करती रहेगी और जब तक उस पर अनाचार होता रहेगा, समाज उन्नति नहीं कर सकेगा. और भारतीय स्त्रियों को उनका सन्देश वही है जो कि उनके प्रिय शायर अल्लामा इकबाल ने किसी और प्रसंग में कहा है –
ख़ुदी को कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है.   

सोमवार, 30 जुलाई 2018

‘प्रेमचंद के साहित्य में शोषित किन्तु विद्रोहिणी नारी’

श्रीमती रमा जैसवाल का एक प्रकाशित शोध पत्र
(मैंने किंचित परिवर्तन कर इस शोध पत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया है और इसके सन्दर्भ का विस्तार हटा दिया है. आज प्रस्तुत है इसका प्रथम भाग)
‘प्रेमचंद के साहित्य में शोषित किन्तु विद्रोहिणी नारी’
जिस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक असमानता को अपनी नियति मानकर स्वीकार करना पड़ता है वहां अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाली और विद्रोह का परचम लहराने वाली स्त्रियों को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाने का साहस बहुत कम साहित्यकार ही कर सकते हैं. इसके लिए साहित्यकार में अन्याय का प्रतिकार करने के साहस के साथ-साथ सामाजिक सुधार के प्रति प्रतिबद्धता भी आवश्यक होती है. प्रेमचंद ने उर्दू व हिन्दी में साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिष्कार का बीड़ा उठाया था. प्रेमचंद नारी समाज के सच्चे हितैषी थे. उत्तर भारतीय नारी समाज के सुख-दुःख को उन्होंने बहुत करीब से देखा और समझा था. यूं तो प्रेमचंद का साहित्य बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध के उत्तर भारतीय सामाजिक जीवन का समग्र और प्रामाणिक चित्रण करता है परन्तु शोषित समाज के चित्रण में यह अद्वितीय है. शोषिता भारतीय नारी के जीवन की हर त्रासदी और उसके हर संघर्ष को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जीवन्त किया है.
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में उत्तर भारतीय गाँवों और शहरों की मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय स्त्रियों के जीवन का यथार्थवादी रूप प्रस्तुत किया गया है. नारी-जीवन के इस चित्रण में न तो कोई रूमानियत है, न कोई फ़ैन्टैसी और न आदर्शवाद का कोरा भाषण. प्रेमचंद की रचनाओं में चित्रित नारियां गुणवान भी हैं और इंसानी कमज़ोरियों की शिकार भी. अशिक्षा, निर्धनता और सामाजिक दमन के कारण स्त्रियों में जिस प्रकार की रूढि़यां और अंधविश्वास पनपते हैं, उनसे प्रेमचंद भलीभाँति परिचित हैं.
प्रेमचंद के नारी पात्र स्वयं लिंगभेद के पोषक हैं, कन्या जन्म उनके लिए एक त्रासदी है, पुत्र जन्म के बाद ही स्त्रियाँ, अपना जीवन सफल मानती हैं, वैधव्य उनके लिए अभिशाप है और सधवाओं लिए विधवा मनहूस. आभूषणों के लिए घर-फूंक तमाशा देखने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता, अधिकांश सासें, बहुओं को सताने में और बहुएं, सासों को खिजाने में व्यस्त रहती हैं, चुगली, त्रिया-हठ, मिथ्यावादिता, चटोरापन, चंचलता, चपलता और कभी-कभी कामुकता से भी उन्हें परहेज़ नहीं है. पर इन कमज़ोरियों के बावजूद प्रेमचंद के अधिकांश नारी पात्र साहस, धैर्य, सहनशीलता, त्याग और कर्मठता से परिपूर्ण हैं. अन्याय और दमन को उनके अधिकांश नारी पात्र अपनी नियति समझ कर स्वीकार करते हैं पर यहां चर्चा उनके उन नारी पात्रों की हो रही है जिन्होंने अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की है और ऐसे पात्रों की प्रेमचंद साहित्य में कोई कमी नहीं है. प्रेमचंद को विद्रोहिणी नारी के चित्रण में बहुत आनन्द आता है, शायद इसके लिए उनकी सुधारवादी प्रकृति उत्तरदायी है. उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय नारी अपने ऊपर ढाए गए ज़ुल्मों के खि़लाफ़ ख़ुद जिहाद छेड़े.
‘गोदान’ उपन्यास की धनिया समाज के नियमों से बंधी एक कृषक महिला है. उसकी दृष्टि में दातादीन ब्राह्मण देवता हैं, भले ही उनका लड़का मातादीन सिलिया चमारन को अपनी रखैल बनाए हुए है. पर जब यही देवता उसे सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर अपने पुत्र गोबर की गर्भवती विधवा प्रेमिका, झुनिया को घर से निकालने को कहते हैं तो वह बिफ़र कर जवाब देती है-
‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते. ब्याहता न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही. किस मुंह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता. वही काम छोटे आदमी करते हैं तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है. नाक कट जाती है. बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं.‘
‘गोदान’ उपन्यास में होरी की बड़ी बेटी सोना नहीं चाहती है कि होरी सोनारी वालों के यहां उसकी शादी के लिए दुलारी सहुआइन से 200 रुपये का क़र्ज़ ले. वह अपनी सखी सिलिया से कहती है-
‘मैं तो सोनार वालों से कह दूंगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज का लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूंगी.’
गरीब और वह भी अछूत औरत अगर सुन्दर हो तो उसका यौन शोषण करना रईस सवर्ण अपना अधिकार समझते हैं. ‘घासवाली’ कहानी में मुलिया चमारन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है. उसके सौन्दर्य पर ठाकुर चैनसिंह लट्टू हो जाता है और उससे अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है तो मुलिया उसे झिड़कते हुए उससे पूछती है-
‘मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर (मुलिया का पति) चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है?--- मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी या जरा से लालच से तुम्हारी मुठ्ठी में आ जाएगी? कितना सस्ता सौदा है. ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे ?’
प्रेमचंद की दलित नारी पात्र वर्ण-व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने का साहस आसानी से नहीं करतीं पर जब उनके परिवार के किसी सदस्य की जान बचाने की बात होती है तो वह निःसंकोच ऐसा साहस कर बैठती हैं. कहानी ‘मन्दिर’ में एक शूद्रा अपने बेटे की जान बचाने के लिए भगवान का प्रसाद लेने के लिए मन्दिर का ताला तोड़ देती है.
कहानी ‘ठाकुर का कूंआ’ की गंगी अपने बीमार पति को स्वच्छ जल पिलाने के लिए ठाकुर के कुँए से पानी चुराने का असफल प्रयास करती है.
यह बात और है कि इन दोनों कहानियों में इन नारी पात्रों का विद्रोह उनके लक्ष्य प्राप्ति में उनका सहायक नहीं होता.
प्रेमचंद ने वेश्याओं के पुनर्वास के मुद्दे को कई बार बड़ी शिद्दत के साथ उठाया है. पुरुष समाज की कामुकता की शिकार ऐसी स्त्रियाँ विद्रोहिणी बनकर अपने साथ हुए अन्याय का समूचे पुरुष समाज से बदला लेना चाहती हैं. ‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन और ‘गबन’ उपन्यास की ज़ोहरा वेश्या होकर पुरुषों को गुमराह करने में या उनका घर उजाड़ने में संकोच नहीं करतीं क्योंकि समाज को वह वही लौटा रही हैं जो कि उन्हें समाज से मिला है. पर ऐसी ही विद्रोहिणी नारी जब किसी सुधारक या हमदर्द के सम्पर्क में आती है तो वह ममता और सेवा की मूर्ति बनकर समाज के लिए उपयोगी बन जाती है. सुमन और ज़ोहरा के हृदय परिवर्तन से हमको यही सन्देश मिलता है. प्रेमचन्द इस शक्ति स्वरूपा विद्रोहिणी नारी की शक्ति को विनाश के स्थान पर सृजन के लिए प्रयुक्त होते हुए देखना चाहते हैं.
‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में बिलासी चारागाह में अपने पशुओं को चरने से रोकने पर सरकारी कारिन्दों से भिड़ जाती है. फौजदारी में बिलासी के पति मनोहर के हाथों सरकारी कारिन्दे ग़ौस खां की हत्या हो जाती है. मनोहर जेल में आत्महत्या कर लेता है. बिलासी विधवा होकर भी हार नहीं मानती है. उसे सन्तोष है कि उसने अपने अधिकार और अपने सम्मान की रक्षा की, भले ही इसके बदले में उसे वैधव्य और आजीवन दारिद्य का दुःख भोगना पड़ रहा है.
प्रेमचंद के साहित्य में गरीब, दलित, अशिक्षित स्त्री भी अन्याय का प्रतिकार करना जानती है. उसमें गलत बात को गलत कहने का साहस है. वह अन्याय का प्रतिकार करते हुए इस बात की भी चिंता नहीं करती कि उसके विद्रोह का अंजाम क्या होगा. उसका यह संघर्ष उस नन्हे से दीपक की उस लड़ाई के समान है जो कि तूफ़ान के थपेड़े खाता हुआ भी उसके सामने झुकता नहीं. प्रेमचंद की दलित नारी का यह विद्रोह कोई आत्मघात नहीं है अपितु यह उसका उद्घोष है कि वह केंचुए की तरह केवल कुचले जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है, भले ही इसके लिए उसे अपना सर्वस्व ही क्यों न गंवाना पड़े.

शनिवार, 28 जुलाई 2018

ग्रहण


24 अक्टूबर, 1995 को हमने अन्धविश्वास को नकारते हुए, जलपान करने के बाद,  अल्मोड़ा के सर्किट हाउस से लगभग 93% सूर्य-ग्रहण का अविस्मर्णीय दृश्य देखा था. 
भौतिक शास्त्र के विद्वान और मेरे मित्र राजीव जोशी ने फ़ेसबुक पर चन्द्र-ग्रहण तथा सूर्य-ग्रहण से जुड़े अंध-विश्वास को तोड़ने का अभियान छेड़ा है. मैं इस प्रयास की सराहना करता हूँ.
जयद्रथ वध -
हज़ारों साल पहले भी हमारे ऋषि-मुनि सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों को जानते थे.
श्री मैथिली शरण गुप्त के खंड काव्य 'जयद्रथ वध' का प्रसंग बड़ा रोचक है -
अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले अभिमन्यु के हत्यारे जयद्रथ का वध करने का प्रण किया था और ऐसा न कर पाने पर उसे ख़ुद चिता में कूदकर अपने प्राण देने थे.
कौरव सेना ने जयद्रथ को सूर्य का उजाला रहने तक ऐसा छुपाया कि अर्जुन उस तक पहुँच ही नहीं पाया. फिर अँधेरा छा गया, अपने-अपने घोंसलों की और लौटते हुए पक्षी कलरव करने लगे.
सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध करने का अपना प्रण पूरा न कर पाने के कारण निराश अर्जुन स्वयं धधकती हुई चिता में कूदने के लिए उसकी और बढ़ने लगा. किन्तु श्री कृष्ण तब भी मुस्कुरा रहे थे.
रात होती देख छुपा हुआ जयद्रथ भी सबके सामने आ गया.
श्री कृष्ण ने आकाश की और देखा फिर यकायक अँधेरा छटने लगा, सूर्य फिर से चमकने लगा.
उस दिन पूर्ण सूर्य ग्रहण था, यह केवल श्री कृष्ण को पता था. उनको यह भी पता था कि पूर्ण सूर्य-ग्रहण के समय दिन में भी रात होने का भ्रम होता है और दिन को रात समझकर पक्षी अपने घोंसलों में वापस जाने लगते हैं. ग्रहण समाप्त होते ही सूर्य को तो फिर से चमकना ही था. श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
'हे पार्थ प्रण पूरा करो, देखो अभी दिन शेष है.'
फिर क्या था? अर्जुन ने तुरंत अपने गांडीव की प्रत्यंचा खींच, वाण चलाकर, जयद्रथ का वध कर दिया.

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

नीरज


मेरा मक़सद श्री गोपालदास नीरज के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक निबंध लिखना नहीं है. मैं तो उनके एक प्रशंसक (यानी कि खुद मैं) के बचपन से लेकर उसके बुढ़ापे तक की यात्रा में उनके गीतों की महत्ता का उल्लेख करना चाहता हूँ.
जब मैं क़रीब 7-8 साल की उम्र का था, तब मैंने नीरज का गीत– कारवां गुज़र गया.’ सुना था. रोचक बात यह थी कि इस गीत को हमारे लिए एक सत्यकथा के रूप में प्रस्तुत किया गया था, यानी नीरज की एक प्रेमिका प्रेम-बेल पल्लवित होने से पहले ही उनसे बिछड़ जाती है, फिर उसका किसी अन्य व्यक्ति से विवाह होता है और फिर बिना पिया-मिलन के वह विधवा हो जाती है.
7-8 साल की उम्र में कविता में दी गयी कहानी को भी सत्य-कथा मान लेना कोई अजीब बात नहीं है.
मेरे बड़े भाई साहब का साहित्यिक प्रेम और नीरज के गीतों के लिए उनकी दीवानगी ने मुझे भी उस उम्र से नीरज का प्रशंसक बना दिया जब उनको समझने की मुझको तमीज ही नहीं थी.
नीरज का एक बहुत ख़ूबसूरत गीत -
माखनचोरी कर तूने
कुछ तो कम किया बोझ ग्वालन का
लेकिन मेरे श्याम बता
इस रीती गागर का क्या होगा
वीतराग हो गया मनुज
अब बूढ़े ईश्वर का क्या होगा.’
(इस गीत का अर्थ मुझे 1959 से लेकर 1977 तक समझ में नहीं आया था पर 1977 में हरदोई में आयोजित एक कवि सम्मलेन में सुबह 4 बजे नीरज ने इस गीत को व्याख्या के साथ ऐसे सुनाया कि वह आज तक तक मेरे दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है)
नीरज उत्तर प्रदेश के जिले इटावा के रहने वाले थे और इटावा वालों के किसी कवि-सम्मलेन को ठुकराना उनके बस में नहीं था. 1959 से 1962 तक पिताजी की पोस्टिंग इटावा में थी. नीरज के भतीजे श्री घनश्यामदास 'नीरद' पिताजी के कोर्ट में अहलमद थे. उनके माध्यम से हमको नीरज के तमाम किस्से पता चले थे.
हमारे इटावा प्रवास के इन तीन सालों में नीरज, तीन बार वार्षिक नुमाइश के कवि-सम्मलेन में आए थे और उन्होंने कारवां गुज़र गया गीत को गाकर सुनाया था. जिन लोगों ने फ़िल्म नई उमर की नई फ़सल में रौशन के संगीत में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में ही यह गीत सुना है, वो मेरी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते कि नीरज ख़ुद इस गीत को बेहतर धुन में और बेहतर तरीक़े से गाते थे. नीरज के स्वरों का आरोह-अवरोह का मुक़ाबला या तो फ़िराक गोरखपुरी के अंदाज़ से किया जा सकता है या फिर कैफ़ी आज़मी के.
उन दिनों नीरज गिलास या बोतल से नहीं, बल्कि बाल्टियों से शराब पिया करते थे. वैसे भी उन बेचारे को काव्य-पाठ की अपनी बारी आने का रात बारह बजे तक इंतज़ार तो करना ही होता था. काव्य-पाठ की अपनी बारी आने पर नीरज झूमते-लड़खड़ाते मंच पर आते थे, थोड़ा बहकते थे, थोड़ा भूलते थे तो कोई न कोई श्रोता उनकी अधूरी पंक्ति को पूरा कर देता था. बस, फिर वो मूड में आ जाते थे और मूड में गीत गाते हुए नीरज को सुनना एक अलौकिक आनंद का अनुभव होता था.
यह वह ज़माना था जब गोपाल सिंह नेपाली, भारत भूषण अग्रवाल, देवराज दिनेश, काका हाथरसी जैसे दिग्गज कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाते थे. लेकिन नीरज तो नीरज थे. हर कवि-सम्मलेन की जान तो नीरज ही हुआ करते थे.
नीरज की कविताओं पर मरने-मिटने वाली सुंदरियाँ कतार लगाकर उनसे मिलती थीं. हमने सुना था कि मजाज़ लखनवी के नाम पर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की लड़कियां पर्चियां निकाल कर यह तय करती थीं कि वो किसकी क़िस्मत में आएँगे. मजाज़ को तो मैंने देखा नहीं पर नीरज के लिए खवातीनों की कुछ ऐसी ही तड़प का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ.  
हिंदी-उर्दू का जैसा सुन्दर संगम नीरज के गीतों में मिलता है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है. हम लोगों के ये समझ में नहीं आता था कि नीरज फ़िल्मों के लिए गीत क्यों नहीं लिखते. फिर नीरज फ़िल्मों में गीत लिखने चले गए.
फ़िल्म नई उमर की नई फ़सल का गीत – ‘आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है भी हमने नीरज से सुना था, उनके अपने अंदाज़ में, पर इस गीत के लिए मोहम्मद रफ़ी, आशा भोंसले और संगीतकार रौशन ने पूरा इंसाफ़ किया था –
पहले इन सब के लिए एक इमारत गढ़ लूं
फिर तेरी मांग सितारों से भरी जाएगी.’
ऐसा लगता है कि फैज़ की नज़्म – ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ने नीरज को भी बहुत प्रभावित किया था.
प्रेम पुजारी और मेरा नाम जोकर के गीत हिंदी फ़िल्म इतिहास के सबसे स्तरीय गीत हैं.
नीरज के प्रशंसकों को कश्मीर पर लिखा उनका गीत –
खुशबू सी आ रही है
कहीं जाफ़रान की
खिड़की खुली हुई है
किसी के मकान की
और
अब के सावन में
शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के
कुल शहर में बरसात हुई.’
कभी भुलाए नहीं भूलते.
नीरज के आलोचक उन पर इल्ज़ाम लगते हैं कि वो मुट्ठी भर शब्दों को बार-बार इस्तेमाल करते हैं. कितनी हास्यास्पद बात है. मेरा इन आलोचकों से सवाल है – आपको सीमित व्यंजनों वाला स्वादिष्ट भोजन चाहिए या 50 व्यंजनों वाला जला-भुना या अध-कच्चा bhojanभोजन?’
नीरज के प्रेम-गीत मुख्यतः विरह काव्य की श्रेणी में आते हैं. उनका वियोगी रूप ही हमको सबसे ज़्यादा भाता है. उनके दोहों में उनका सूफ़ियाना मिजाज़ दिखाई पड़ता है तो उनके अंतिम चरण की कविताओं में हमको ओशो के दर्शन का प्रभाव दिखाई पड़ता है. लेकिन हमारे लिए नीरज प्रेम के कवि हैं, दर्द के गीतकार हैं, तड़प और कसक के शायर हैं.
जाओ नीरज तुम आसमान में जाओ ! लेकिन हमको यकीन है कि तुम वहां भी छा जाओगे और वहां भी समां बाँध दोगे. तुम हमसे दूर जा रहे हो, ये तुम्हारा वहम है. सूरदस की भाषा में हम कहेंगे –
बांह छुडाए जात हौ, निबल जान के मोहि,
हिरदे ते जब जाहुगे, सबल कहोंगी तोय.’          

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

स्वामी अग्निवेश के विरोध का सनातनी तरीका


लाठी में गुन बहुत हैं,
सदा राखिए संग,
धरम की रक्षा के लिए,
नित्य छेड़िए जंग. 

स्वामी दयानंद सरस्वती ने शास्त्रार्थ की परंपरा को पुनर्जीवित कर सनातनी विचारधारा के विद्वानों को शास्त्रार्थ में कई बार हराया था. उसके बाद आर्यसमाजियों और सनातनधर्मियों के मध्य अक्सर ऐसे शास्त्रार्थ होने लगे थे. इन मतों के समर्थकों के मध्य हो रहे ऐसे ही एक शास्त्रार्थ के चरमोत्कर्ष में जब एक सनातनधर्मी पंडितजी के पास कोई तर्क नहीं बचा तो उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ते हुए अपने प्रतिद्वंदी से प्रश्न पूछा -
'मैं तो सालिग्राम जी को मानता हूँ. जो सबको साक्षात् दिखाई देते हैं. मैं नित्य उनको स्नान कराता हूँ, उनके चन्दन लगाता हूँ. तू ये बता कि तेरा भगवान कैसा है और वो कहाँ रहता है?
आर्यसमाजी विद्वान ने उत्तर दिया -
'ईश्वर तो सर्वत्र व्याप्त है, वह तो निर्गुण और निराकार होता है. तुम अज्ञानी तो पत्थर की बटिया में भगवान देखते हो.'
सनातनधर्मी पंडित जी ने सालिग्राम रूपी पत्थर की बटिया उठाकर उस आर्यसमाजी विद्वान के सर पर ज़ोर से दे मारी और फिर उस से पूछा -
'क्या तेरा निर्गुण, निराकार ब्रह्म, ऐसे ही मेरा सर फोड़ सकता है?'

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

भाषण

हम ऐसी कुल किताबें, काबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के, बेटे बाप को, खब्ती समझते हैं.
(अकबर इलाहाबादी)
इस शेर का आधुनिक एवं उपयोगी संस्करण -
हम ऐसे दुष्ट श्रोताओं पे, अब सख्ती बरतते हैं,
जो भाषण सुनके उनका, ज़ोर से, मुंह-फेर, हँसते हैं.
ये सारा जिस्म झुक कर, बोझ से, दुहरा हुआ होगा,
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
(दुष्यंत कुमार)
इस शेर का सुधरा हुआ रूप -
वो भाषण सुन के, पत्थर को उठाने, झुक गया होगा.
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
 और दो शेर ख़ालिस मेरे -
त्याग और बलिदान हमेशा, भाषण में जपना होता है,
कुर्सी पर दम तोड़ सकूं मैं, एक यही सपना होता है.

अब न लाठी-चार्ज होगा, और न गोली की बौछार,
भीड़ छटवाने को काफ़ी, मेरा भाषण, एक बार.

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

चंद 'हाय क्यूं?'



चंद ‘हाय क्यूं?’ (अब हायकू के बारे में तो हमको कुछ पता नहीं है)
1. आपके भाषण उसे
सुनने पड़े थे रात दिन
केस हिस्ट्री में ह्रदय रोगी ने बतलाया हमें.
2. भाईचारे के नए
आदर्श स्थापित किए
ताकि चौराहे पे भूने, भाई अपने भाई को.
3. हम तरक्क़ी की बुलंदी पर
पहुँच ही जाएंगे
पर मिटाने भूख, लंगर की शरण ही जाएँगे.
4. सांस लेने पर अगर,
जीएसटी लग जाएगी,
दम के घुटने से मरे कितने, ख़बर नित आएगी.

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

नास्ति मूलमनौषधम्'

आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की पोस्ट पर उद्धरित कथा का नवीनीकरण -
नास्ति मूलमनौषधम्'
(ऐसी कोई वनस्पति है ही नहीं, जो किसी न किसी व्याधि की चिकित्सा में उपयोगी न हो.)
एक कथा है कि महर्षि चरक ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उन्हें अलग-अलग दिशाओं में एक योजन (चार कोस) तक जाने के लिए कहा और निर्देश दिया कि इस बीच ऐसी कोई वनस्पति, फूल, जड़ पत्ता और घास मिल जाए जो औषधि के रुप में काम न सके, उसे ले आओ.
ब्रह्मचारी विभिन्न दिशाओं में गए और उनमें से अनेक ब्रह्मचारी पोटली बाँधकर कुछ वनस्पतियों को ले आए और अनेक गठरी में कुछ बाँधकर. एक विद्यार्थी खाली हाथ लौट आया किन्तु वो अपने साथ दो चारपाइयों पर चार-चार कहारों की मदद से दो लहूलुहान व्यक्तियों को ढोकर ले आया.
उस विद्यार्थी से गुरुजी ने पूछा-
''क्या तुम्हें एक योजन तक ऐसी कोई वृक्ष-वनस्पति नहीं मिली जिसका फल, फूल, पत्ता, जड़, लकड़ी, छाल और तृण औषधि के रुप में अनुपयुक्त हो?''
विद्यार्थी ने अपने हाथ जोड़कर गुरु जी को उत्तर दिया  -

''गुरुदेव, ऐसी कोई वनस्पति मुझे दीखी ही नहीं जो औषधि के रुप में प्रयुक्त न हो सके. लेकिन मुझे मार्ग में आपस में एक-दूसरे का सर फोड़ते हुए ये दो भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता दिखाई दिए. मैं इन्हें अपने साथ ले आया हूँ. मेरे विचार से इनकी समस्त सृष्टि में कोई भी उपयोगिता नहीं है और चूंकि ये जड़बुद्धि हैं इसलिए इनकी गणना मनुष्यों में नहीं, बल्कि वृक्ष-वनस्पति की किसी श्रेणी में ही की जानी चाहिए."
आचार्य उसका उत्तर सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसको अपने गले लगाते हुए उससे कहा -
"तुम मेरे सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी हो"