हम ऐसी कुल किताबें, काबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के, बेटे बाप को, खब्ती समझते हैं.
(अकबर इलाहाबादी)
जिन्हें पढ़कर के, बेटे बाप को, खब्ती समझते हैं.
(अकबर इलाहाबादी)
इस शेर का आधुनिक एवं उपयोगी संस्करण -
हम ऐसे दुष्ट श्रोताओं पे, अब सख्ती बरतते हैं,
जो भाषण सुनके उनका, ज़ोर से, मुंह-फेर, हँसते हैं.
ये सारा जिस्म झुक कर, बोझ से, दुहरा हुआ होगा,
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
(दुष्यंत कुमार)
इस शेर का सुधरा हुआ रूप -
वो भाषण सुन के, पत्थर को उठाने, झुक गया होगा.
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
और दो शेर ख़ालिस मेरे -
त्याग और बलिदान हमेशा, भाषण में जपना होता है,
कुर्सी पर दम तोड़ सकूं मैं, एक यही सपना होता है.
अब न लाठी-चार्ज होगा, और न गोली की बौछार,
भीड़ छटवाने को काफ़ी, मेरा भाषण, एक बार.
हम ऐसे दुष्ट श्रोताओं पे, अब सख्ती बरतते हैं,
जो भाषण सुनके उनका, ज़ोर से, मुंह-फेर, हँसते हैं.
ये सारा जिस्म झुक कर, बोझ से, दुहरा हुआ होगा,
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
(दुष्यंत कुमार)
इस शेर का सुधरा हुआ रूप -
वो भाषण सुन के, पत्थर को उठाने, झुक गया होगा.
वो सज्दे में नहीं था, आपको, धोखा हुआ होगा.
और दो शेर ख़ालिस मेरे -
त्याग और बलिदान हमेशा, भाषण में जपना होता है,
कुर्सी पर दम तोड़ सकूं मैं, एक यही सपना होता है.
अब न लाठी-चार्ज होगा, और न गोली की बौछार,
भीड़ छटवाने को काफ़ी, मेरा भाषण, एक बार.
धन्यवाद राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी. आज ही इस अंक को पढ़ने का आनंद उठाता हूँ.
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब ... अलग अलग आंकलन ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिगंबर नसवा जी. आकलन तो अलग-अलग होना ही चाहिए. आखिर वो हमारा खून भी तो अलग-अलग तरीकों से पीते हैं.
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू.
हटाएं