सोमवार, 31 जुलाई 2017

कलम का सिपाही

कलम का सिपाही –
कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की जयन्ती हर साल 31 जुलाई को मनाए जाती है. इस दिन उनकी जन्मभूमि लमही में उनके टूटे-फूटे स्मारक में एक समारोह हो जाता है और कई जगह उनके पुराने चित्रों को झाड-पोंछकर उन पर मालाएं चढ़ा दी जाती हैं. छात्र-छात्राओं को प्रेमचंद पर भाषण प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर दिया जाता है और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकार व साहित्यिक अभिरुचि का दावा करनेवाले राजनीतिज्ञ उन्हें उपन्यास सम्राट तथा कहानी सम्राट का तमगा पहना देते हैं.
प्रेमचंद के देहावसान को इक्यासी वर्ष बीत चुके हैं पर आज भी उनके उपन्यासों और कहानियों के पात्र जीवंत प्रतीत होते हैं. अगर हमको उनकी रचनाओं में से केवल एक पात्र चुनना हो तो हम निश्चित ही ‘गोदान’ के होरी को चुनेंगे. किसान से खेतिहर मजदूर बना अशिक्षित और दुनियादारी से सर्वथा वंचित होरी आज भी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद क़र्ज़ के बोझ तले दबा हुआ है. खेतिहर मजदूर होने की वजह से किसी भी विपदा में उसे सौ-दो सौ के चेक के रूप में कोई सरकारी मदद भी नहीं मिल सकती. उसकी घरवाली धनिया, उसकी बेटियां रूपा और सोना, भगवान न करे, अगर सुन्दर हुईं तो ज़रूर कोई न कोई महाजन या किसी ज़मींदार का वंशज उन पर घात लगाये बैठा होगा. फसल अगर ख़राब हो गयी तो उसके पास न तो खाने को रहेगा और न ही कर्जे की किश्त चुकाने को. ऐसे में गले में रस्सी का फन्दा ही उसका एक मात्र सहारा हो जाता है. हमारे भारत महान में, हमारे शाइनिंग इंडिया में, अनगिनत होरी अपनी करुण गाथा लिखवाने के लिए प्रेमचंद का आवाहन कर रहे हैं –
हे प्रेमचंद, फिर कलम उठा, नवभारत का उत्थान लिखो,
होरी के लाखों पुनर्मरण पर, एक नया गोदान लिखो.
प्रेमचंद के सुपुत्र श्री अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ लिखकर हिंदी-उर्दू भाषियों के साहित्य प्रेम पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ा है. गांधीजी के आवाहन पर शिक्षा विभाग की अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर हमारा कथा सम्राट असहयोग आन्दोलन में भाग लेता है और हमेशा-हमेशा के लिए गरीबी उसका दामन थाम लेती है. उसके बिना कलफ और बिना इस्तरी किये हुए गाढ़े के कुरते के अन्दर से उसकी फटी बनियान झांकती रहती है. उसकी पैर की तकलीफ को देखकर डॉक्टर उसे नर्म चमड़े वाला फ्लेक्स का जूता पहनने को को कहता है पर उसके पास उन्हें खरीदने के लिए सात रुपये नहीं हैं. वो अपने प्रकाशक को एक ख़त लिख कर उसमें विस्तार से अपनी तकलीफ बताकर सात रुपये भेजने की गुज़ारिश करता है. अभावों से जूझता हमारा नायक जब अंतिम यात्रा करता है तो उसे कन्धा देने के लिए दस-बारह प्रशंसक जमा हो जाते हैं. शव यात्रा देखकर कोई पूछता है –
‘कौन था?’
जवाब मिलता है –
‘कोई मास्टर था.’
प्रेमचंद हमेशा अपनी रचनाओं और अपने प्रगतिशील पत्रों – ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ के माध्यम से स्वदेशी, सांप्रदायिक सद्भाव, नारी-उत्थान और दलितोद्धार का सन्देश देते रहे. उनका सम्पूर्ण साहित्य धार्मिक सामाजिक, आर्थिक शोषण, असमानता, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखंड, लिंग भेद, अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, आलस्य, जातीय दंभ, बनावटीपन, शेखीखोरी, असहिष्णुता, धर्मान्धता, विलासिता, खोखली देशभक्ति और अवसरवादिता के विरुद्ध संघर्ष है. उन्हें अल्लामा इकबाल का यह शेर बहुत पसंद था –
‘जिस खेत से दहकान को मयस्सर न हो रोटी,
उस खेत के हर खेश-ए-गंदुम को जला दो.’
(जिस खेत से खुद किसान को रोटी नसीब न हो, उस खेत की गेंहू की हर बाली को जला दो)
पर इस शेर का मर्म समझने की हमारे देश के नेताओं को आजतक फुर्सत नहीं है. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का अमर पात्र देवीदीन जो असहयोग आन्दोलन के दौरान अपने दो बेटों की क़ुरबानी दे चुका है, देश के एक भावी कर्णधार से पूछता है कि क्या वो ये नहीं सोचते कि जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो इनके बंगलों पर वो खुद क़ब्ज़ा कर लेंगे. नेताजी के हाँ कहने पर देवीदीन सोचने लगता है कि इस आज़ादी की लड़ाई में क़ुरबानी देने से आम आदमी को क्या मिलेगा. आज भी हम उसी देवीदीन की तरह असमंजस की स्थिति में हैं पर अब हमारा खुद से प्रश्न होता है –‘क्या हम वाकई आजाद हो गए हैं?’
आज हमको फिर एक नए प्रेमचंद की ज़रुरत है, आज फिर हमको आम आदमी का दर्द समझने वाले कलम के सिपाही की दरकार है, आज फिर ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘सदगति’, ‘सवा सेर गेंहू’, ‘ठाकुर का कुआँ’ ‘ईदगाह’, पूस की रात’ ‘कफ़न’, और ‘मन्त्र’ लिखे जाने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वही अन्याय और वही अनाचार फल-फूल रहा है जिसके खिलाफ कभी प्रेमचंद ने निर्भीकता से आवाज़ बुलंद की थी.
प्रेमचंद की रचनाएँ तो सीमित हैं किन्तु भारतीय जन-मानस पर उनका प्रभाव असीमित और शाश्वत है. लेकिन आज प्रेमचंद का गुणगान करने के स्थान पर ज़रुरत इस बात की है कि उनका अनुकरण कर हम भी उन्हीं की तरह अन्याय के खिलाफ़ साहस के साथ आवाज़ उठाएं और धर्म के, समाज के , राजनीति के, असंख्य भ्रष्ट ठेकेदारों को बेनकाब कर उनको उनके सही अंजाम तक पहुंचाएं और मजलूमों को, मेहनतकश को, सर्वहारा को, उनका वाजिब हक़ दिलवाएं.

रविवार, 30 जुलाई 2017

रजिस्ट्रार गुरु जी

रजिस्ट्रार गुरु जी –
रजिस्ट्रार गुरु जी से मेरा आशय उन गुरुजन से नहीं है जो कि अध्यापक और रजिस्ट्रार का दायित्व एक साथ सम्हालते हैं बल्कि उन विभूतियों से है जो कि क्लास में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति दर्ज करने के लिए अपना अटेंडेंस रजिस्टर खोलते हैं या फिर पढ़ाते समय अपने नोट्स वाले रजिस्टर से उनको इमला लिखाते रहते हैं. इस प्रकार रजिस्टर, अनेक गुरुजन के लिए जीवन-दायिनी ऑक्सीजन के समान है. मैं ऐसी विभूतियों को रजिस्ट्रार गुरु जी कहता हूँ. जो विद्वान कक्षा में अपने रजिस्टर अथवा अपनी फाइलों से नोट्स लिखाने के स्थान पर छोटे-मोटे लेक्चर भी दे लेते हैं पर हमेशा अपने सामने पॉइंट्स लिखी हुई पुर्चियाँ सामने रखते हैं, उन्हें मैं डिप्टी रजिस्ट्रार कहता हूँ. 
अपने छात्र जीवन में मुझे कई रजिस्ट्रार गुरुजन से ज्ञान (?) प्राप्त हुआ है. गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा में मैं कक्षा 6 में पढ़ता था. हमारे साइंस के मास्साब को ज़बर्दस्ती हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी दे दी गयी. मास्साब को संस्कृत का ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ भी नहीं आता था. वो बेचारे संस्कृत गद्य का पाठ भी गाकर करते थे और उसका अर्थ बिना किसी झिझक के, कुंजी से उतारे हुए नोट्स देख कर हमको लिखवाते थे. इस प्रकार बचपन में ही मुझे एक रजिस्ट्रार गुरु जी मिल गए थे. 
अब मैं कक्षा छह से सीधे अपने बी. ए. के दिनों में आता हूँ. झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज में इतिहास के हमारे विभागाध्यक्ष डॉक्टर बी. डी. गुप्ता प्रसिद्द विद्वान थे. उनके पढ़ाने के अंदाज़ का मैंने आजीवन अनुकरण किया है पर हमारी बदकिस्मती से बी. ए. फाइनल में उनकी जगह कोई गोलमटोल काली माई नहीं, बल्कि ताड़का जैसी कोई मिस तिवारी हमको यूरोप का इतिहास पढ़ाने आ गईं. मिस तिवारी बहन मायावती की तरह हमेशा बोलते समय रजिस्टर अपने सामने रखती थीं और हमको लेक्चर देने के बजाय सिर्फ़ नोट्स लिखाती रहती थीं. सबसे दुखदायी बात यह थी कि उनके नोट्स '’राजहंस प्रकाशन’ की एक मेड इज़ी की हूबहू कॉपी हुआ करते थे. हम लोग रोते हुए डॉक्टर गुप्ता के पास गए पर उन्होंने हमको डांट कर भगा दिया और साथ में हमको ये चेतावनी भी दे डाली कि अगर हमने मैडम के क्लास में कोई हंगामा किया तो वो हमारे खिलाफ़ एक्शन भी लेंगे. हम बेचारे खून का घूँट पीकर मिस गोलमटोल तिवारी द्वारा बोली गयी इमला को लिखने को मजबूर हो गए. 
कुछ समय पहले मैंने आलम और उनकी रंगरेजन प्रेमिका द्वारा रचित प्रश्नोत्तरनुमा यह दोहा पढ़ा था –
‘कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन,
कटि को कंचन काटि के, कुचन मध्य, धर दीन.’
ताड़का रूपी मिस तिवारी के ज़बर्दस्ती नोट्स लिखाने के अत्याचार के फलस्वरुप मेरे अन्दर का सोया हुआ कवि जाग उठा और मैंने आलम-रंगरेजन के दोहे की तर्ज़ पर एक दोहा लिख मारा –
‘लौह घड़ा सी बाम्हनी, काहे को मति हीन,
मेड इज़ी से नोट्स दे, चैन ले गयी छीन.’
इस दोहे की भनक पता नहीं कैसे हमारे डॉक्टर बी. डी. गुप्ता तक पहुँच गयी. उन्होंने मिस तिवारी की उपस्थिति में अपने कक्ष में मुझे बुलाकर मुझसे मेरा दोहा सुना, फिर मुझे कस कर डांटा पर पता नहीं क्यों उनकी खुद की हंसी फूट पड़ी. ‘खी, खी, खी’ करते हुए उन्होंने मुझसे भाग जाने को कहा तो फिर मैं वहां से मिल्खा सिंह की स्पीड से अपनी जान बचाकर भाग आया.
लखनऊ विश्ववियालय में मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में एम. ए. करते समय भी एक रजिस्ट्रार गुरु जी ने हमको बहुत दुखी किया था. हम लोगों ने आन्दोलन कर के उनके नोट्स लिखवाने की आदत पर अंकुश लगवा दिया था. यह बात दूसरी है कि हमारे ये गुरु जी बिना नोट्स देखे जब बोलते थे तो न तो वो बहादुर शाह प्रथम और बहादुर शाह द्वितीय में कोई फ़र्क करते थे और न ही बाजी राव प्रथम और बाजी राव द्वितीय में. एक बार तो उन्होंने अकबर और रानी दुर्गावती के बीच हुई लड़ाई को अकबर और अहल्या बाई के बीच लड़ाई में बदल दिया था.
लखनऊ विश्वविद्यालय और कुमाऊँ विश्वविद्यालय में कुल 36 साल पढ़ाते समय मैंने खुद कभी रजिस्टर या नोट्स का सहारा नहीं लिया. इस बात में कोई ख़ास कमाल नहीं है. इतिहास जैसे विषय को समझकर पढ़ना-पढ़ाना चाहिए न कि उसे रट कर. और अगर आप उसको समझने का प्रयास करते हैं तो पढ़ाते समय नोट्स वाला रजिस्टर आपके लिए सिर्फ एक अनावश्यक बोझ है और कुछ नहीं. 
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में जब मेरी नियुक्ति हुई तो मैंने अपने साथियों से उनकी रजिस्ट्रार-प्रवृत्ति का परित्याग करने का अनुरोध किया. चंद सहकर्मियों ने तो मेरे प्रस्ताव का स्वागत करते हुए उस पर अमल करना भी शुरू कर दिया पर प्रतिष्ठित रजिस्ट्रार महोदयों ने मेरे खिलाफ़ जिहाद छेड़ दिया. 
मेरे एक सहयोगी थे, अगर वो भूल से अपना पढ़ने वाला चश्मा घर ही छोड़ आते थे तो उनके अनुरोध पर या तो मुझे उनकी जगह क्लास लेना पड़ता था या फिर वो विद्यार्थियों के बीच उस दिन फ़िल्मी अन्त्याक्षरी करवा देते थे. उनके रजिस्टर प्रेम की एक कथा बड़ी प्रसिद्द है. एक दिन वो अपने रजिस्टर से हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में विद्यार्थियों को लिखवा रहे थे पर कथा उस दिन पूरी नहीं हुई. अगले दिन वो गलती से यूरोपियन हिस्ट्री वाला रजिस्टर ले आए और उन्होंने वॉटरलू के मैदान में राणा प्रताप को हरवा दिया. 
मुझे आजीवन अपने रजिस्ट्रार गुरुजन के कोप का भाजन होना पड़ा है पर मैं अपनी मोटी चमड़ी का क्या करूं? लाख प्रताड़ना के बाद भी रजिस्ट्रार गुरुजन को मैं काहिल, जाहिल और गुरु के नाम पर कलंक मानने से बाज़ नहीं आया. 
मेरे अवकाश-प्राप्ति पर मेरे साथियों ने मुझे औपचारिक विदाई भी नहीं दी और न ही मेरे ऊपर कोई माला चढ़ाई. खैर फिर भी रजिस्ट्रार गुरुजन के खिलाफ़ मेरी मुहिम, मेरी जंग आज भी जारी है. यह बात और है कि अब यह जंग फेसबुक और मेरे ब्लॉग तक सीमित रह गयी है.
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रविवार, 23 जुलाई 2017

स्वराज्य का मंत्रदाता

लोकमान्य तिलक के जन्मदिन पर एक अप्रकाशित रचना -
स्वराज्य का मन्त्रदाता -
मराठा पेशवाओं के वंश में 23 जुलाई, 1856 में एक बालक का जन्म हुआ था। बचपन से ही मेधावी इस बालक ने शिवाजी और बाजीराव प्रथम की गौरवशाली उपलब्धियों को फिर से प्राप्त करने का संकल्प ले लिया था। शिवाजी के बचपन की लीलास्थली और पेशवा बाजीराव प्रथम की कर्मस्थली पूना में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना का सपना संजोया जा रहा था। शिवाजी के स्वप्न को अखिल भारतीय स्तर पर साकार करने का बीड़ा उठाने वाला पेशवाओं का वंशज, स्वराज्य की हुकार भरने वाला देशभक्त था- हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का पहला जन-नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक।
साधारण आर्थिक स्थिति के परिवार में जन्मे इस बालक को देश के उत्थान की उत्कट कामना थी। जिस आयु में बच्चों को परियों की कहानियां सुनना और लुका-छिपी के खेल अच्छे लगते हैं और तरह-तरह की शरारतों व धमा-चौकड़ी करने में ही उनका दिन बीतता है, उस आयु में यह बालक देश को आज़ाद कराने की चिन्ता में लीन रहता था। भारत को ग़ुलामी की बेडि़यों में जकड़े देख कर उसको चैन से नींद नहीं आती थी। बचपन से ही धीर-गम्भीर, अध्ययनशील बाल गंगाधर तिलक ने अपनी प्रतिभा का परिचय दे दिया था। गणित, संस्कृत, मराठी, दर्शन, तर्क-शास्त्र और न्याय-शास्त्र पर उसकी गहरी पकड़ थी। इतिहास में उसकी गहरी रुचि थी। शिवाजी की वीरता और उनके साहसिक अभियानों ने उसे यह विश्वास दिला दिया था कि प्रयास करने पर वर्तमान काल में भी भारतीय खुद को गुलामी की बेडि़यों से मुक्त करा सकते हैं। बालक गंगाधर कहता था-
‘मैं बड़ा होकर शिवाजी के सपने को साकार करूंगा। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है । अंग्रेज़ों ने हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी, हमारी आपसी फूट का लाभ उठाकर हमको गुलाम बना लिया है। हम भारतीय एक होकर उनकी इस चाल को नाकाम कर देंगे और भारत में स्वराज्य स्थापित कर देंगे।‘
दस वर्ष की अल्पायु में बाल गंगाधर के सर पर से माँ का और सोलह वर्ष की आयु में पिता का साया उठ गया पर यह किशोर अपने विद्याध्ययन के लक्ष्य से पल भर के लिए भी विचलित नहीं हुआ। पिता की मृत्यु से एक वर्ष पूर्व पन्द्रह वर्ष की आयु में उसका विवाह भी हो गया था। बाल गंगाधर के विवाह से जुड़ा हुआ एक रोचक प्रसंग है। बाल गंगाधर के श्वसुर उसे दहेज के रूप में कुछ सामान व नकद रुपये देना चाहते थे पर दहेज-प्रथा के विरोधी इस किशोर को यह भेंट स्वीकार्य नहीं थी। श्वसुर के बार-बार अनुरोध पर उसने भेंट लेना स्वीकार तो किया पर अपनी शर्तों पर। उसने अपने श्वसुर से कहा-
‘मान्यवर! मैं भेंट के रूप में केवल एक वस्तु ही स्वीकार करूंगा। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे उपयोगी पाठ्य पुस्तकें खरीद कर दे दें।‘
दहेज के रूप में दामाद को पाठ्य पुस्तकें देते हुए बाल गंगाधर के श्वसुर अपने सौभाग्य पर स्वयम् ही आश्चर्य चकित हो रहे थे।
अपने चाचा के संरक्षण में, डेकेन कॉलेज पूना में बाल गंगाधर का अध्ययन जारी रहा। मेधावी बाल गंगाधर के अध्ययन के खर्च का काफ़ी बड़ा हिस्सा तो उसकी छात्रवृत्ति से ही पूरा हो जाता था। यहीं से उसने सन् 1876 में बी. ए. और सन् 1879 में एलएल. बी. किया।
अपने विद्यार्थी जीवन के साथी दस्तूर, आगरकर और चन्द्रावरकर के साथ बाल गंगाधर तिलक ने देश-सेवा और शिक्षा प्रसार का स्वप्न देखा था। युवक तिलक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अतीत का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारतीय जागृति के लिए पश्चिम के मार्ग-दर्शन पर आश्रित होना या योरोपीय पुनर्जागरण का अंधानुकरण करना बिलकुल भी आवश्यक नहीं है। उनका विचार था-
‘भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्पराओं का निर्वाह करने वाले और विवेक व नीति की कसौटी पर खरे उतरे मूल्यों की पुनर्स्थापना से ही भारत का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है।‘
युवक तिलक यह नहीं मानते थे कि सभ्यता के प्रसार-प्रचार का एकाधिकार पाश्चात्य देशों का या मात्र गोरी जाति का है। ऐतिहासिक प्रमाणों से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि आर्य सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता थी पर सदियों की कूपमण्डकता, हठवादिता, आपसी कलह, आलस्य, स्वार्थपरता और कायरता ने भारतीय अवनति के अनगिनत द्वार खोल दिए थे। मध्यकाल की पराधीनता से भी कोई सबक न सीखकर भारतीय अब भी आत्मघाती प्रवृत्तियों में मग्न थे। जब तिलक उन्नीसवीं शताब्दी के दीन-हीन और परतन्त्र भारत की तुलना प्राचीन काल के गौरवशाली भारत से करते थे तो उनका भावुक मन उदास हो जाता था। उन्हें तब और भी कष्ट होता था जब पाश्चात्य सभ्यता की श्रेष्ठता का दावा करने वाले अंग्रेज़ भारतीयों को सभ्य बनाने का बीड़ा उठाने की बात करते थे। तिलक जानते थे कि सशस्त्र क्रांति के माध्यम से अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ना असंम्भव था इसलिए यह आवश्यक था कि अंग्रेज़ी शासन में रहते हुए ही भारतीय अपने सर्वतोमुखी उत्थान का प्रयास करें और अंग्रेज़ों को यह दिखा दें कि उनकी मदद के बिना ही भारतीय अपना कल्याण कर सकते हैं। उन्होंने अंग्रेज़ों को सुधार के बहाने भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक मामलों में टांग अड़ाने से बड़ी सख्ती से मना किया। बाल-विवाह की प्रथा के वह घोर विरोधी थे पर जब प्रसिद्ध समाज सुधारक माल्बरी ने बाल-विवाह पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया तो उसका विरोध करते हुए उन्हांने कहा-
‘किसी विदेशी सरकार को हमारे घरेलू मामलों में, हमारी सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं में सुधार के नाम पर अपनी टांग अड़ाने की आवश्यकता नहीं है। हममें अपनी सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों को दूर करने की पूरी क्षमता है। सरकार इस विषय में कोई भी कानून बनाएगी तो हम उसका विरोध करेंगे।‘
तिलक स्वयम् सामाजिक सुधारों के समर्थक थे पर वह समाज सुधार से पहले राजनीतिक सुधार लाना चाहते थे। सन् 1879 में अपनी शिक्षा पूरी करने के तुरन्त बाद अपने मित्र आगरकर के साथ तिलक ने एक स्वदेशी विद्यालय की स्थापना की। तिलक का अध्यापक रूप अत्यन्त प्रखर था। हिन्दू लॉ के अध्यापन में उनकी सी ख्याति बहुत कम लोगों को ही मिल सकी थी। तिलक कहते थे-
‘मैं सरकारी नौकरी करने की तो कभी सोच भी नहीं सकता। अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मेरी हिन्दू लॉ की प्रशिक्षण कक्षाएं ही पर्याप्त हैं।‘
तिलक का स्वाभिमान और उनका देशप्रेम उन्हें प्रेरित कर रहा था कि वे भारतीयों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जागृति लाने के लिए पत्रकारिता का आश्रय लें। अपने साथी श्री आगरकर और श्री चिपलूणकर के साथ उन्होंने सन् 1881 में दो पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया । ये पत्र थे मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेज़ी में ‘दि मराठा’। एक ओर मराठा और केसरी का प्रकाशन भारतीयों के लिए आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की नयी सुबह के समान था तो दूसरी ओर यह अंग्रेज़ों के अहंकार और उनके शोषक व अन्यायी साम्राज्य के क्षितिज पर छाए प्रलय के बादल के अंधकार की भाँति था। इन पत्रों ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में निर्भीक और प्रतिबद्ध पत्रकारिता के नए मापदण्ड स्थापित किए।
लोकमान्य तिलक को अपने गुरु जस्टिस एम. जी. रानाडे से बहुत कुछ सीखने को मिला था परन्तु वह नहीं चाहते थे कि भारतीय नवजागरण पर पश्चिम के सुधारवादी आन्दोलन की मुहर लगे। तिलक इन सबसे कुछ हटकर करना चाहते थे, वह चाहते थे कि उनके विचारों को पढ़कर भारतीयों में साहस, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और आत्मबलिदान की भावना का संचार हो जाए।
अपने पत्रों ‘केसरी’ और ‘दि मराठा’ के माध्यम से उन्होंने भारत में राजनीतिक चेतना के प्रसार को नयी गति प्रदान की। तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से ही उससे जुड़ गए परन्तु उन्हें राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के लिए अंग्रेज़ों से याचना करने की नरम-पंथी कांग्रेसी नीति स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने अपने अधिकारों को लड़कर प्राप्त करने का सुझाव दिया।
‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणेश उत्सव’ के माध्यम से उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने लार्ड कर्ज़न के दमनकारी शासन (1899-1905) का खुलकर विरोध किया। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए वह अब अंग्रेज़ों से संघर्ष करने के लिए तैयार थे।
‘केसरी’ की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी। सरकारी नीतियों की इतनी कटु और निर्भीक आलोचना आजतक किसी भी पत्र ने नहीं की थी। पाश्चात्य सुधारवादी आन्दोलन के एक भक्त ने लोकमान्य से प्रश्न किया-
” आप ब्रिटिश शासन का इतना विरोध क्यों करते हैं? क्या आप यह नहीं जानते कि अंग्रेज़ न आते तो हम अब भी सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ेपन और राजनीतिक अनाचार के शिकार हो रहे होते? “
लोकमान्य का उत्तर था-
‘भारत में सुधार और विकास का श्रेय अंग्रेज़ों को देना अनुचित है। अंग्रेज़ी मुर्गा बाँग नहीं देता तो क्या भारत की सुबह होती ही नहीं? जब भारत जगद-गुरु और सोने की चिडि़या कहलाता था तब अंग्रेज़ पत्तों और मृगछालों से अपना तन ढकते थे तो क्या हम यह कहें कि इस आधार पर उन पर हम भारतीयों का शासन होना चाहिए था?’
लोकमान्य भारत की आर्थिक अवनति को देखकर बहुत दुखी होते थे। हमारी अकर्मण्यता ने हमको विदेशी सामान पर पूरी तरह से निर्भर बना दिया था। लोकमान्य ने भारतीयों की इसी आलसी प्रवृत्ति के लिए भारतीयों को फटकारते हुए कहा था-
‘हमारे आलस की अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम विलायत को गोबर का निर्यात करेंगे और वहां से बने हुए उपलों का आयात करके अपने घरों का चूल्हा सुलगाएंगे।‘
‘केसरी’ और ‘दि मराठा’ निर्भीकता और साहस के साथ सरकार के वादों को खोखला बता रहे थे। जब वादों को वास्तविकता में बदलने का मौका आता था तो सरकार बहाने बाज़ी पर आ जाती थी। सन् 1892 के इण्डियन कौंसिल्स एक्ट के पारित होने पर भारतीयों को लोकतान्त्रिक व्यवस्था की झलक भी नहीं मिली। लोकमान्य ने अंग्रेज़ों के वादों पर भरोसा करने वालों को सावधान करते हुए कहा था-
‘माँगने से तो भीख भी नहीं मिलती, स्वराज्य क्या मिलेगा? साम्राज्यवादी ताकत से कुछ भी लेना है तो लड़कर लेना होगा। हमको अपने देश की सरकार चलाने का पूरा अधिकार है। हम राजद्रोह नहीं कर रहे हैं बल्कि सरकार को प्रजा द्रोह के घोर पाप से बचा रहे हैं। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम उसे लेकर रहेंगे।‘
लोकमान्य की आलोचनाओं से सरकार की सुधारवादी छवि को गहरा धक्का लगा था। उनका स्वदेशी जागरण अभियान भारतीयों में साहस, आत्मविश्वास और कर्मठता की भावना जगा रहा था। लोकमान्य चाहते थे कि भारतीय अपने आदर्श नायकों की तलाश के लिए पश्चिम की शरण न जाएं बल्कि भारतीय परम्परा और इतिहास में ही उनकी खोज करें। बुद्धि के देवता विघ्न-नाशक गणेश के जन्म, गणेश चतुर्थी को उन्होंने गणेशोत्सव के रूप में राष्ट्रीय पर्व में बदल दिया। शिवाजी उत्सव का आयोजन उनका ऐसा ही एक और कदम था। छत्रपति शिवाजी को राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित करने में भी उनका यही उद्देश्य था कि विदेशी शासन के विरुद्ध सफल विद्रोह और फिर हिन्द स्वराज्य की स्थापना करने वाले इस महानायक के व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा लेकर हम अत्याचारी और शोषक विदेशी शासन का विरोध करने के लिए एकजुट हो जाएं।
ब्रिटिश सरकार महाराष्ट्र के सिंह से और उसके ‘केसरी’ के बढ़ते प्रभाव को देखकर थर्राने लगी थी। वह इस शेर को पिंजड़े में कैद करने का बहाना ढूंढ़ रही थी जो कि उसे सन् 1897 में मिल गया। महाराष्ट्र में व्यापक रूप से फैली प्लेग के निवारण के लिए प्लेग कमिश्नर रैण्ड प्लेग से ग्रस्त घरों और गाँवों को जला रहा था. ‘केसरी’ ने रैण्ड के अत्याचारों की कटु आलोचना की थी। रैण्ड के अत्याचारों से क्षुब्ध चापेकर बंधुओं ने उसकी हत्या कर दी। लोकमान्य को हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का दोषी माना गया और देश के इस पूज्य नेता को सश्रम कारावास दिया गया।
लार्ड कर्ज़न के अत्याचारी शासन के विरुद्ध भारत भर में आन्दोलन करने वाले लोकमान्य ने बंगाल विभाजन के विरोध में सन् 1905 में स्वदेशी आन्दोलन नेतृत्व किया था। अंग्रेज़ों की फूट डालकर शासन करने की नीति की पोल खुल गई थी। स्वदेशी आन्दोलन ने लंकाशायर और मैनचेस्टर के कारखानों में बने माल को गोदामों में ही सड़ने लिए मजबूर कर दिया था। भारतीय उद्योग इस आन्दोलन की बदौलत फिर से लहलहा उठे थे। पूरा देश स्वराज्य की माँग कर रहा था। अंग्रेज़ सरकार अपने सबसे बड़े शत्रु को फिर से जेल में भेजने का बहाना ढूंढ़ रही थी। सूरत में सन् 1907 में कांग्रेस की फूट का लाभ उठाकर अंग्रेज़ों ने गरम दल के नेताओं के दमन का षडयन्त्र रचा। एक बार फिर लोकमान्य पर हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का आरोप सिद्ध किया गया। इस बार उन्हें छह साल का कठोर कारावास देकर भारत से बाहर माण्डले (बर्मा) भेज दिया गया।
लोकमान्य ने जेल-प्रवास में अपने अमर ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ की रचना की। इस ग्रंथ ने देशवासियों को अन्याय का प्रतिकार करना सिखाया। लोकमान्य जब माण्डले जेल के लिए भारत छोड़ रहे थे तो अपनी पत्नी से उन्होंने अपने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के प्रकाशन को जारी रखने के विषय में चिन्ता व्यक्त की थी। श्रीमती सत्यभामा तिलक ने उनसे कहा था -
‘आप देशसेवा के लिए इतना कठोर दण्ड उठाने जा रहे हैं। इन पत्रों के प्रकाशन की चिन्ता आप मुझ पर छोड़ दीजिए। आप निश्चिन्त होकर माण्डले जाइए।‘
सन् 1914 में लोकमान्य को मुक्त किया गया। घर आ कर उन्होंने देखा कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ पहले की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं। लोकमान्य की समझ में यह नहीं आ रहा था कि लगातार छह साल तक नुक्सान उठाते हुए श्रीमती तिलक इन पत्रों का प्रकाशन कैसे करवाती रहीं। लोकमान्य के भारत लौटने तक उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सत्यभामा तिलक की मृत्यु हो चुकी थी किन्तु उन्होंने अपने जीते जी अपने पति के पत्रों के नियमित प्रकाशन के लिए अपने अनेक आभूषण बेच दिए थे. लोकमान्य तिलक को जब श्रीमती सत्यभामा तिलक के इस महान त्याग के विषय में पता चला तो उन्होंने कहा –
‘जिस देश की माताएं, बहनें, पुत्रियाँ और पत्नियाँ देश-सेवा के लिए ऐसा त्याग करने को तत्पर रहेंगी वह देश बहुत दिनों तक परतंत्र नहीं रह सकता.’
लोकमान्य के जीवन के अंतिम वर्ष होमरूल आन्दोलन को व्यापक बनाने में व्यतीत हुए। उन्होंने श्रीमती एनीबीसेन्ट के साथ मिलकर इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। लोकमान्य ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए विशेष प्रयास किए। सन् 1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौते में उनका विशेष योगदान था। लखनऊ में आयोजित कांग्रेस-मुस्लिम लीग के संयुक्त अधिवेशन में उनकी प्रेरणा से ही होमरूल की माँग रक्खी गई। पूरे भारत से आवाज़ उठी-
‘तलब फि़ज़ूल है, काँटो की फूल के बदले,
न लें बहिश्त भी हम होमरूल के बदले।‘
( जिस तरह फूल के स्थान पर काँटे नहीं लिए जा सकते, उसी तरह होमरूल के बदले में स्वर्ग भी नहीं लिया जा सकता।)
सन् 1917 में सरकार को भी ‘मान्टेग्यू घोषणा’ के अन्तर्गत स्वशासन की भारतीय माँग को सैद्धातिक रूप से स्वीकार कर लिया गया । लोकमान्य की यह महान राजनीतिक सफलता थी।
1917 के चंपारन आन्दोलन से देश के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व अब गांधीजी के कुशल हाथों में आ चुका था। बूढ़ा शेर थक चुका था। वह अब सदा-सदा के लिए सोना चाहता था। असहयोग आन्दोलन के शंखनाद के साथ ही अगस्त सन् 1920 में स्वराज्य के इस मन्त्रदाता ने आंखंग मूंद लीं। बिलखते हुए देशवासियों से जाते हुए वह मानो कह रहा था-
‘स्वराज्य की ज्योति को सदैव जलाए रखना।‘