शनिवार, 31 जुलाई 2021

प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी

प्रेमचन्द जयन्ती पर डॉक्टर श्रीमती रमा जैसवाल का आलेख -
प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी –
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय नारी में धैर्य, सहनशीलता, सेवाभाव, त्याग, कर्तव्यपरायणता, ममता और करुणा का सम्मिश्रण देखकर कहा है -
'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी.'
ममता, कोमलता, सहनशीलता और त्याग की प्रतिमूर्ति भारतीय नारी ज़रूरत पड़ने पर सिंहनी भी बन जाती है और अगर यह सिंहनी कहीं घायल हुई तो उसके प्रतिशोध की ज्वाला में बड़े से बड़ा दमनकारी भी भस्म हो जाता है.
जिस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक असमानता को अपनी नियति मानकर स्वीकार करना पड़ता है वहां अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाली और विद्रोह का परचम लहराने वाली स्त्रियों को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाने का साहस बहुत कम साहित्यकार ही कर सकते हैं.
प्रेमचंद ने उर्दू व हिन्दी में साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिष्कार का बीड़ा उठाया था.
प्रेमचंद नारी समाज के सच्चे हितैषी थे. उत्तर भारतीय नारी समाज के सुख-दुःख को उन्होंने बहुत करीब से देखा और समझा था.
यूं तो प्रेमचंद का साहित्य बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध के उत्तर भारतीय सामाजिक जीवन का समग्र और प्रामाणिक चित्रण करता है परन्तु शोषित समाज के चित्रण में यह अद्वितीय है.
शोषिता भारतीय नारी के जीवन की हर त्रासदी और उसके हर संघर्ष को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जीवन्त किया है.
नवजागरण काल में मराठी में एच. एन. आप्टे, गुजराती में नर्मद व गोवर्धन राम त्रिपाठी, तेलगू में गुरजाड और मलयालम में चन्दू मेनन ने अपने-अपने क्षेत्र की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया था.
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, उर्दू में,मिर्ज़ा हादी रुसवा ने लखनऊ की एक तवायफ़ उमराव जान अदा की जि़न्दगी पर एक मार्मिक उपन्यास लिखा था.
बंगला साहित्य में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय और उनके बाद रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय ने बंग महिलाओं की सामाजिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है.
हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी रचनाओं में उत्तर भारतीय नारी की दुर्दशा को चित्रित किया था पर प्रेमचन्द से पहले हिंदी के किसी और साहित्यकार ने उत्तर भारतीय नारी के जीवन के हर अच्छे-बुरे पहलू को उजागर करने का न तो बीड़ा उठाया और न ही उसके प्रस्तुतीकरण में वह महारत हासिल की जो कि उन्हें हासिल हुई थी.
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में उत्तर भारतीय गाँवों और शहरों की मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय स्त्रियों के जीवन का यथार्थवादी रूप प्रस्तुत किया गया है. उनकी रचनाओं में चित्रित नारियां गुणवान भी हैं और इंसानी कमज़ोरियों की शिकार भी.
अशिक्षा, निर्धनता और सामाजिक दमन के कारण स्त्रियों में जिस प्रकार की रूढि़यां और अंधविश्वास पनपते हैं, उन से प्रेमचंद भलीभाँति परिचित हैं.
उनके नारी पात्र स्वयं लिंगभेद के पोषक हैं, कन्या जन्म उनके लिए एक त्रासदी है, पुत्र जन्म के बाद ही माएं अपना जीवन सफल मानती हैं, वैधव्य उनके लिए अभिशाप है और सधवाओं लिए विधवा मनहूस.
आभूषणों के लिए घर-फूंक तमाशा देखने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता.
प्रेमचंद की रचनाओं में अधिकांश सासें बहुओं को सताने में और बहुएं सासों को खिजाने में व्यस्त रहती हैं.
चुगली, त्रिया-हठ, मिथ्यावादिता, चटोरापन, चंचलता, चपलता और कभी-कभी कामुकता से भी उन्हें परहेज़ नहीं है पर इन कमज़ोरियों के बावजूद प्रेमचन्द के अधिकांश नारी पात्र साहस, धैर्य, सहनशीलता, त्याग और कर्मठता से परिपूर्ण हैं.
अन्याय और दमन को उनके अधिकांश नारी पात्र अपनी नियति समझ कर स्वीकार करते हैं पर यहां चर्चा उनके उन नारी पात्रों की हो रही है जिन्होंने अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की है और ऐसे पात्रों की प्रेमचंद-साहित्य में कोई कमी नहीं है.
प्रेमचन्द को विद्रोहिणी नारी के चित्रण में बहुत आनन्द आता है, शायद इसके लिए उनकी सुधारवादी प्रकृति उत्तरदायी है. उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय नारी अपने ऊपर ढाए गए ज़ुल्मों के खि़लाफ़ ख़ुद जिहाद छेड़े.
सामाजिक असमानता की शिकार भारतीय नारी पग-पग पर शोषित और अपमानित होती है इसीलिए प्रेमचंद की विद्रोहिणी नारी दमनकारी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने और उनकी अवमानना करने में सबसे आगे रहती है.
प्रेमचंद की अनेक कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियां इस प्रथा के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटा पाई हैं. उनकी कहानी - 'कुसुम' की नायिका कुसुम बरसों तक अपने पति द्वारा अपने मायके वालों के शोषण का समर्थन करती है पर अन्त में उसकी आँखे खुल जाती हैं और वह अपने पति की माँगों को कठोरता पूर्वक ठुकरा देती है । अपनी माँ से वह कहती है -
‘यह उसी तरह की डाकाजनी है जैसी बदमाश लोग किया करते हैं. किसी आदमी को पकड़ कर ले गए और उसके घरवालों से उसके मुक्तिधन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली.’
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कुसुम की माँ थोड़े से पैसों की खातिर दामाद को नाराज़ करने की बात को अनुचित कहती है तो वह जवाब देती है -
‘ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा ! जो आदमी इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह नहीं होगा. मैं कहे देती हूं, वहां रुपये गए तो मैं ज़हर खा लूंगी.’
अनमेल विवाह मुख्य रूप से दहेज की प्रथा का ही परिणाम होता है. प्रेमचन्द पुरुषों के बहुविवाह और विधुरों के क्वारी कन्या से विवाह करने के दुराग्रह को इसका कारण मानते हैं.
प्रेमचंद के वो नारी पात्र जिनका कि अनमेल विवाह हुआ है, कभी सुखी नहीं दिखाए जाते.
'निर्मला' उपन्यास की नायिका इसका ज्वलन्त उदाहरण है.
निर्मला की अपने से दुगुनी उम्र के पति के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है. जब उसके अधेड़ पति अपनी जवानी के दम-ख़म और बहादुरी का झूठा राग अलापते हैं तो उसे उनसे घृणा होती है या उन पर उसे तरस आता है.
‘नया विवाह’ कहानी की युवती आशा का विवाह अधेड़ लाला डंगामल से हुआ है. आशा डंगामल के लाए नए-नए कपड़े और आभूषण पहन कर जवान गबरू नौकर जुगल को रिझाती है. जुगल आशा से लाला जी के लिए कहता है कि वह उसके पति नहीं बल्कि उसके बाप लगते हैं तो वह उसे डांटने के बजाय अपने भाग्य का रोना लेकर बैठ जाती है.
कहानी के अंत में आशा अपना आँचल ढरकाते हुए जुगल को लाला जी के जाने बाद अकेले में मिलने के लिए बुलाती है.
‘गोदान’ उपन्यास की धनिया समाज के नियमों से बंधी एक कृषक महिला है. उसकी दृष्टि में दातादीन ब्राह्मण देवता हैं, भले ही उनका लड़का मातादीन सिलिया चमारन को अपनी रखैल बनाए हुए है. पर जब यही देवता उसे सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर अपने पुत्र गोबर की गर्भवती विधवा प्रेमिका झुनिया को घर से निकालने को कहते हैं तो वह बिफ़र कर जवाब देती है -
‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते. ब्याहता न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही. किस मुंह से निकाल देती?’
गरीब और वह भी अछूत औरत अगर सुन्दर हो तो उसका यौन शोषण करना रईस सवर्ण अपना अधिकार समझते हैं.
‘घासवाली’ कहानी में मुलिया चमारन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है. उसके सौन्दर्य पर ठाकुर चैनसिंह लट्टू हो जाता है और उससे अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है तो मुलिया उसे झिड़कते हुए उससे पूछती है -
‘मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं ? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर (मुलिया का पति) चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है !----- मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी या जरा से लालच से तुम्हारी मुठ्ठी में आ जाएगी. कितना सस्ता सौदा है. ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?’
‘गबन’ उपन्यास की नायिका जालपा मध्यवर्गीय परिवार की गहनों की शौकीन, ऐसी युवती है जिसे भौतिकवादी सुखों की खातिर पति का रिश्वत लेना भी गलत नहीं लगता है परन्तु जब उसका पति रमानाथ खुद को जेल जाने से बचाने के लिए और रुपयों व ओहदे के लालच में पुलिसवालों के साथ मिल कर क्रान्तिकारियों के विरुद्ध झूठी गवाही देता है तो वह उसके उपहारों को ठुकराते हुए उसे अपना पति मानने से इंकार कर देती है -
‘ईश्वर करे तुम्हें मुंह में कालिख लगा कर भी कुछ न मिले । --- लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिसवाले कभी नाराज़ नहीं करेंगे ।--- झूठी गवाही, झूठे मुकदमें बनाना और पाप के व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिखा गया. जाओ शौक से जि़न्दगी के सुख लूटो.---- मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है. मैंने समझ लिया कि तुम मर गए. तुम भी समझ लो कि मैं मर गई.’
प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी – ‘जुलूस’ की मिठ्ठन अपने दरोगा पति बीरबल सिंह द्वारा निहत्थे देशभक्त इब्राहीम अली पर कातिलाना हमला करने के लिए उसे धिक्कारती है. बीरबल सिंह जब उसे अपनी तरक्की होने की सम्भावना बताता है तो वह कहती है -
‘शायद तुम्हें जल्द तरक्की भी मिल जाय. मगर बेगुनहों के खून से हाथ रंग कर तरक्की पाई तो क्या पाई ! यह तुम्हारी कारगुज़ारी का इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह की कीमत है.’
मिठ्ठन इब्राहीम अली की शवयात्रा में शामिल होने के बाद अपने पति से अलग रहने का निश्चय भी कर लेती है.
प्रेमचन्द मैक्सिम गोर्की के अमर उपन्यास – ‘द मदर’ की बूढ़ी माँ के चरित्र से बहुत प्रभावित लगते हैं.
‘गबन’ उपन्यास की जग्गो, असहयोग आन्दोलन में अपने दो जवान बेटों की कुर्बानी देकर गर्व का अनुभव करती है, वह रमानाथ की पाप की कमाई से खरीदे गए कंगनों के उपहार को ठुकरा देती है.
प्रेमचंद की कहानी –‘जेल’ की क्षमादेवी जलियांवाला हत्याकांड में अपने पति और पुत्र को खो चुकी हैं.
एक और आन्दोलनकारी मृदुला किसान आन्दोलन में अपनी सास, अपने पति और अपने पुत्र को गंवाकर स्वयं भी आन्दोलन में कूद पड़ती है. वह शहीदों के सम्मान में आयोजित जुलूस का नेतृत्व करती है और जेल जाती है.
प्रेमचन्द के अनेक नारी पात्र साहस और वीरता में पुरुषों से आगे हैं.
ओरछा के राजा चम्पत राय की धर्मपत्नी और छत्रसाल की माँ, रानी सारंधा और वज़ीर हबीब का रूप धारण किए हुए तैमूर की बेग़म हमीदा इसका प्रमाण हैं.
सत्य के मार्ग पर चलते हुए जब ऐसे नारी पात्र अन्याय का सामना करते हैं तो पाठक उनके चरित्र के प्रति श्रद्धानत हो जाता है.
प्रेमचन्द अपनी रचनाओं के माध्यम से दो सन्देश देना चाहते हैं –
एक तो यह कि पुरुष स्त्री को अपने से कमज़ोर और अयोग्य समझ कर उस पर अत्याचार करने का पाप न करे और दूसरा यह कि यदि नारी जाति पर अत्याचार का सिलसिला यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वह विद्रोहिणी बन कर अपने ऊपर जु़ल्म ढाने वाले पुरुष-प्रधान समाज को ही मिटा देगी.
‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन और ‘गबन’ उपन्यास की ज़ोहरा वेश्या हो कर पुरुषों को गुमराह करने में या उनका घर उजाड़ने में संकोच नहीं करतीं क्योंकि समाज को वह वही लौटा रही हैं जो कि उन्हें समाज से मिला है. पर ऐसी ही विद्रोहिणी नारी जब किसी सुधारक या हमदर्द के सम्पर्क में आती है तो वह ममता और सेवा की मूर्ति बनकर समाज के लिए उपयोगी बन जाती है.
सुमन और ज़ोहरा के हृदय परिवर्तन से हमको यही सन्देश मिलता है.
प्रेमचन्द इस शक्ति स्वरूपा विद्रोहिणी नारी की शक्ति को विनाश के स्थान पर सृजन के लिए प्रयुक्त होते हुए देखना चाहते हैं.
‘कर्मभूमि’ उपन्यास में सुखदा व नैना हरिजनों के मन्दिर पवेश के अधिकारों की खातिर जेल जाती हैं.
इसी उपन्यास में मुन्नी का चरित्र एक विद्राहिणी का चरित्र है. दो गोरे सिपाही मुन्नी का बलात्कार करते हैं. मौका पाकर मुन्नी बीच बाज़ार में बलात्कारी की हत्या कर देती है.
अदालत में दोषमुक्त होने के बाद मुन्नी समाजसेवा के कार्य में लग जाती है.
प्रेमचन्द, विद्रोहिणी नारी के साहस और क्रोध को सृजन का मोड़ देना चाहते हैं.
समाज सुधार के प्रति समर्पित एक साहित्यकार की नारी उत्थान के प्रति यह एक ईमानदार कोशिश है.
प्रेमचंद ने विद्रोहिणी नारी के उचित कार्यों की स्तुति तो की ही है, साथ ही उन्होंने उसके सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध व्यवहार का दायित्व भी नारी शोषक पुरुष समाज की लिंगभेदी सामाजिक मान्यताओं पर रख दिया है.
प्रेमचंद का सन्देश है कि जब तक लिंगभेदी अन्याय समाप्त नहीं होगा, नारी विद्रोह करती रहेगी और जब तक उस पर अनाचार होता रहेगा, समाज उन्नति नहीं कर सकेगा.

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

निंदक नियरे राखिए

आमतौर पर बेचारे आलोचकों को निंदकों की श्रेणी में रखा जाता है और कोई भी अपने आँगन में उनके रहने के लिए कुटिया नहीं बनवाता है.
मेरी यह बात सोलह आने खरी है, इसको प्रमाणित करने के लिए चैंपियन आलोचक कबीरदास का उदाहरण पर्याप्त है.
हिन्दू-मुसलमान का आपस में सर फोड़ना, पंडित-मौलवी का पाखण्ड, मंदिर-मस्जिद की निरर्थकता, जप और छापे का ढोंग, तस्बीह-माला फेरने का दिखावा, गंगा-स्नान और तीर्थ-यात्रा, हज के नाम पर, ख़ुद को ठगने की मूर्खता, अज़ान दे कर अपने और दूसरों के कान फोड़ना, दिन में रोज़ा रख कर रात को समूची गाय डकार जाना, दुनिया भर की लड़कियां छोड़ कर अपनी ही खाला की बेटी ब्याहना और वेद-पुराण-क़ुरान की प्रामाणिकता पर सवालिया निशान लगाने वाले इस शख्स को समाज का तो क्या, अपने बेटे कमाल का भी साथ नहीं मिला.
पंडित-मुल्ला उस से नाराज़, सुल्तान उस से खफ़ा, बेटा उसके ख़िलाफ़ और साहित्य के पंडित उसकी अटपटी भाषा की वजह से उसे साहित्यकार तक मानने को तैयार नहीं !
फिर उसके लिए अपने आँगन में कौन कुटी छवाता?
बेचारा फटे छप्पर के नीचे अपने करघे पर झीनी चदरिया बुनते-बुनते परलोक सिधार गया.
इसी कबीरदास की आलोचक-निंदक परंपरा का निर्वाह करने वाला मैं गरीब भी, न तो समाज में किसी का साथ पाता हूँ और न ही अपने घर में !
कबीर की ही तरह मुझे पूजा-स्थलों में भक्ति के नाम पर अपने धन का प्रदर्शन सहन नहीं होता है.
मुझे राजस्थान के अलवर जिले में स्थित जैन तीर्थ तिजारा जी जाने का कई बार सौभाग्य मिला है. वहां जा कर मन को बड़ी शांति मिलती है लेकिन मुख्य मन्दिर में मुझे एक बात बेहद खटकती है -
मन्दिर के मुख्य-कक्ष की अंदरूनी छत पर, यानी की भगवान जी की मूर्ति से भी बीस फ़ीट ऊपर एक किसी बिजली वाले दानकर्ता का नाम अंकित है. इसके साथ यह भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है - बिजली के हर प्रकार के काम के लिए संपर्क करें -- श्री --- मोबाइल नंबर ---- !'
'पारस', 'जिनवाणी' और 'अरिहंत' चैनलों पर मुनि महाराजों के प्रवचन, भगवान के अभिषेक, तीर्थ-दर्शन आदि को स्पांसर करने वाले पुण्यार्जक अधिकतर व्यापारी होते हैं जो कि धर्म की सेवा और उसका प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ न सिर्फ़ अपनी तूूर की दाल का और कच्ची घानी के सरसों के तेल का विज्ञापन करते हैं, बल्कि कभी-कभी तो टोटके, वशीकरण-मन्त्र और बांझपन के शर्तिया इलाज के लिए भी संपर्क करने के लिए अपना नंबर दे देते हैं.
अब समझ में नहीं आता कि पहले भगवान को प्रणाम किया जाए या फिर उन से बीस फ़ीट ऊपर विराजे बिजली वाले दानी महात्मा को !
यह भी समझ में नहीं आता कि इन धार्मिक चैनलों से पहले धर्म-लाभ प्राप्त करूं या फिर इन में विज्ञापित सामानों की उपादेयता का परीक्षण करूं.
मैंने अपने सवाल अपने आत्मीयजन के सामने जब भी रखे तो उन्होंने मुझे न सिर्फ़ डांटा, बल्कि धिक्कारा भी !
मुझे मन्दिरों में फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाए जाने वाले भजनों से बहुत चिढ़ है.
'हरे रामा, हरे कृष्णा --' गाते हुए अगर पंडित जी - 'है अपना दिल तो आवारा' की धुन पर झूमने लगें तो हमारी आँखों के सामने भगवान जी की मोहनी मूरत आएगी या फिर देवानंद की?
हमारे देश में कांकर-पाथर जोड़ कर कहीं न कहीं, किसी न किसी, भव्य पूजा-स्थल का निर्माण होता रहता है.
क्या किसी ने कभी पूछा है कि इस पूजा-स्थल के निर्माण में कितना काला धन लगा है और कितना धरम की कमाई का?
मैं जब भी ऐसा सवाल उठाता हूँ तो फिर मेरी सार्वजनिक भर्त्सना तो होती ही होती है.
अब धर्म से हट कर साहित्य-चर्चा कर ली जाए.
मेरी एक सहयोगी थीं. एक कवियित्री के रूप में उनकी प्रतिष्ठा थी. मेरी ख़ुशकिस्मती थी कि वो अपनी कविताएं मुझे दिखा कर उनके विषय में मेरी राय भी जान लिया करती थीं.
एक बार उन्होंने शुद्ध-प्रांजल भाषा में लिखी हुई अपनी एक कविता दिखाई. उस कविता में शब्द थे -
'किसलय का अंचल डोल रहा'
मैंने इन शब्दों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कुछ और शब्द जोड़ कर पंक्तियां पूरी कर दीं -
'खग कुल, कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु-मुकुल नवल रस गागरी.
बीती विभावरी जाग री ---'
मेरे इस संशोधन से मोहतरमा इतनी नाराज़ हो गईं कि फिर उन्होंने अपनी कविताओं को मुझे कभी नहीं दिखाया.
एक अध्यापक के रूप में अपने विद्यार्थियों को उनकी गल्तियों पर टोकने की और उन्हें सुधारने की, मेरी आदत अवकाश-प्राप्ति के दस साल बाद भी छूटी नहीं है.
फ़ेसबुक पर मैं अक्सर अपने मित्रों की भाषा की अशुद्धियों पर उन्हें टोकता रहता हूँ और उन्हें दुरुस्त करने का दुस्साहस भी करता हूँ लेकिन अब मैं यह टोका-टोकी सिर्फ़ 'मेसेंजर' के सहारे प्रेषित करता हूँ.
इस सावधानी को बरतने से मेरे दोस्त मेरी ऐसी गुस्ताखियों के लिए मुझे कभी-कभी माफ़ भी कर देते हैं.
मेरे प्रथम गुरु, मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल मेरे आलोचक हैं, मेरे सलाहकार हैं और मेरे परम श्रद्धेय निंदक हैं.
मेरी बात सुनते ही या फिर मेरी रचना पढ़ते ही भाई साहब की अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया तुरंत आ जाती है -
'तुमने फ़लां जगह ये ग़लत लिख दिया'
'इस शब्द को इस तरह लिखा जाना चाहिए था'
'ये वाला कथन तुमने उस व्यक्ति का कैसे बता दिया?'
''तुमने फ़ैज़ की इस नज़्म की व्याख्या सही ढंग से नहीं की है'
ऐसी तमाम बातों को मैं सुनता हूँ, उन पर मनन करता हूँ और फिर तुरंत आवश्यक संशोधन भी कर लेता हूँ.
पुनर्जन्म में मेरा कोई विश्वास नहीं है लेकिन अगर मेरा कभी पुनर्जन्म होगा तो मैं चाहूँगा कि उस जन्म में भी निंदक के रूप में मेरे बड़े भाई साहब अवश्य मेरे नियरे रहें.
आजकल फ़ेसबुक पर स्वनामधन्य साहित्यकार खुलेआम प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं में ज़रा सा फेर-बदल कर उन्हें अपनी रचना कह कर प्रस्तुत करते रहते हैं. सबसे दुःख की बात यह है कि उनकी चोरी पर वाह-वाह करने वालों की कभी कोई कमी नहीं रहती है.
ग़लत-सलत उर्दू बोलने-लिखने वाले स्व-घोषित मिर्ज़ा गालिबों और जावेद अख्तरों को, टोकने पर न जाने कितनी बार मेरी जान को ख़तरा हुआ है लेकिन मैं अपनी इस टोकू आदत से बाज़ नहीं आता.
'श' को - 'स' और 'ज़' को - 'ज' सुनते ही मेरे कानों को कुछ-कुछ होने लगता है.
फ़ेसबुक पर 'फ़ुरसतिये' पर एक से एक चुटकुले आते हैं. इन चुटकुलों में सारे के सारे चुटकुले बासे होते हैं, चुराए हुए होते हैं लेकिन चोर के द्वारा इन्हें हमेशा अपना कह कर ही पेश किया जाता है. कोई भी पाठक इनको बासा और पुराना कहने का या फिर चोरी का बताने का साहस नहीं करता.
भारत के प्राचीन गौरव का गुणगान करने वाले हमारे देशभक्त नेतागण पुष्पक विमान के होने के प्रमाण जुटाते हैं, गणेश जी के कटे सर के स्थान पर प्लास्टिक सर्जरी से हाथी का सर लगवा देते हैं, नील आर्मस्ट्रोंग से पहले न जाने कितने ऋषि-मुनियों को चन्द्रमा की सैर करा देते हैं पर ऐसी बातों पर मेरे जैसे किसी धृष्ट व्यक्ति के सवाल उठाए जाने पर वो उसका सर काटने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
आक़ाओं को तो निंदक फूटी आँख नहीं भाते हैं. उनके लिए तो -
'चारण नियरे राखिए' वाली उक्ति ही सही बैठती है.
इन चारणों को कभी मलाई खिलाई जाती है तो कभी राज्यसभा के लिए मनोनीत भी किया जाता है और अंत में इनकी एक्सपायरी डेट बीत जाने पर इन्हें कहीं का राज्यपाल भी बना दिया जाता है.
दिव्य वस्त्र पहनने के मुगालते में नंगे राजा को नंगा बताने की हिम्मत या तो कोई बच्चा कर सकता है या फिर कोई कबीर.
यह तय है कि कोई सयाना तो इस बारे में अपना मुंह खोलने की जुर्रत भी नहीं कर सकता !
मित्रों, ऐसी बातें तो अनंत काल तक चलती रह सकती हैं किन्तु अब मैं अपनी लेखनी को इस अंतिम प्रश्न के बाद विराम देता हूँ -
क्या है कोई माई का लाल जो कि अपने आँगन में मेरे जैसे निंदक के लिए कुटी छवाएगा?

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

फ़ैसला

वकीलों के बीच, मेरे पिताजी अपने अति गंभीर व्यवहार और नो-नॉनसेंस एटीट्यूड के लिए काफ़ी प्रसिद्द थे, बल्कि सच कहूँ तो काफ़ी बदनाम थे.
उनके कोर्ट में अगर कोई वक़ील काला कोट पहन कर न आए या अधिवक्ताओं वाला सफ़ेद बैंड लगा कर न आए तो वो उसे कोर्ट से बाहर का रास्ता दिखा देते थे. कोर्ट में हास-परिहास या मुद्दे से हट कर कोई भी बात उन्हें क़तई गवारा नहीं थी. नौजवान वक़ील साहिबान तो उनसे बहुत डरा करते थे.
कोर्ट में बहस के दौरान वो कभी उनकी क़ानूनी अज्ञानता पर उन्हें टोका करते थे तो कभी उनकी गलत-सलत अंग्रेज़ी पर.
बढ़ती हुई बेरोज़गारी के ज़माने में कचहरियों में काले कोट-धारियों की फ़ौज जमा होने लगी थी पर उनकी संख्या में बेशुमार वृद्धि की तुलना में वहां काम में वृद्धि की तो कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था.
शुरू-शुरू में नए-नए बने वकील साहब चमचमाती साइकिल पर नया कोट और टिनोपाल लगी सफ़ेद पैंट में सर्र-सर्र लहराते हुए किसी फ़िल्म के हीरो लगा करते थे पर कुछ दिनों बाद ही धूल भरी साइकिल पर उड़े हुए रंग के काले कोट, मटमैली हो रही सफ़ेद पैंट में, वो स्लो मोशन में चलते हुए किसी पारिवारिक फ़िल्म में बाबूजी का रोल निभाने वाले नाना पलसीकर या नज़ीर हुसेन जैसा कोई चरित्र अभिनेता लगने लगते थे.
पिताजी खाली बैठे इन वकीलों की बढ़ती तादाद को लेकर बहुत परेशान रहते थे. अक्सर वो इशारों-इशारों में इन नौजवान बेरोजगारों को कोई दूसरा पेशा इख़्तियार करने की सलाह देने लगे थे.
कब इन नौजवानों पर अपना गुस्सा या रौब झाड़ने से ज़्यादा उन्हें उनकी फ़िक्र होने लगी थी, कब इन कठोर, उसूलों के पक्के, मजिस्ट्रेट साहब पर एक रहमदिल और फिक्रमंद बाप हावी हो गया, हमको पता ही नहीं चला पर उन नौजवान वकीलों को पता चल गया.
उन्हें मालूम हो गया कि मजिस्ट्रेट साहब कंपटीशन की तैयारी करने वालों की हर तरह से मदद करने को तैयार रहते हैं और उन्हें ऐसे लोगों को कंपटीशन से सम्बंधित होम वर्क देने में और उसको जांचकर उसमें आवश्यक सुधार करने में बड़ा आनंद आता है.
वकीलों को हमारे घर पर आने की इजाज़त तो नहीं थी पर पिताजी जब मोर्निंग वॉक के लिए जाते थे तब पी. सी. एस. जे. या ए. पी. ओ. (असिस्टेंट प्रोसीक्यूशन ऑफिसर) की परीक्षा की तैयारी कर रहे दो-चार बेरोजगार नौजवान वक़ील साहिबान उनके साथ हो लेते थे.
टहलने के दौरान लगातार गुरु-शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर होते रहते थे.
पिताजी का यह बदला हुआ रूप देख कर हमको बड़ा मज़ा आता था.
कभी पिताजी का कोई शागिर्द किसी परीक्षा में सफल हो जाता था तो वो अपनी डायबटीज़ की परवाह किए बगैर मिठाई ज़रूर खाते थे. पर ऐसे मौक़े बहुत कम आते थे.
अक्सर उनके फ़ाकों और उनकी परेशानियों की दास्तानें ही पिताजी को दुखी करती रहती थीं.
1972 की बात है. उन दिनों पिताजी मैनपुरी में पोस्टेड थे.
पिताजी की मोर्निंग वॉक के उनके एक छात्र और कंपटीशन की तैयारी में लगे एक वक़ील साहब बहुत फटे हाल में थे. टूटे पेडल वाली उनकी खटारा साइकिल में आए दिन पंचर भी होते रहते थे. वकील साहब अपनी साइकिल पर बैठते कम थे, साइकिल के किसी पहिए में पंचर हो जाने पर या उसका पेडल निकल जाने पर, उसे घसीटते ज़्यादा थे.
एक दिन पिताजी के कोर्ट के हाते में उन्हीं नौजवान वकील साहब और किसी बड़े वक़ील के मुंशी में ज़ोर-ज़ोर से बहस हो रही थी.
पिताजी ने उन दोनों को बुला कर उन्हें शोर मचाने के लिए फटकारा फिर उनसे उनकी बहस का कारण पूछा.
लगभग रोते हुए नौजवान वकील साहब ने पिताजी से कहा –
‘साहब, मुंशीजी केस में पेशी की तारीख़ बढ़वाना चाहते हैं. बड़े वकील साहब तो आए नहीं हैं, तारीख़ बढ़ाने की अर्जी में मुंशीजी को मेरे दस्तख़त चाहिए. पर ये मुझे इसके लिए बस -- ‘
मुंशीजी ने वकील साहब की बात पूरी नहीं होने दी और फिर उन्होंने हाथ जोड़ कर पिताजी से कहा –
‘हुज़ूर, ये वकील साहब दिन भर तो बैठे मक्खी मारते रहते हैं. पर मैं ज़रा से दस्तखत करने के इन्हें दस रूपये दे रहा हूँ तो ये मुझ से तीस रूपये मांग रहे हैं.’
आम तौर पर ऐसी बात सुन कर वकील साहब और मुंशीजी दोनों को ही पिताजी तुरंत कोर्ट-निकाला दे देते पर पता नहीं कैसे उसूलों और अनुशासन के पक्के मजिस्ट्रेट साहब पर एक फिक्रमंद बाप हावी हो गया.
यह घटना आज से क़रीब उन्चास साल पहले की थी फिर भी किसी वकील के लिए मात्र 10 रूपये का मेहनताना तब भी बहुत कम था.
पिताजी ने मुंशीजी को लताड़ लगाई फिर उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा –
‘मुंशीजी, हो सकता है कि कल यह लड़का मजिस्ट्रेट या जज बन जाए.
आज भी यह एडवोकेट तो है ही, तुम वक़ालत के पेशे की थोड़ी तो इज्ज़त करो. इसी के सहारे तुम्हारी भी रोज़ी-रोटी चलती है.
चुपचाप इसको तीस रुपए दे दो और तारीख बढ़वाने की अर्जी जमा करवा दो.’
मुंशीजी ने साहब को सलाम ठोकते हुए वक़ील साहब को तारीख बढ़वाने की अर्जी पर दस्तखत करने के तीस रूपये थमा दिए.
अंत भला तो सब भला. अदालत बर्ख्वास्त होने पर पिताजी जब कोर्ट से बाहर निकल रहे थे तो जेब में तीस रूपये सम्हालते हुए लेकिन अपनी खुशी का बेलगाम इज़हार करते हुए वकील साहब ने उनसे कहा –
‘हुज़ूर, आज बहुत दिनों बाद हडिया भर रसमलाई खरीद कर घर ले जाऊँगा.’
साहब ने रसमलाई की खरीद पर रोक लगाते हुए अपना सख्ती भरा फ़ैसला सुना दिया –
‘तुम कोई रसमलाई वगैरा नहीं खरीदोगे.
तुम कोर्ट से सीधे साइकिल की दुकान पर जाओ. इन तीस रुपयों से अपनी साइकिल का टूटा पेडल और पिछले पहिए के टायर-ट्यूब बदलवाओ.’

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

स्वराज्य का मंत्रदाता

स्वराज्य का मन्त्रदाता
शिवाजी के बचपन की लीलास्थली और पेशवा बाजीराव प्रथम की कर्मस्थली पूना में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना का सपना संजोया जा रहा था.
शिवाजी के स्वप्न को अखिल भारतीय स्तर पर साकार करने का बीड़ा उठाने वाला पेशवाओं का वंशज, स्वराज्य की हुंकार भरने वाला देशभक्त था- हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का पहला जन-नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक.
इस बालक को पेशवा बालाजी विश्वनाथ की बुद्धिमत्ता और पेशवा बाजीराव प्रथम का साहस विरासत में प्राप्त हुए थे.
साधारण आर्थिक स्थिति के परिवार में जन्मे इस बालक में बचपन से ही देश के उत्थान की उत्कट कामना थी.
जिस आयु में बच्चों को परियों की कहानियां सुनना और लुका-छिपी के खेल अच्छे लगते हैं और तरह-तरह की शरारतों व धमा-चौकड़ी करने में ही उनका दिन बीतता है, उस आयु में बाल गंगाधर तिलक देश को आज़ाद कराने की चिन्ता में लीन रहता था.
भारत को ग़ुलामी की बेडि़यों में जकड़े देख कर उसको चैन से नींद नहीं आती थी.
बालक गंगाधर कहता था -
‘मैं बड़ा होकर शिवाजी के सपने को साकार करूंगा.
स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.
अंग्रेज़ों ने हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी, हमारी आपसी फूट का लाभ उठा कर हमको गुलाम बना लिया है.
हम भारतीय एक हो कर उनकी इस चाल को नाकाम कर देंगे और भारत में स्वराज्य स्थापित कर देंगे.‘
अपने विद्यार्थी जीवन के साथी दस्तूर, आगरकर और चन्द्रावरकर के साथ बाल गंगाधर तिलक ने देश-सेवा और शिक्षा प्रसार का स्वप्न देखा था.
युवक तिलक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अतीत का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारतीय जागृति के लिए पश्चिम के मार्ग-दर्शन पर आश्रित होना या योरोपीय पुनर्जागरण का अंधानुकरण करना बिलकुल भी आवश्यक नहीं है. उनका विचार था -
‘भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्पराओं का निर्वाह करने वाले और विवेक व नीति की कसौटी पर खरे उतरे मूल्यों की पुनर्स्थापना से ही भारत का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है.‘
युवक तिलक ने ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया था कि आर्य सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता थी पर सदियों की कूपमण्डकता, हठवादिता, आपसी कलह, आलस्य, स्वार्थपरता और कायरता ने भारतीय अवनति के अनगिनत द्वार खोल दिए थे.
युवक तिलक को तब बहुत कष्ट होता था जब पाश्चात्य सभ्यता की श्रेष्ठता का दावा करने वाले अंग्रेज़ भारतीयों को सभ्य बनाने का बीड़ा उठाने की बात करते थे.
तिलक जानते थे कि सशस्त्र क्रांति के माध्यम से अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ना असंम्भव था इसलिए यह आवश्यक था कि अंग्रेज़ी शासन में रहते हुए ही भारतीय अपने सर्वतोमुखी उत्थान का प्रयास करें और अंग्रेज़ों को यह दिखा दें कि उनकी मदद के बिना ही भारतीय अपना कल्याण कर सकते हैं.
उन्होंने अंग्रेज़ों को सुधार के बहाने भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक मामलों में टांग अड़ाने से बड़ी सख्ती से मना किया.
उन्होंने कहा था -
‘किसी विदेशी सरकार को हमारे घरेलू मामलों में, हमारी सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं में सुधार के नाम पर अपनी टांग अड़ाने की आवश्यकता नहीं है.
हममें अपनी सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों को दूर करने की पूरी क्षमता है.‘
तिलक का स्वाभिमान और उनका देशप्रेम उन्हें प्रेरित कर रहा था कि वे भारतीयों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जागृति लाने के लिए पत्रकारिता का आश्रय लें.
अपने साथी श्री आगरकर और श्री चिपलूणकर के साथ उन्होंने सन् 1881 में दो पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया. ये पत्र थे मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेज़ी में ‘दि मराठा’.
इन पत्रों ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में निर्भीक और प्रतिबद्ध पत्रकारिता के नए मापदण्ड स्थापित किए.
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से ही उससे जुड़ गए परन्तु उन्हें राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के लिए अंग्रेज़ों से याचना करने की नरम-पंथी कांग्रेसी नीति स्वीकार्य नहीं थी. उन्होंने अपने अधिकारों को लड़ कर प्राप्त करने का सुझाव दिया.
‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणेश उत्सव’ के माध्यम से उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया.
लोकमान्य ने लार्ड कर्ज़न के दमनकारी शासन (1899-1905) का खुल कर विरोध किया.
लोकमान्य भारत की आर्थिक अवनति को देखकर बहुत दुखी होते थे.
उन्होंने भारतीयों की इसी आलसी प्रवृत्ति के लिए उन्हें फटकारते हुए कहा था -
‘हमारे आलस की अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम विलायत को गोबर का निर्यात करेंगे और वहां से बने हुए उपलों का आयात कर के अपने घरों के चूल्हे सुलगाएंगे.‘
लोकमान्य की हुंकार थी -
स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम उसे लेकर रहेंगे‘
यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि लोकमान्य की दृष्टि में - स्वराज्य-प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल राजनीतिक स्वराज्य ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वराज्य आर्थिक स्वराज्य और शैक्षिक स्वराज्य भी आवश्यक था.
ब्रिटिश सरकार महाराष्ट्र के इस शेर को पिंजड़े में कैद करने का बहाना ढूंढ़ रही थी जो कि उसे सन् 1897 में मिल गया.
महाराष्ट्र में व्यापक रूप से फैली प्लेग के निवारण के लिए प्लेग कमिश्नर रैण्ड प्लेग से ग्रस्त घरों और गाँवों को जला रहा था. ‘केसरी’ ने रैण्ड के अत्याचारों की कटु आलोचना की थी.
रैण्ड के अत्याचारों से क्षुब्ध चापेकर बंधुओं ने उसकी हत्या कर दी.
लोकमान्य को हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का दोषी माना गया और देश के इस पूज्य नेता को सश्रम कारावास दिया गया.
लार्ड कर्ज़न के अत्याचारी शासन के विरुद्ध भारत भर में आन्दोलन करने वाले लोकमान्य ने बंगाल विभाजन के विरोध में सन् 1905 में स्वदेशी आन्दोलन नेतृत्व किया था.
अब देश स्वराज्य की माँग कर रहा था.
अंग्रेज़ सरकार अपने सबसे बड़े शत्रु को फिर से जेल में भेजने का बहाना ढूंढ़ रही थी.
सूरत में सन् 1907 में कांग्रेस की फूट का लाभ उठा कर अंग्रेज़ों ने गरम दल के नेताओं के दमन का षडयन्त्र रचा.
एक बार फिर लोकमान्य पर हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का आरोप सिद्ध किया गया.
इस बार उन्हें छह साल का कठोर कारावास देकर भारत से बाहर माण्डले (बर्मा) भेज दिया गया.
जेल में रह कर लोकमान्य ने ‘गीता रहस्य’ की रचना कर अन्याय का प्रतिकार करने का सन्देश दिया.
लोकमान्य जब माण्डले जेल के लिए भारत छोड़ रहे थे तो अपनी पत्नी सुश्री सत्यभामा से उन्होंने अपने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के प्रकाशन को जारी रखने के विषय में चिन्ता व्यक्त की थी। श्रीमती सत्यभामा ने उनसे कहा था -
‘आप देशसेवा के लिए इतना कठोर दण्ड उठाने जा रहे हैं.
इन पत्रों के प्रकाशन की चिन्ता आप मुझ पर छोड़ दीजिए.
आप निश्चिन्त होकर माण्डले जाइए.‘
सन् 1914 में लोकमान्य को जब मुक्त किया गया. तब तक सत्यभामा जी की मृत्यु हो चुकी थी.
घर आ कर लोकमान्य ने देखा कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ पहले की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं.
लोकमान्य को पता चला कि श्रीमती सत्यभामा ने अपने ज़ेवर बेच-बेच कर उनके प्रिय पत्रों का नियमित प्रकाशन करवाया था.
लोकमान्य ने श्रीमती सत्यभामा के विषय में कहा था –
‘जिस देश की माताएं, बहनें, पुत्रियाँ और पत्नियाँ देश-सेवा के लिए ऐसा त्याग करने को तत्पर रहेंगी वह देश बहुत दिनों तक परतंत्र नहीं रह सकता.’
लोकमान्य के जीवन के अंतिम वर्ष होमरूल आन्दोलन को व्यापक बनाने में व्यतीत हुए.
उन्होंने श्रीमती एनीबीसेन्ट के साथ मिलकर इस आन्दोलन का नेतृत्व किया.
लोकमान्य के परम अनुयायी और उर्दू के मशहूर शायर पंडित ब्रज नारायण चकबस्त ने होम-रूल की मांग पर कहा है -
तलब फि़ज़ूल है, काँटो की फूल के बदले,
न लें बहिश्त भी हम होमरूल के बदले.‘
( जिस तरह फूल के स्थान पर काँटे नहीं लिए जा सकते, उसी तरह होमरूल के बदले में स्वर्ग भी नहीं लिया जा सकता.)
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लोकमान्य ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए विशेष प्रयास किए.
1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौते में उनका विशेष योगदान था.
सन् 1917 में सरकार को भी ‘मान्टेग्यू घोषणा’ के अन्तर्गत स्वशासन की भारतीय माँग को सैद्धातिक रूप से स्वीकार कर लिया गया.
लोकमान्य की यह महान राजनीतिक सफलता थी.
1917 के चंपारन आन्दोलन से देश के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व अब गांधीजी के कुशल हाथों में आ चुका था.
बूढ़ा शेर थक चुका था. वह अब सदा-सदा के लिए सोना चाहता था.
असहयोग आन्दोलन के शंखनाद के साथ ही 1 अगस्त, सन् 1920 में स्वराज्य के इस मन्त्रदाता ने आंखें मूंद लीं.
बिलखते हुए देशवासियों से जाते हुए वह मानो कह रहा था-
‘स्वराज्य की ज्योति को सदैव जलाए रखना.‘

रविवार, 18 जुलाई 2021

हैप्पी एंडिंग

बहुत पहले समर सेट मॉम का अमर उपन्यास - दि रेज़र्स एज‘ पढ़ा था. कठोपनिषद के दर्शन से प्रभावित इस उपन्यास में ‘मॉम’ सुख की परंपरागत परिभाषा को नकारते हुए उसकी परिस्थिजन्य व्याख्या करते हैं.
आम तौर पर लोग जिस घटना को दुखद मानते हैं वह किसी और की दृष्टि में सुखद हो सकती है.
अल्मोड़ा में 1988 में हम केंटोनमेंट के नीचे दुगाल खोला में रहने के लिए आ गए थे.
दुगाल खोला में हर तबक़े के लोग थे, कुछ समृद्ध, कुछ हमारे जैसे ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले और कुछ गरीब भी. हमारे पडौस में एक पंडित परिवार रहता था.
पंडित जंगलात के दफ़्तर में चपरासी था. पंडित की अच्छी-खासी ऊपरी आमदनी भी थी पर उसकी तनख्वाह और ऊपरी आमदनी का ज़्यादातर हिस्सा उसकी नशाखोरी की भेंट चढ़ जाता था .
उसकी पत्नी यानी पंडिताइन घर सम्हालती थी और स्वेटर बुनकर चार पैसे भी कमा लेती थी..
पंडित का 20 साल का लड़का हाईस्कूल पास था पर फिर पिता श्री ने उसकी पढ़ाई बंद करवा कर उसे एक ट्रक ड्राइवर का क्लीनर बनवा दिया था.
पंडित परिवार में दो बेटियां भी थी, बड़ी वाली कोई पंद्रह सोलह साल की और छोटी वाली छह-सात साल की, दोनों इतनी खूबसूरत कि विश्वास ही नहीं होता था कि वो मरगिल्ले से पंडित और सूरत-कुबूल किन्तु उदास, बुझी-बुझी पंडिताइन की बेटियां हैं.
पंडित की बड़ी बेटी भी नवां पास कराकर घर बैठा दी गयी थी. सिर्फ उसकी छोटी गुड़िया मुहल्ले की सरकारी पाठशाला में पढ़ने जाती थी.
पंडित की बेटियां थोड़ी बड़ी थीं पर उन्होंने अपनी उम्र से कम वाली हमारी बेटियों से जल्दी ही दोस्ती कर ली थी. इस दोस्ती की खास वजह थी, उनका हमारे घर आकर टीवी देखना.
पंडित सुबह को जब अपने दफ़्तर जाता था तो पूरे होशो-हवास में जाता था पर वो जब भी शाम को दफ़्तर से लौटता था तो लड़खड़ाते क़दमों से और उसके मुंह से शराब की गंध हमारे घर तक भी पहुँच जाती थी.
घर लौटकर पंडित रोज़ हंगामा करता था. कभी वो पंडिताइन को कोसता हुआ उसकी पिटाई करता था तो कभी वो अपने बेक़सूर बच्चों के दो-चार हाथ जमा दिया करता था.
रोते हुई पंडिताइन उसे जैसे-तैसे खाना खिलाती थी फिर वो सुबह तक मुर्दे की तरह अपनी खाट पर पड़ जाता था.
मेरा मन करता था कि उस कमबख्त पंडित के रोज़ाना दो-चार जूते-लात जमा दिया करूं पर ऐसा करने का मुझे कभी सु-अवसर मिला नहीं. हाँ, इतना ज़रूर था कि मैंने न उस से कभी बात करना मुनासिब समझा और न ही कभी उसके नमस्कार का जवाब देना.
पंडिताइन अच्छे स्वेटर बुनती थी पर उस से उसे ज़्यादा आमदनी नहीं होती थी और उसका लड़का ट्रक ड्राइवर का क्लीनर बन कर जो सौ-दो सौ रूपये महीने कमा लेता था, वो भी घर-खर्च के लिए पूरे नहीं पड़ते थे.
अपनी नशाखोरी में पंडित जितने पैसे बहा देता था, उसका अगर वो आधा भी घर-गृहस्थी पर खर्च कर देता तो उसके पूरे परिवार को एक-एक पैसे का मुहताज होकर दूसरों के सामने ज़लील नहीं होना पड़ता.
पंडिताइन बिना तकल्लुफ मेरी पत्नी के पुराने कपड़े मांगकर ले जाती थी.
मुहल्ले के स्थानीय लोगों से उसे कुछ भी मांगने में शर्म आती थी.
हमारी बेटियां तो पंडित की छोटी बेटी से भी काफ़ी छोटी थीं पर उनके पुराने कपड़ों, जूतों वगैरा पर भी पंडित की गुड़िया का ही हक होता था.
एक बार हमारे यहाँ काम करने वाली शांति की इजा तीन महीने के लिए नॉएडा चली गईं.
पंडिताइन को जब यह खबर मिली तो वो रमा से मिलने चली आई. आने के थोड़ी देर बाद उसने अपना संकोच ताक पर रख कर रमा से कहा –
‘गीतू की मम्मी ! शांति की इजा तो बहुत दिन के लिए बाहर चली गयी है, उसकी जगह तुम मुझसे काम करा लो. जितने पैसे तुम उसको देतीं थीं, उतने मुझे दे देना.’
रमा ने पंडिताइन से पूछा –
‘पंडिताइन, शांति की इजा तो हमारे यहाँ झाड़ू-बर्तन का काम करती हैं. तुम क्या हमारे यहाँ ऐसा काम कर लोगी?’
पंडिताइन ने अपनी सिसकी दबाते हुए जवाब दिया –
‘गीतू की मम्मी, अपने बच्चों को भूखा मरते हुए देखने से तो झाड़ू-बर्तन वाला काम करना अच्छा है. बस, तुम से कोई पूछे तो ये कह देना कि पंडितानी हमारे यहाँ खाना बनाने का काम करती है.’
नशाखोरी के चक्कर में पंडित पर उधार का पहाड़ खड़ा हो गया था और इसकी वजह से उसकी नशाखोरी में भी विघ्न पड़ने लगा था. पर पंडित के ये दुर्दिन जल्द ही ख़त्म हो गए. उस पर अपनी ऐयाशी के लिए सारे अल्मोड़ा में बदनाम एक ठेकेदार मेहरबान हो गया था.
ठेकेदार अब रोज़ शाम को शराब और नमकीन की पुड़िया लेकर पंडित के घर पहुँचने लगा था.
रोज़ शाम को इन दारू बाज़ों की महफ़िल सजती थी. लेकिन पंडित पर उस ठेकेदार की मेहरबानी की असली वजह पंडित की बड़ी बेटी थी.
पंडित से उम्र में करीब पांच साल बड़ा वह ठेकेदार, उसका सारा क़र्ज़ चुकाने को तैयार था और उसे ता-उम्र शराब पिलाने को भी तैयार था, बस उसे अपनी बड़ी बेटी का हाथ ठेकेदार के हाथ में सौंपना था.
सबसे दुःख की बात यह थी कि पंडित को इस प्रस्ताव से कोई ऐतराज़ नहीं था. लेकिन इस बेमेल और बेहूदे प्रस्ताव का पंडिताइन ने अनोखे ढंग से स्वागत किया. उसने ठेकेदार की खोपड़ी पर अपनी पतीली फोड़ डाली और उसे धक्के मारकर अपने घर से निकाल दिया.
ठेकेदार का अपने घर से ऐसा निष्कासन पंडित को बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने घर में सबके साथ मार-पीट की और अपनी नज़रों में सबसे बड़ी गुनहगार पंडिताइन पर तो वह डंडा लेकर पिल पड़ा पर इस बार उसका अपना बेटा अपनी माँ को बचाने के लिए चट्टान सा खड़ा हो गया. बेटे के एक धक्के से पंडित मुंह के बल औंधा होकर गिर पड़ा.
इस हादसे के बाद पंडित अपने ही घर में भीगी बिल्ली बन गया. अपनी पत्नी का चंडी का रूप और बेटे का संकट-मोचक का अवतार देखकर उसके होश ठिकाने आ गए थे.
पंडित अब पूरे परिवार के लिए बोझ बनता जा रहा था. रोज़ाना उधार के लिए तकाज़ा करने वाले अब उसके घर भी पहुँचने लगे थे और वो कुछ न कुछ पंडिताइन या उसके लड़के से वसूल कर ही उसका घर छोड़ते थे.
इधर ला-इलाज बीमारी ने पंडित का दामन थाम लिया था. घर में खाट तोड़ते हुए पंडित के ऊपर सबसे बड़ा ज़ुल्म यह ढाया जा रहा था कि उसे उसकी आनंददायिनी शराब से ज़बर्दस्ती दूर रक्खा जा रहा था.
हमारे लिए सबसे अच्छी बात यह हुई कि अब पड़ौस से आने वाला गाली-गलौज और मारपीट का शोर बिलकुल बंद हो गया था.
खैर लम्बे, महंगे इलाज और परिवार-जन की अथक सेवा के बाद पंडित कुछ ठीक हुआ और फिर अपने दफ़्तर जाने लायक भी हो गया.
चलो. अंत भला तो सब भला. देर आयद दुरुस्त आयद. पंडित को अक्ल आ गयी इस से अच्छा और क्या हो सकता था.
लेकिन पंडित के फिर से दफ़्तर जाने के एक हफ्ते बाद ही रमा ने बड़ी सुबह मुझे झकझोरते हुए जगाया और फिर वो घबराए हुए स्वर में बोली –
‘सुनिए जी, वो पड़ौस वाला पंडित रात अस्पताल में मर गया. अभी-अभी उसकी डेड बॉडी घर लाई गयी है.’
मुझे सहसा रमा की बात पर विश्वास नहीं हुआ. मैं भागकर पंडित के घर पहुंचा. वहां कीचड़ से सना पंडित का शव भू-शयन कर रहा था.
मातम पुर्सी करने वालों का हुजूम उमड़ता जा रहा था. लोग दिखावे के आंसू भी बहा रहे थे पर मैं देख रहा था कि पंडिताइन, उसके लड़के और उसकी बेटियों की आँखों में एक भी आंसू नहीं था.
पंडित का मदिरा प्रेम उसे फिर से कच्ची शराब की भट्टी पर ले गया था. भट्टी पर चार पेग लगाते ही वो वहीं लुढ़क गया था. बेहोशी की हालत में लोगबाग उठाकर उसे अस्पताल ले गए जहाँ दो घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया.
खैर अब अंतिम यात्रा के लिए शव को नहला-धुला कर उसको नए कपड़े पहनाए जा रहे थे. बड़ा ग़मगीन माहौल था. पर मुझ दुष्ट को जिसने कि हमेशा ही मरहूम पंडित को गन्दा-संदा देखा था, आज उसे साफ़-सुथरा देखकर मन ही मन एक क़व्वाली की लाइन याद आ रही थी –
‘आज ही हमने बदले हैं कपड़े, आज ही हम नहाए हुए हैं.’
ज़िन्दगी फिर से अपने ढर्रे पर चल निकली थी. पंडिताइन घर की मुखिया का रोल अब बखूबी निभा रही थी.
पंडित की मृत्यु के करीब तीन महीने बाद एक इतवार को पंडिताइन, उसका लड़का और उसकी बड़ी लड़की हमारे घर आए.
बड़ी बिटिया को प्राइवेट कैंडिडेट के रूप में हाईस्कूल का फॉर्म भरने में मेरी मदद चाहिए थी.
मैं बिटिया की पढाई की फिर से शुरुआत का समाचार सुनकर बहुत खुश हुआ. मैंने बिटिया का फॉर्म भरवाते हुए उस से कहा –
‘बेटा ! तुझे हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत और सामाजिक विज्ञान में कुछ भी मदद चाहिए हो तो हम लोगों के पास आ जाना.’
इसके बाद मेरे और रमा के बीच इशारों में कुछ बात हुई. फिर रमा कुछ रूपये लेकर आई और उन्हें पंडिताइन को देते हुए उस से बोली –
‘ये रूपये हमारी तरफ से बिटिया की फ़ीस के लिए हैं.’
पंडिताइन से उसके बेटे ने रूपये ले लिए और फिर उन्हें वह रमा को वापस करते हुए उस से बोला –
आंटी, रूपये नहीं, हमारे लिए आप लोगों का आशीर्वाद ही काफ़ी है. मुझे जंगलात के दफ़्तर में बाबू की जगह चपरासी की पक्की नौकरी मिल गयी है.’
मैंने सुखद आश्चर्य के साथ उस से पूछा –
'तेरी नौकरी लग गयी? अभी तो तेरी मूंछें भी नहीं आई हैं.’
लड़के ने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘अंकल मैं तो अब 22 साल का हो गया हूँ.’
मैं मन ही मन पंडित को धन्यवाद दे रहा था. ज़िन्दगी में तो उसने कभी कोई अच्छा काम नहीं किया पर मर कर अपने बेटे को वह अपनी जगह पक्की नौकरी ज़रूर दिला गया, पंडिताइन के लिए फॅमिली पेंशन, ग्रुप इंश्योरेंस और फण्ड के कुछ पैसे भी छोड़ गया.
.
मुझे समर सेट मॉम का उपन्यास - 'दि रेज़र्स एज’ फिर से याद आ गया.
समस्त पंडित परिवार के लिए घर के मुखिया पंडित की मौत हैप्पी एंडिंग ही तो थी –
पंडित खुद नारकीय-कीट की ज़िन्दगी बसर कर रहा था. उसके लिए उसकी मौत से सुखद घटना और क्या हो सकती थी?
पंडिताइन को मारने-पीटने वाला और उसे गाली देने वाला, उसे पैसे-पैसे के लिए मोहताज बनाने वाला अब मौजूद नहीं था. पंडिताइन का वैधव्य उसके लिए नयी खुशियाँ, नई उम्मीदें लेकर आया था.
पंडित के लड़के को तो अपने बाप की जगह कम्पैशनेट ग्राउंड पर जंगलात के दफ़्तर में पक्की नौकरी मिल ही गयी थी.
पंडित की मौत से पंडित की बड़ी लड़की को उस अधेड़ ठेकेदार के हाथों बिकने का अब कोई खतरा नहीं था और सबसे अच्छी बात यह थी कि उसकी रुकी हुई पढ़ाई भी फिर से चालू हो गयी थी.
और पंडित की गुड़िया रानी को पहनने को नई फ्रॉक मिल गयी थी. उसकी इजा अब रोज़ सुबह उसे गिलास भर दूध पिला रही थी.
आमतौर पर कथा के अंत में पंडितजी कहते हैं –
‘जैसे उनके दिन फिरे, भगवान करे सबके दिन फिरें.’
मैं पंडित परिवार की इस हैप्पी एंडिंग के लिए भगवान को आज भी धन्यवाद देता हूँ और सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ -
‘जैसे दुखी पंडित परिवार के दिन फिरे, भगवान करे उसके जैसे सभी दुखी परिवारों के दिन फिरें !’