बुधवार, 31 अगस्त 2016

हंगामा है क्यूँ बरपा

हंगामा है क्यूँ बरपा -
आदरणीय शम्मी कपूर ने फ़िल्म राजकुमार' में साधनाजी से कहा था -
'
इस रंग बदलती दुनिया में इन्सान की नीयत ठीक नहीं,
निकला न करो तुम सजधज कर, ईमान की नीयत ठीक नहीं.'
और श्री अजय देवगन ने फ़िल्म 'मेजर साहब' में सोनाली बेंद्रे जी को सावधान करते हुए कहा था-
'
अकेली न बाज़ार जाया करो,
नज़र लग जाएगी.' 
तब कोई हंगामा नहीं हुआ था, किसी को उनकी टिप्पणी पर आपत्ति नहीं हुई थी पर आज हमारे सुसंस्कृत, शालीन और संस्कारी केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्माजी विदेशी पर्यटक महिलाओं को कुछ ऐसी ही सलाह दे रहे हैं तो लोग हंगामा खड़ा कर रहे हैं.
महेश शर्माजी भी तो अजय देवगनजी की ही बात को दोहरा रहे हैं. कहा भी गया है--
'
सावधानी हटी और दुर्घटना घटी'
और यहाँ लोग इस वक्तव्य के कारण मंत्रीजी को ही हटाने पर तुले हुए हैं.
महेश शर्माजी विदेशी बालाओं को अगर सलाह देते हैं कि वो भारत में स्कर्ट पहनकर न घूमें तो इसमें क्या बुराई है? अगर वो ऊपर-नीचे पूरे कपड़े पहनेगीं तो वो डेंगू और चिकुनगुनिया जैसे रोगों से भी तो बची रहेंगी. महेश शर्माजी खुद डॉक्टर हैं, उन्होंने इन रोगों से बचाव रखने के लिए ही विदेशी मेहमानों को यह सलाह दी होगी पर नासमझ लोग इसका फ़साना बनाने पर तुले पड़े हैं.
अब देखिए राष्ट्रभक्तों की हाफ़ पैंट को भी तो फ़ुलपैंट में बदला गया है.
शर्माजी ने विदेशी सुंदरियों को अगर यह सलाह दी है कि -
'
वो भारतीय पुरुषों से हाथ न मिलाएं क्यूंकि हमारे यहाँ इसका कुछ और अर्थ निकाला जाता है.'
अब इस बुज़ुर्गाना सलाह पर तो कोई सरफिरा ही आपत्ति कर सकता है. हमारे यहाँ देवियों के चरण छुए जाते हैं. मायावतीजी के सब चरण छूते हैं, कोई उनसे हाथ नहीं मिला सकता. 
और फिर हाथ मिलाने का मतलब होता है कि जिस से आपने हाथ मिलाया है, आप उसकी पार्टी में शामिल हो गए. अगर हमारे मंत्रीजी विदेशी पर्यटकों को भारतीय राजनीति के पचड़े में पड़ने से रोकना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है?

हमारी (अ)भूतपूर्व मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानीजी पर शिक्षा का कबाड़ा करने का मिथ्या आरोप लगाया जाता है और हमारे महेश शर्माजी पर भारतीय संस्कृति की मट्टी पलीत करने का. किन्तु ऐसे आरोप लगाने वाले शिक्षा और संस्कृति के मर्म को समझते ही नहीं. 
मैं महेश शर्माजी के विचारों का पूर्ण समर्थन करता हूँ. उनके वक्तव्य के फलस्वरूप भले ही विदेशी बालाएं भारत में आना बंद कर दें पर यह तो सोचिए इस से कितना लाभ होगा? 
हमारी अपनी बहू-बेटियों की इज्ज़त बढ़ जाएगी, हमारे किशोर, हमारे युवा, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे सकेंगे. 
वैसे चलते-चलते मैं यह भी बता दूँ कि मैं ग्रेटर नॉएडा में रहता हूँ. महेश शर्माजी हमारे क्षेत्र से ही सांसद हैं और हमारे सांसद के खिलाफ किसी ने कुछ भी कहा तो ---'

रविवार, 28 अगस्त 2016

फ़िराक़ गोरखपुरी से क्षमा-याचना के साथ

फिराक़ गोरखपुरी से क्षमा-याचना के साथ –

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
संशोधित शेर -
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
मुसाहिब, अपने आक़ा की महक, पहचान लेते हैं   

ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
संशोधित शेर -
ग़रज़ कि काट दिए, ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तलुए चाट के गुजरें, कि दुम हिलाने में.

ऐ दोस्त, हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद,
महसूस की है तेरी ज़रुरत, कभी, कभी. 
संशोधित शेर –
ऐ दोस्त, हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद,
इक नाज़नीं से पेच लड़ाए, अभी, अभी. 

याद करते हैं किसी को, मगर इतना भी नहीं,
भूल जाते है किसी को, मगर ऐसा भी नहीं.
नेताजी उवाच –
अपने वादे से मुकरने का सिला दो, मगर ऐसा भी नहीं,
जूते-चप्पल से नवाज़ो, मुझे, गोली से नहीं.

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

आला अफ़सर

आला अफ़सर –
आज से लगभग 50 साल पहले मैं बाराबंकी में पढ़ता था. यह कथा उन्हीं दिनों की है और इस कथा के महानायक मेरे एक परम मित्र के स्वर्गीय ताउजी हैं. तब तक ताउजी अपने जीवन के तीस-पैंतीस बेशकीमती साल भारतीय रेल की सेवा में अर्पित कर चुके थे. ताउजी ने सहायक स्टेशन मास्टर से नौकरी शुरू की थी और इतने लम्बे अर्से की सेवा में उन्हें सहायक स्टेशन मास्टर से पदोन्नत कर स्टेशन मास्टर बना दिया गया था वो भी जगतपुर (बाराबंकी और लखनऊ के बीच स्थित) जैसे स्टेशन का, जहाँ पर पैसेंजर गाड़ियों और दो-चार मालगाड़ियों के अलावा अगर कुछ ठहरता था तो वो सिर्फ़ वक़्त था. लेकिन हमारे महानायक अपने ओहदे, अपने रुतबे, अपने दबदबे से बेहद संतुष्ट थे, बस उन्हें इस बात का मलाल रहता था कि उनकी सल्तनत में सवारी गाड़ियाँ और चुनिन्दा मालगाड़ियाँ ही क्यूँ रूकती हैं.
मैं आजीवन शहर में रहने वाला ग्राम्य-जीवन के बारे में सिर्फ़ उतना जानता था जितना कि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों –उपन्यासों में और राम नरेश त्रिपाठी ने अपनी कविता –
‘अहा ग्राम्य-जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहाँ है,
ऐसी सुविधा और कहाँ है?’
में लिखा था.
भला हो जगतपुर-वासी मेरे मित्र संदीप (यहाँ मैंने अपने मित्र का और ताउजी की तैनाती वाले स्टेशन का नाम बदल दिया है) का जिसने मुझे ग्राम्य-जीवन से परिचित करा दिया. अक्सर इतवार को या किसी और छुट्टी पर मैं अपनी साइकिल पर सवार होकर अपने दोस्त के घर पहुँच जाता था. जगतपुर में गर्मियों के दिनों में आम की और बरसात व जाड़ों में अमरुद की बहुतायत रहती थी और जाड़े के ही दिनों में खेतों से हरी मटर चुराकर खाने की सुविधा भी थी.
स्टेशन मास्टर ताउजी के पास सुनाने के लिए किस्से-कहानियों का भंडार था लेकिन इन अधिकतर कहानियों के नायक वो खुद ही हुआ करते थे. पुराने ज़माने के किस्सों में मेरी दिलचस्पी देखकर ताउजी मुझे अपने अनुभव सुनाने के लिए बहुत बेताब रहते थे. उनके अपने बच्चे तो ‘एक बार क्या हुआ’ या ‘एक बार की बात है’ सुनते ही किसी न किसी काम के बहाने कथा-स्थल से फूट लेते थे. मेरा दोस्त अपने ताउजी का काफ़ी लिहाज़ करता था इसलिए वो यदा-कदा उनके किस्सों का श्रोता बन जाता था पर मुझ जैसा किस्सों और लंतरानियों का शौक़ीन उन्हें शायद अर्से से नहीं मिला था.
ताउजी का मानना था कि स्टेशन मास्टर के पास बादशाह जैसी पॉवर होती है. वो कहते थे –
‘रेलवेज़ में स्टेशन मास्टर से बड़ा कोई अफसर होता है तो बस चेयरमैन. बाक़ी बीच के अफ़सर तो बस, समझो कि खलासी होते हैं. स्टेशन मास्टर चाहे तो लाल झंडी दिखा कर लाट साहब की गाड़ी भी रुकवा सकता है.’          
ताउजी रेल-विभाग के हर माल को अपना माल समझते थे. उनके घर के तमाम परदे खलासियों की पोशाक अर्थात मोटे, खुरदरे गहरे नीले कपड़े के होते थे. उनके घर के तकियों के गिलाफ़, टेबल कवर्स, कुशंस आदि सब हरी और लाल झंडियों के बढ़िया रेशमी कपड़ों से बनाए जाते थे. मुफ़्त के पत्थर के कोयले की अंगीठी का चौबीसों घंटे सुलगते रहना तो ज़रूरी होता ही था. पता नहीं कब ताउजी को चाय की तलब लग जाय.
ताउजी के यहाँ जब भी जाओ तो घर की भुनी मूंगफली थोक में सर्व की जाती थीं. इनमें भाड़ में भुनी मूंगफलियों वाला ज़ायका नहीं होता था. ताउजी का अपना गाँव तो जगतपुर से बहुत दूर था फिर मूंगफली की बहार का राज़ क्या था? मैंने संदीप से पूछा तो वो बगलें झाँकने लगा ताउजी की बेटियों से पूछा तो वो खी-खी करके हंसने लगीं पर मेरे सवाल का जवाब उन्होंने भी नहीं दिया. अंत में मैंने हिम्मत करके ताउजी पर ही यह सवाल दाग दिया.
ताउजी ने जवाब दिया –
‘अरे बेटा, वो जो सीतापुर से मालगाड़ी आती है उसमें पचासों बोरियां कच्ची मूंगफली आती है, अब उसमें से हम भी अपना टैक्स निकाल लेते हैं फिर घर में भूनकर काम चला लेते हैं. पहले मैं मेरठ के पास के एक स्टेशन में सहायक स्टेशन मास्टर था. हफ़्ते में दो बार तो मेवे की बोरियां लेकर मालगाड़ियाँ आती थीं. उन दिनों में तुम घर पर आते तो इन मूंगफलियों की जगह तुम्हें काजू, किशमिश खिलाता.’
मैं हक्का-बक्का होकर चोरी और सीना-ज़ोरी के किस्से को हज़म ही कर रहा था कि ताउजी लगे जगतपुर स्टेशन की बुराई करने –
‘यहाँ तो बेटा, दरिद्रता छाई हुई है. मालगाड़ियों में सब्ज़ी लदकर आती है तो लौकी, कद्दू तो कभी बैंगन तो कभी परवल. सब्ज़ी के बोरों में से हम दस-बीस किलो निकाल लेते हैं पर हमारे बच्चे हैं कि इन्हें पसंद है आलू, भिन्डी, मटर, टमाटर. वैसे हमने सब्ज़ी वाले से सौदा कर लिया है वो हमारी सब्ज़ी के बदले में आलू, भिन्डी, टमाटर वगैरा दे जाता है पर इतना बदमाश है कि आधी बोरी मुफ़्त का कोयला लिए हुए वो हमारे यहाँ से कभी सरकता ही नहीं है.’
मैंने नम्रता से कहा –
ताउजी, मुझे तो जगतपुर बहुत अच्छा लगता है. कितना हरा-भरा है? और आपके यहाँ का दूध तो लाजवाब है.’
ताउजी ने फिर आह भरकर कहा –
‘जगतपुर हरा-भरा होगा पर यहाँ के लोगों की जेबें बिलकुल सूखी हैं. कोई बिना टिकट पकड़ा जाता है तो उससे हम वसूली करते हैं. जानते हो मेरे हिस्से में क्या आता है? सिर्फ 2 रूपये. और तुम्हारा दूध वाला, जिसके दूध की तुम तारीफ़ कर रहे हो, कमबख्त बिना टिकट चार कैन दूध लेकर चलता है और हमको रोजाना सिर्फ 2 लीटर दूध फ्री में देता है.’
एक आला अफ़सर की ऐसी दर्द भरी दास्तान सुनकर किसकी आँखें नम नहीं हो जाएंगी, पर उनकी अपनी औलादें और उनका अपना भतीजा सबके सब, उनके साथ दुखी होने के स्थान पर शर्म से ज़मीन में गड़े जाते थे.
ताउजी मुझे अपने बच्चों और अपने भतीजे से भी ज़्यादा प्यार करने लगे थे. बातों-बातों में उन्हें पता चला कि मैंने दिल्ली या बम्बई जैसा कोई शहर नहीं देखा है. ताउजी बड़े दिन कीछुट्टियों में सपरिवार सोमनाथ के दर्शन करने जा रहे थे. उन्होंने मेरे सामने प्रस्ताव रक्खा-
'अपने त्रिलोक का तो इस बार इन्टर फाइनल है, वो तो सोमनाथ जाएगा नहीं, उसके नाम पर तुम्हें ले चलेंगे. कुछ दिन हमको ताउजी की जगह बाबूजी कह लेना.'
मैं इस प्रस्ताव को सुनकर उछल पड़ा पर जब पिताजी से इस यात्रा के लिए मैंने अनुमति मांगी तो पता नहीं कैसे परम शांति प्रिय पिताश्री का बाएं हाथ का तमाचा मेरे गाल पर बिना कोई नोटिस दिए ही पड़ गया.
ताउजी जैसा आला अफ़सर और जगतपुर स्टेशन का बेताज बादशाह अपने क़ानून खुद बनाता था. जगतपुर स्टेशन से दिन में कुल मिलाकर 8 गाड़ियाँ पास होती थीं. बेचारे ताउजी को हर बार झंडी लेकर खड़ा होना पड़ता था. ताउजी का कहना था –
‘ट्रेन का ड्राईवर मुझे देखकर गाड़ी रोकता या चलाता थोड़े है. उसे तो लाल या हरी झंडी देखकर ही रुकना या चलना होता है.’
इस तर्क में दम था इसलिए ताउजी झंडी हिलाने-दिखाने का काम अपने किसी खलासी को देकर अपने कक्ष में पैर फैलाकर आराम करते रहते थे. गर्मियों में तो ताउजी अपने ऑफिशियल ड्रेस को भी त्यागकर जांघिया, बनियाइन में आ जाते थे.
सब कुछ ठीक चल रहा था पर एक दिन एक कोई खलासीनुमा बड़ा अफ़सर यमदूत बनकर जगतपुर स्टेशन आ गया. उसने देखा कि एक ट्रेन स्टेशन से गुज़र रही थी और स्टेशन मास्टर साहब थे कि जांघिया- बनियाइन पहने, मेज़ पर पैर पसारे मज़े से खर्राटे ले रहे थे. अफ़सर ने कोहराम मचाया तो ताउजी ने अपनी दलील दी पर वो प्रभावित नहीं हुआ. कच्ची मूंगफली की बोरी पेश की तो वो भी उसने ठुकरा दी यहाँ तक कि नकद-नारायण की पेशकश पर भी उसने लात मार दी.
अब ताउजी को भी गुस्सा आ गया. अड़ियल अफ़सर को धक्का देकर उन्होंने अपने कमरे से बाहर करते हुए कहा –
‘अफ़सर होगा तू अपने घर का. यहाँ का बादशाह मै हूँ. यहाँ तेरे नहीं, मेरे बनाए हुए कानून चलते हैं. तू मेरा क्या बिगाड़ लेगा? ज़्यादा से ज़्यादा तबादला ही तो करा देगा. वैसे भी जगतपुर रहना भी कौन चाहता है?’
भयभीत अफ़सर उलटे पाँव भाग खड़ा हुआ. ताउजी ने अपनी वीरता पर खुद अपनी पीठ ठोकी पर एक हफ़्ते में ही उनके पास सरकारी परवाना आ गया कि उन्हें ससपेंड किया जाता है वो भी विद इमीजियेट इफेक्ट. ताउजी बहुत दौड़े, उस अफ़सर के पैर भी पड़े, कई लोगों के लिए थैलियाँ भी खोलीं पर काम नहीं बना. पर उनके एक हितैषी अफ़सर ने उनसे एक मोटी रकम लेकर यह व्यवस्था करा दी कि अगर वो स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण कर लेते हैं तो उन पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाही नहीं होगी.
और फिर ताउजी अपने रिटायर्मेंट की तिथि से चार साल पहले ही रिटायर हो गए.
ताउजी रिटायर होकर जगतपुर में ही बस गए. मेरा उनके यहाँ आना-जाना भी लगा रहा पर फिर उनके यहाँ न तो नीले परदे रहे, न लाल-हरे टेबल कवर, न 24 घंटे सुलगने वाली अंगीठी. उनके यहाँ दूधवाले और सब्ज़ीवाले ने घर में घुसने से पहले ही अपने-अपने माल के दाम मांगने शुरू कर दिए थे.
एक आला अफ़सर, एक आम आदमी बनकर रह गया. एक बादशाह को ज़ालिम दुनिया ने फ़क़ीर बना दिया. पर मेरे लिए ताउजी जैसे पहले किस्सों के खज़ाना थे वैसे ही वो बाद में भी रहे. मेरे लिए वो अपनी बादशाहत के दौरान भी नमूना थे, अजूबा थे और अपने सिंहासन से हटाये जाने के बाद भी नमूना ही थे, अजूबा ही थे.                                             

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

घोड़ा था घमंडी

घोड़ा था घमंडी –
जातीय-गौरव और कुल-गौरव एक ऐसा मर्ज़ है जिसने कि आम भारतीय को पीढ़ी दर पीढ़ी जकड़ रक्खा है. हम अपना प्राचीन इतिहास टटोलें तो पता चलेगा हमारे पूर्वजों में कोई सूर्य का वंशज था तो कोई चन्द्र-वंशी. कोई अग्नि-कुंड से निकला था तो कोई कुम्भ से. कोई देव-पुत्र था तो कोई ऋषि-पुत्र था, किसी के पूर्वज चार वेदों के ज्ञाता थे तो किसी के तीन वेदों के. आज के ज़माने में भी कोई बीस बिस्वे का ब्राह्मण है तो कोई उन्नीस बिस्वे का, कोई ऊंची धोती वाला जोशी है तो कोई ऊंची धोती वाला पन्त है. कोई राजा अग्रसेन की संतान है, तो कोई महाराज चित्रगुप्त की.  
हमको ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे जो ये कहेंगे कि उनके पुरखे मामूली आदमी थे.
मुसलमानों में भी हिन्दुओं की देखा-देखी ये मर्ज़ घर कर गया है. सर पर ऊँगली रख शेख को, माथे पर ऊँगली रख सैयद को, नाक पर ऊँगली रख मुग़ल को और होठों पर ऊँगली रख पठान के सोशल स्टेटस को दिखाया जाता है और अमूमन आधे से ज्यादा मुसलमान खुद को हज़रत मुहम्मद के क़ुरैश खानदान का बताते हैं. भले ही उनके पुरखों ने सौ-दो सौ साल पहले ही इस्लाम क़ुबूल किया हो. कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ मामूली आदमी और आम आदमी की औलादें कभी पैदा ही नहीं होतीं.
आज से लगभग चार सौ साल पहले जैसलमेर से आए हम जैसवाल जैन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आकर बस गए थे. हमारे खानदान की वंशावली में हमारे तेरहवें बाबा का नाम दुर्गादास लिखा है. हमारे बाबा ने इन श्री दुर्गादास के बारे में हमसे कह दिया कि वे जोधपुर के वही प्रसिद्द दुर्गादास राठौर थे जिन्होंने कि औरंगजेब की नाक में दम कर दिया था. मेरी स्वर्गीया बहनजी और हम भाई लोग तब से खुद को शाही राजपूत मानने लगे थे. जल्द ही हम भाई लोगों की तो 'रॉयल ब्लड' का होने वाली ग़लतफ़हमी दूर हो गई पर बहनजी हमारे बाबा की गप्प को फिर भी वेद-वाक्य मानती रहीं. मैंने, उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जोधपुर और जैसलमेर दो अलग-अलग जगहें हैं और उन्हें यह भी बताया कि वीर दुर्गादास राठौर खुद एक बहुत ही साधारण परिवार से सम्बद्ध थे और उन्होंने अपना सैनिक व राजनीतिक जीवन बहुत ही मामूली ओहदे से शुरू किया था इसलिए बेहतर यही होगा कि हम खुद को वीर दुर्गादास राठौर का वंशज कहने के स्थान पर किसी मामूली दुर्गादास का वंशज मान लें. अब इस उम्र में यह बताने से क्या फ़ायदा कि इस रहस्योद्घाटन के कारण मेरे कान कितनी बार मले गए और अभी भी वो लाल-लाल क्यूँ हैं.      
ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में स्थिति इसके ठीक विपरीत है. सब जानते हैं कि वहां यूरोपीय देशों के अपराधियों को बसाया गया था. आज वहां के अनेक निवासी अपने पुरखों के अपराधों और उनको दी गई सजाओं की प्रामाणिक जानकारी हासिल करने के लिए तमाम पैसा खर्च करते हैं. ऑस्ट्रेलिया में आपको एक ऑस्ट्रेलियन किसी दूसरे ऑस्ट्रेलियन को यह कह के नीचा दिखाते हुए मिल सकता है –
तेरे ग्यारहवें दादाजी सिर्फ दो क़त्ल के जुर्म में ऑस्ट्रेलिया निर्वासित किये गए थे जब कि मेरे ग्यारहवें दादाजी 6 कत्लों के जुर्म में यहाँ भेजे गए थे.  
हमारे पास चार पैसे आ जाते हैं और हमारी सामाजिक स्थिति पहले से सुधर जाती है तो हमारा सोया हुआ जातीय गौरव जाग जाता है. कहा गया है –
माया तेरे तीन नाम – 'परसी' , 'परसा' , 'परसराम' 
हमारी मायावती बहन के भी तीन नाम हैं – ‘मायावती’ , ‘सुश्री बहन मायावती जी’ और ‘दलितों की देवी’.
हमारे गुलज़ार साहब ने अपने गीत – ‘लकड़ी की काठी’ में कहा है –
‘घोड़ा था घमंडी पहुंचा सब्ज़ी मंडी’ पर हमारे जातीय-गौरव तथा कुल-गौरव वाले घमंडी घोड़े हर मंडी, हर बाज़ार, हर गली, हर कूचे में मिल जाएंगे और अपनी लंतरानियों से, अपनी गप्पों से हमारा भेजा चाट जाएंगे

क्या इन घमंडी घोड़ों को भी पुराने ऑस्ट्रेलिया या पुराने न्यूज़ीलैंड जैसी किसी अनदेखी, अनजानी, जगह में बसाया नहीं जा सकता?               

सोमवार, 8 अगस्त 2016

सापेक्षता का सिद्धांत

सापेक्षता का सिद्धांत
दुनिया भर में सापेक्षता के सिद्धांत की खोज का श्रेय अल्बर्ट आइन्सटीन को दिया जाता है पर यह कितने लोग जानते हैं कि इस सिद्धांत का सबसे अधिक सदुपयोग हमारे देश के नेताओं द्वारा किया जाता है. 
पिछले कुछ दिनों से गो-रक्षकों के दलित-दमन चक्र के कारण देश भर में दलित वोट बैंक खिसकते देख मोदीजी ने उत्साही गो-रक्षकों को गुंडा तक कह दिया है और उनके लाठी-धर्म पर लगाम कसने का बीड़ा उठाया है. 
मैंने मोदीजी के इस निश्चय का स्वागत करने के स्थान पर यह प्रश्न उठाया था कि गो-रक्षकों की गुंडागर्दी और हेकड़ी तो सबको पिछले कई साल से दिखाई दे रही थी पर मोदीजी को दलित वोट-बैंक हाथ से खिसकते देख ही इसका ज्ञान क्यूँ हुआ. मेरी अपनी राय यह थी
डैमेज कंट्रोल के लिए अब बहुत देर हो चुकी है. मोदीजी को दलितों को अपनी ओर मिलाए रखने के लिए बहुत पहले ही कार्रवाही करनी चाहिए थी.
केला जबहिं न चेतिया, जब ढिंग लागी बेर,
अब चेते ते का भया, जब काँटा लीन्हे घेर.
विपक्षी दलों ने मोदीजी के उदगारों की उनके द्वारा उठाए जाने वाले सख्त क़दमों की खिल्ली उड़ाई तो मोदी-समर्थक बिफ़र गए. उन्होंने उदाहरण देकर यह दर्शाया कि कांग्रेस के राज में, समाजवादी पार्टी के राज, में इस से बड़े-बड़े, इस से भयानक-भयानक अपराध आए दिन होते रहते हैं फिर गो-रक्षकों की भोली सी गुंडागर्दी या उनके द्वारा गौशालाओं में नन्हे-नन्हे घोटालों पर इतना इतना हंगामा क्यूँ हो रहा है? 
आजकल राजनीतिक दल इस आधार पर खुद को उजला साबित करते हैं कि उनके यहाँ कलंकित जन-प्रतिनिधियों का प्रतिशत अन्य राजनीतिक दलों के कलंकित जन-प्रतिनिधियों की तुलना में कम है.
कोई राजनीतिक दल अपने दल को इसलिए गाँधीवादी, विनोबावादी, लोहियावादी या जयप्रकाश नारायनवादी बताता है क्यूंकि उसके यहाँ अरबपति जन-प्रतिनिधियों का प्रतिशत अन्य राजनीतिक दलों में अरबपति जन-प्रतिनिधियों की तुलना में कम है. 
मोदी-समर्थकों के तर्क में या अन्य राजनीतिक दलों के तर्कों में दम है पर मेरा उन सब से नम्र निवेदन है कि हर जगह आइन्सटीन का सापेक्षता का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता. 
मेरी कमीज़ के दाग सिर्फ इसलिए तो उजले नहीं हो जाएंगे क्यूंकि दूसरों की कमीजों के दाग मेरी कमीज़ के दागों से ज़्यादा काले हैं.
मैं चोरी करके इसलिए तो दोष-मुक्त नहीं हो जाऊँगा क्यूंकि मेरा पड़ौसी डाका डालने में पकड़ा गया है. 
हो सकता है कि मेरी बात स्वर्गीय आइन्सटीन और कुछ देशभक्तों को पसंद न आए पर मुझे उम्मीद है कि मेरे जैसे कुछ सामान्य-बुद्धि के सामान्य जनों को इस बात में कुछ दम अवश्य दिखाई देगा.                   

देवभूमि उत्तराखंड

प्रोफ़ेसर अनिल जोशी ने सूर्योदय अथवा सूर्यास्त की तस्वीर के साथ लिखा था -
'
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को, मिलता एक सहारा'
इसके जवाब में मैंने प्रसादजी के इस अमर गीत की पहली पंक्ति लिख दी -
'
अरुण, यह मधुमय देश हमारा.'
इस पर अनिल जोशी टिप्पणी करते हैं-
'
मधु तो नहीं, मय अवश्य है इस देश, सॉरी, प्रदेश में.'
वैसे अनिल जोशी हरद्वार में बने बाबा रामदेव के शुद्ध और सस्ते मधु को भूल गए हैं.
मेरा जवाब है -
'
अनिल, मदिरामय देश (सॉरी, प्रदेश) तुम्हारा,
जहाँ टुन्न रहने का मद्यप, लुत्फ़ उठाता, सारा.'
एक बार इसी भाव की अपनी एक कविता -'पहाड़' मैंने पोस्ट की थी तो अनिल जोशी नाराज़ हो गए थे. पर इस बार शायद ऐसा नहीं होगा.

सोमवार, 1 अगस्त 2016

पर्यटन उद्योग को प्रोत्साहन

पर्यटन को प्रोत्साहन –
1975-76 की बात है. तब मेरे छोटे भाई साहब पौड़ी गढ़वाल में स्टेट बैंक की शाखा में नियुक्त थे. उन दिनों सरकार द्वारा पहाड़ में पर्यटन को हर प्रकार से प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जा रहे थे. होटल, गेस्ट हाउस, रेस्त्रां आदि का निर्माण करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए बिना ज़्यादा क़ानूनी कार्रवाही के, बिना लाल-फ़ीता शाही के, ऋण, सब्सीडी आदि की व्यवस्था को साकार रूप देने के भरसक प्रयास किए जा रहे थे. सरकार की ओर से राष्ट्रीयकृत बैंकों को बार-बार निर्देश दिए जा रहे थे कि ऐसे मामलों में वो ऋण देने में अड़ंगे लगाने वाली अपनी पुरानी नीति का परित्याग करें. पर फिर भी परिणाम आशानुकूल नहीं आ रहे थे. उत्तर प्रदेश के पहाड़ में पर्यटन-उद्योग पहले की तरह मंदा पड़ा था. धार्मिक-पर्यटन को छोड़ दें तो वैली ऑफ़ फ्लावर्स, मसूरी, नैनीताल, रानीखेत आदि हिल स्टेशनों के अलावा पर्यटकों का आगमन नाम मात्र को ही होता था.
पौड़ी गढ़वाल से विधायक और उत्तर प्रदेश सरकार के एक उत्साही और कर्मठ मंत्री, माननीय नरेन्द्र सिंह भंडारी को पर्यटन-उद्योग की यह शोचनीय दशा क़तई स्वीकार्य नहीं थी. पौड़ी गढ़वाल में आयोजित एक जन-सभा में उन्होंने जिलाधीश, उनके कनिष्ठ अधिकारियों तथा बैंक अधिकारियों को इस बात के लिए फटकार लगाई कि पर्यटन को हर-संभव बढ़ावा दिए जाने के सरकारी निर्देशों तथा आदेशों के बाद भी वो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. उन्होंने इस बात पर बाकायदा आंसू बहाए कि उनका अपना प्यारा पौड़ी गढ़वाल तो पर्यटन के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ है.
इस जन-सभा में एक रौबीले से सज्जन ने अपना हाथ उठाकर मंत्रीजी के समक्ष कुछ तथ्य रखने की अनुमति मांगी. अनुमति मिलने पर उन्होंने कहा –
‘मंत्रीजी, मैं रिटायर्ड सूबेदार मेजर हूँ. 1965 के भारत-पाक युद्ध में मुझे वीर चक्र मिला है. मेरे पास इस शहर के बीचो-बीच अच्छी-खासी ज़मीन है. मैं अपनी ज़मीन पर एक शानदार होटल बनाना चाहता हूँ पर अपना होटल बनाने के लिए मुझे बैंक लोन नहीं दे रही है.’
वीर सैनिक की दर्द भरी दास्तान सुनकर मंत्रीजी आगबबूला हो गए. उन्होंने जन-सभा में ही जिलाधीश की क्लास ले ली.           
मंत्रीजी की डांट खाकर जिलाधीश महोदय चुपचाप नहीं बैठे. उन्होंने जन-सभा समाप्त होते ही मंत्रीजी की डांट अपने कनिष्ठ अधिकारियों और वरिष्ठ बैंक अधिकारियों को पास-ऑन कर दी. अगले दिन स्टेट बैंक की पौड़ी गढ़वाल शाखा के प्रबंधक ने मेरे भाई साहब को बुलाकर कहा –
‘जैसवाल, मैंने सूबेदार मेजर साहब को बुलाया है, तुम होटल के निर्माण के विषय में उनसे उनका प्लान सुन लो. फौजी भाई बड़े गुस्से में है, तुम उन्हें प्यार से सम्हाल लेना और हाँ, बैंक की तरफ़ से तुम्हें आउट ऑफ़ वे जाकर उनकी मदद करने की पूरी छूट है.’
भाई साहब ने 5 मिनट तक सूबेदार मेजर साहब (जिनको केवल मेजर साहब कहलवाना पसंद था) की शिकायतें सुनीं, फिर उनका गुस्सा ठंडा होने पर उन्होंने उनकी ज़मीन के कागज़ात देखे, उनकी जमा-पूँजी का ब्यौरा देखा, होटल का अप्रूव्ड नक्शा देखा, उसकी अनुमानित लागत देखी, होटल से होने वाली संभावित वार्षिक आमदनी पर सरसरी निगाह डाली. सब कुछ ठीक—ठाक था.
अब भाई साहब ने पूछा –
‘मेजर साहब, आप तो पूरी तैयारी के साथ आए हैं. बताइए,आपको होटल बनाने के लिए हमसे कितना लोन चाहिए?’
मेजर साहब नौजवान अधिकारी की तारीफ़ सुनकर बाग़-बाग़ हो गए. वो जोश में भरकर बोले –
‘जनाब, होटल की कुल लागत आएगी 15 लाख, 3 लाख मैं अपने लगाऊंगा, 12 लाख का लोन लूँगा. आपका पूरा लोन 10 साल में चुका दूंगा. औसतन महीने में मुझे कितना प्रॉफिट होगा, लोन चुकाने की कितनी मासिक किश्त होगी, इसका हिसाब भी मैंने लगा लिया है. आप खुद मेरा हिसाब चेक कर लीजिए.’
‘भाई साहब ने मेजर साहब का हिसाब देखा, एक बार, दो बार, फिर सर झटक कर तीसरी बार, फिर उन्होंने हिम्मत करके पूछ ही डाला –
‘मेजर साहब आपने मासिक आमदनी का औसत 15000/- लगाया है और लोन चुकाने की मासिक किश्त लगाई है, 10000/-, ठीक है न?’
मेजर साहब ने मूछों पर ताव देते हुए कहा –
‘मासिक आमदनी का औसत 16-17 हज़ार तक भी जा सकता है. अब लोन के 10000/- महीने चुका कर मेरे पास मुनाफ़े के 5-6 हज़ार महीने के तो बचेंगे ही.’
भाई साहब ने भोलेपन से पूछा –
’12 लाख का लोन आप दस साल में 120 किश्तों में चुकाएंगे और आप हमको सिर्फ 10000/- महीने की किश्त देंगे?’
मेजर साहब ने भाई साहब की नादानी पर हैरत जताते हुए पूछा –
12 लाख को 120 से डिवाइड करेंगे तो कितना आएगा?’
भाई साहब ने जवाब दिया –
’10000/-‘
मेजर साहब ने फिर पूछा –
‘फिर लोन चुकाने की मासिक किश्त कितनी हुई? 10000/- ही तो होगी’
भाई साहब काफ़ी देर तक हिसाब लगाते रहे फिर अंत में उन्होंने जवाब दिया –
‘मेरे हिसाब से आपको कम से कम 17000/- महीने की किश्त देनी होगी और लिखा-पढ़ी, स्टाम्प वगैरा के शुरू में 7-8 हज़ार ऊपर से देने होंगे.’
मेजर साहब ने नाराज़ होकर पूछा –
‘ये मासिक किश्त 10 हज़ार से 17 हज़ार कैसे हो गई?’
भाई साहब ने प्यार से कहा –
‘मेजर साहब, 10 सालों तक 10 हज़ार रूपये महीने तो आपको मूल धन के लिए चुकाने होंगे और 12 लाख लोन पर ब्याज के आपको 10 साल तक क़रीब 7 हज़ार रूपये हर महीने चुकाने होंगे. कुल मिलाकर आपकी किश्त बनी 17 हज़ार रूपये महीना.’
मेजर साहब ने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए सवाल दागा –
‘मान लीजिए मैं मासिक किश्तें समय से न चुका पाऊं तो आप क्या करेंगे?’
भाई साहब ने कहा –
‘तो हम आपका होटल ज़ब्त कर लेंगे.’
मेजर साहब ने धीरे से कहा –
‘वो मंत्रीजी तो कह रहे थे –‘
लेकिन विस्तार से समझाए जाने के बाद मेजर साहब ने तय कर लिया कि वो होटल नहीं बनाएँगे और अपने निश्चय से शाखा प्रबंधक, जिलाधीश और  मंत्रीजी को भी अवगत करा देंगे. हैप्पी एंडिंग के बाद भाई साहब ने मेजर साहब को चाय पिलाई फिर उनसे पूछा –
‘आप रिटायर्मेंट के बाद क्या करते हैं? अपना खाली वक़्त कैसे बिताते हैं?’
मेजर साहब ने जवाब दिया –
‘मैं एक छोटी से डेरी चलाता हूँ.’
भाई साहब ने उनसे कहा –
‘जिस ज़मीन पर आप होटल बनाने वाले थे वहां पर आप डेरी क्यूँ नहीं खोल लेते? गाय-भैंस खरीदने के लिए, उनके रहने को शेड बनाने के लिए लोन हम देंगे. ज़्यादा से ज़्यादा 2-3 लाख के लोन में आपकी शानदार डेरी तैयार हो जाएगी.’
मेजर साहब ने अपनी कुर्सी से उठकर भाई साहब को गले लगा लिया और पूरी तैयारी कर के डेरी खोलने हेतु लोन एप्लाई करने के लिए अगले हफ़्ते आने का वादा करके उन्होंने विदा ली.
मेजर साहब को विदा करके भाई साहब ने विस्तार से पूरा प्रकरण शाखा प्रबंधक को बताया.
राहत की सांस लेते हुए उन्होंने भाई साहब से पूछा –
‘मेजर साहब की डेरी तो तुम खुलवा दोगे पर सरकार के, और मंत्रीजी के पर्यटन-उद्योग को बढ़ावा देने के मिशन का क्या होगा?’
भाई साहब ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया –

‘सैकड़ों पर्यटक मेजर साहब की डेरी का शुद्ध और ताज़ा दूध पीने पौड़ी गढ़वाल आएँगे. इससे पर्यटन-उद्योग को ही तो बढ़ावा मिलेगा.’