आला अफ़सर –
आज से लगभग 50
साल पहले मैं बाराबंकी में पढ़ता था. यह कथा उन्हीं दिनों की है और इस कथा के
महानायक मेरे एक परम मित्र के स्वर्गीय ताउजी हैं. तब तक ताउजी अपने जीवन के
तीस-पैंतीस बेशकीमती साल भारतीय रेल की सेवा में अर्पित कर चुके थे. ताउजी ने
सहायक स्टेशन मास्टर से नौकरी शुरू की थी और इतने लम्बे अर्से की सेवा में उन्हें
सहायक स्टेशन मास्टर से पदोन्नत कर स्टेशन मास्टर बना दिया गया था वो भी जगतपुर (बाराबंकी
और लखनऊ के बीच स्थित) जैसे स्टेशन का, जहाँ पर पैसेंजर गाड़ियों और दो-चार
मालगाड़ियों के अलावा अगर कुछ ठहरता था तो वो सिर्फ़ वक़्त था. लेकिन हमारे महानायक
अपने ओहदे, अपने रुतबे, अपने दबदबे से बेहद संतुष्ट थे, बस उन्हें इस बात का मलाल रहता
था कि उनकी सल्तनत में सवारी गाड़ियाँ और चुनिन्दा मालगाड़ियाँ ही क्यूँ रूकती हैं.
मैं आजीवन शहर
में रहने वाला ग्राम्य-जीवन के बारे में सिर्फ़ उतना जानता था जितना कि प्रेमचंद ने
अपनी कहानियों –उपन्यासों में और राम नरेश त्रिपाठी ने अपनी कविता –
‘अहा
ग्राम्य-जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका
मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह
यहाँ है,
ऐसी सुविधा और
कहाँ है?’
में लिखा था.
भला हो जगतपुर-वासी
मेरे मित्र संदीप (यहाँ मैंने अपने मित्र का और ताउजी की तैनाती वाले स्टेशन का
नाम बदल दिया है) का जिसने मुझे ग्राम्य-जीवन से परिचित करा दिया. अक्सर इतवार को
या किसी और छुट्टी पर मैं अपनी साइकिल पर सवार होकर अपने दोस्त के घर पहुँच जाता था. जगतपुर में गर्मियों के
दिनों में आम की और बरसात व जाड़ों में अमरुद की बहुतायत रहती थी और जाड़े के ही
दिनों में खेतों से हरी मटर चुराकर खाने की सुविधा भी थी.
स्टेशन मास्टर
ताउजी के पास सुनाने के लिए किस्से-कहानियों का भंडार था लेकिन इन अधिकतर कहानियों
के नायक वो खुद ही हुआ करते थे. पुराने ज़माने के किस्सों में मेरी दिलचस्पी देखकर
ताउजी मुझे अपने अनुभव सुनाने के लिए बहुत बेताब रहते थे. उनके अपने बच्चे तो ‘एक
बार क्या हुआ’ या ‘एक बार की बात है’ सुनते ही किसी न किसी काम के बहाने कथा-स्थल
से फूट लेते थे. मेरा दोस्त अपने ताउजी का काफ़ी लिहाज़ करता था इसलिए वो यदा-कदा
उनके किस्सों का श्रोता बन जाता था पर मुझ जैसा किस्सों और लंतरानियों का शौक़ीन
उन्हें शायद अर्से से नहीं मिला था.
ताउजी का मानना
था कि स्टेशन मास्टर के पास बादशाह जैसी पॉवर होती है. वो कहते थे –
‘रेलवेज़ में
स्टेशन मास्टर से बड़ा कोई अफसर होता है तो बस चेयरमैन. बाक़ी बीच के अफ़सर तो बस,
समझो कि खलासी होते हैं. स्टेशन मास्टर चाहे तो लाल झंडी दिखा कर लाट साहब की गाड़ी
भी रुकवा सकता है.’
ताउजी रेल-विभाग के
हर माल को अपना माल समझते थे. उनके घर के तमाम परदे खलासियों की पोशाक अर्थात
मोटे, खुरदरे गहरे नीले कपड़े के होते थे. उनके घर के तकियों के गिलाफ़, टेबल कवर्स,
कुशंस आदि सब हरी और लाल झंडियों के बढ़िया रेशमी कपड़ों से बनाए जाते थे. मुफ़्त के
पत्थर के कोयले की अंगीठी का चौबीसों घंटे सुलगते रहना तो ज़रूरी होता ही था. पता
नहीं कब ताउजी को चाय की तलब लग जाय.
ताउजी के यहाँ जब
भी जाओ तो घर की भुनी मूंगफली थोक में सर्व की जाती थीं. इनमें भाड़ में भुनी
मूंगफलियों वाला ज़ायका नहीं होता था. ताउजी का अपना गाँव तो जगतपुर से बहुत दूर था
फिर मूंगफली की बहार का राज़ क्या था? मैंने संदीप से पूछा तो वो बगलें झाँकने लगा
ताउजी की बेटियों से पूछा तो वो खी-खी करके हंसने लगीं पर मेरे सवाल का जवाब
उन्होंने भी नहीं दिया. अंत में मैंने हिम्मत करके ताउजी पर ही यह सवाल दाग दिया.
ताउजी ने जवाब
दिया –
‘अरे बेटा, वो जो
सीतापुर से मालगाड़ी आती है उसमें पचासों बोरियां कच्ची मूंगफली आती है, अब उसमें
से हम भी अपना टैक्स निकाल लेते हैं फिर घर में भूनकर काम चला लेते हैं. पहले मैं
मेरठ के पास के एक स्टेशन में सहायक स्टेशन मास्टर था. हफ़्ते में दो बार तो मेवे
की बोरियां लेकर मालगाड़ियाँ आती थीं. उन दिनों में तुम घर पर आते तो इन मूंगफलियों
की जगह तुम्हें काजू, किशमिश खिलाता.’
मैं हक्का-बक्का
होकर चोरी और सीना-ज़ोरी के किस्से को हज़म ही कर रहा था कि ताउजी लगे जगतपुर स्टेशन
की बुराई करने –
‘यहाँ तो बेटा,
दरिद्रता छाई हुई है. मालगाड़ियों में सब्ज़ी लदकर आती है तो लौकी, कद्दू तो कभी
बैंगन तो कभी परवल. सब्ज़ी के बोरों में से हम दस-बीस किलो निकाल लेते हैं पर हमारे
बच्चे हैं कि इन्हें पसंद है आलू, भिन्डी, मटर, टमाटर. वैसे हमने सब्ज़ी वाले से सौदा
कर लिया है वो हमारी सब्ज़ी के बदले में आलू, भिन्डी, टमाटर वगैरा दे जाता है पर
इतना बदमाश है कि आधी बोरी मुफ़्त का कोयला लिए हुए वो हमारे यहाँ से कभी सरकता ही
नहीं है.’
मैंने नम्रता से
कहा –
ताउजी, मुझे तो
जगतपुर बहुत अच्छा लगता है. कितना हरा-भरा है? और आपके यहाँ का दूध तो लाजवाब है.’
ताउजी ने फिर आह
भरकर कहा –
‘जगतपुर हरा-भरा
होगा पर यहाँ के लोगों की जेबें बिलकुल सूखी हैं. कोई बिना टिकट पकड़ा जाता है तो
उससे हम वसूली करते हैं. जानते हो मेरे हिस्से में क्या आता है? सिर्फ 2 रूपये. और
तुम्हारा दूध वाला, जिसके दूध की तुम तारीफ़ कर रहे हो, कमबख्त बिना टिकट चार कैन
दूध लेकर चलता है और हमको रोजाना सिर्फ 2 लीटर दूध फ्री में देता है.’
एक आला अफ़सर की
ऐसी दर्द भरी दास्तान सुनकर किसकी आँखें नम नहीं हो जाएंगी, पर उनकी अपनी औलादें
और उनका अपना भतीजा सबके सब, उनके साथ दुखी होने के स्थान पर शर्म से ज़मीन में गड़े
जाते थे.
मैं इस प्रस्ताव को सुनकर उछल पड़ा पर जब पिताजी से इस यात्रा के लिए मैंने अनुमति मांगी तो पता नहीं कैसे परम शांति प्रिय पिताश्री का बाएं हाथ का तमाचा मेरे गाल पर बिना कोई नोटिस दिए ही पड़ गया.
ताउजी मुझे अपने बच्चों और अपने भतीजे से भी ज़्यादा प्यार करने लगे थे. बातों-बातों में उन्हें पता चला कि मैंने दिल्ली या बम्बई जैसा कोई शहर नहीं देखा है. ताउजी बड़े दिन कीछुट्टियों में सपरिवार सोमनाथ के दर्शन करने जा रहे थे. उन्होंने मेरे सामने प्रस्ताव रक्खा-
'अपने त्रिलोक का तो इस बार इन्टर फाइनल है, वो तो सोमनाथ जाएगा नहीं, उसके नाम पर तुम्हें ले चलेंगे. कुछ दिन हमको ताउजी की जगह बाबूजी कह लेना.'
ताउजी जैसा आला
अफ़सर और जगतपुर स्टेशन का बेताज बादशाह अपने क़ानून खुद बनाता था. जगतपुर स्टेशन से दिन में कुल
मिलाकर 8 गाड़ियाँ पास होती थीं. बेचारे ताउजी को हर बार झंडी लेकर खड़ा होना पड़ता
था. ताउजी का कहना था –
‘ट्रेन का
ड्राईवर मुझे देखकर गाड़ी रोकता या चलाता थोड़े है. उसे तो लाल या हरी झंडी देखकर ही
रुकना या चलना होता है.’
इस तर्क में दम
था इसलिए ताउजी झंडी हिलाने-दिखाने का काम अपने किसी खलासी को देकर अपने कक्ष में
पैर फैलाकर आराम करते रहते थे. गर्मियों में तो ताउजी अपने ऑफिशियल ड्रेस को भी
त्यागकर जांघिया, बनियाइन में आ जाते थे.
सब कुछ ठीक चल
रहा था पर एक दिन एक कोई खलासीनुमा बड़ा अफ़सर यमदूत बनकर जगतपुर स्टेशन आ गया. उसने
देखा कि एक ट्रेन स्टेशन से गुज़र रही थी और स्टेशन मास्टर साहब थे कि जांघिया- बनियाइन
पहने, मेज़ पर पैर पसारे मज़े से खर्राटे ले रहे थे. अफ़सर ने कोहराम मचाया तो ताउजी
ने अपनी दलील दी पर वो प्रभावित नहीं हुआ. कच्ची मूंगफली की बोरी पेश की तो वो भी
उसने ठुकरा दी यहाँ तक कि नकद-नारायण की पेशकश पर भी उसने लात मार दी.
अब ताउजी को भी
गुस्सा आ गया. अड़ियल अफ़सर को धक्का देकर उन्होंने अपने कमरे से बाहर करते हुए कहा –
‘अफ़सर होगा तू
अपने घर का. यहाँ का बादशाह मै हूँ. यहाँ तेरे नहीं, मेरे बनाए हुए कानून चलते
हैं. तू मेरा क्या बिगाड़ लेगा? ज़्यादा से ज़्यादा तबादला ही तो करा देगा. वैसे भी
जगतपुर रहना भी कौन चाहता है?’
भयभीत अफ़सर उलटे
पाँव भाग खड़ा हुआ. ताउजी ने अपनी वीरता पर खुद अपनी पीठ ठोकी पर एक हफ़्ते में ही
उनके पास सरकारी परवाना आ गया कि उन्हें ससपेंड किया जाता है वो भी विद इमीजियेट
इफेक्ट. ताउजी बहुत दौड़े, उस अफ़सर के पैर भी पड़े, कई लोगों के लिए थैलियाँ भी
खोलीं पर काम नहीं बना. पर उनके एक हितैषी अफ़सर ने उनसे एक मोटी रकम लेकर यह
व्यवस्था करा दी कि अगर वो स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण कर लेते हैं तो उन पर कोई
अनुशासनात्मक कार्रवाही नहीं होगी.
और फिर ताउजी
अपने रिटायर्मेंट की तिथि से चार साल पहले ही रिटायर हो गए.
ताउजी रिटायर
होकर जगतपुर में ही बस गए. मेरा उनके यहाँ आना-जाना भी लगा रहा पर फिर उनके यहाँ न
तो नीले परदे रहे, न लाल-हरे टेबल कवर, न 24 घंटे सुलगने वाली अंगीठी. उनके यहाँ
दूधवाले और सब्ज़ीवाले ने घर में घुसने से पहले ही अपने-अपने माल के दाम मांगने
शुरू कर दिए थे.
एक आला अफ़सर, एक
आम आदमी बनकर रह गया. एक बादशाह को ज़ालिम दुनिया ने फ़क़ीर बना दिया. पर मेरे लिए
ताउजी जैसे पहले किस्सों के खज़ाना थे वैसे ही वो बाद में भी रहे. मेरे लिए वो अपनी
बादशाहत के दौरान भी नमूना थे, अजूबा थे और अपने सिंहासन से हटाये जाने के बाद भी नमूना
ही थे, अजूबा ही थे.
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जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छे लेखक हैं । अच्छा लिखते हैं । अच्छा लिखा है । पर पता तो चले लोगों को दिखिये तो सही लोगों के ब्लागों पर टिप्पणी करते हुए कहीं तो नजर आइये ।
तुम कुछ अच्छे ब्लॉग मुझे सुझाओ. मैं तो लोगों से ज़्यादा से ज़्यादा जुड़ना चाहता ही हूँ. और हा, प्रशंसा के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंआप खुद पढ़िये ब्लागों पर जा कर जो अच्छा लगे उसका अनुसरण कीजिये । आप करेंगे उनका तो वो करेंगे आपका । इसी तरह कारवाँ बनता चला जाता है ।
हटाएंसुशील बाबू मैं रोज़ किसी नए ब्लॉग से जुड़ने की कोशिश करूँगा पर तुम कुछ अच्छे ब्लॉग मुझे बताओ तो.
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