पर्यटन को प्रोत्साहन –
1975-76 की बात है. तब मेरे छोटे
भाई साहब पौड़ी गढ़वाल में स्टेट बैंक की शाखा में नियुक्त थे. उन दिनों सरकार
द्वारा पहाड़ में पर्यटन को हर प्रकार से प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जा रहे थे.
होटल, गेस्ट हाउस, रेस्त्रां आदि का निर्माण करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए बिना
ज़्यादा क़ानूनी कार्रवाही के, बिना लाल-फ़ीता शाही के, ऋण, सब्सीडी आदि की व्यवस्था
को साकार रूप देने के भरसक प्रयास किए जा रहे थे. सरकार की ओर से राष्ट्रीयकृत
बैंकों को बार-बार निर्देश दिए जा रहे थे कि ऐसे मामलों में वो ऋण देने में अड़ंगे
लगाने वाली अपनी पुरानी नीति का परित्याग करें. पर फिर भी परिणाम आशानुकूल नहीं आ
रहे थे. उत्तर प्रदेश के पहाड़ में पर्यटन-उद्योग पहले की तरह मंदा पड़ा था. धार्मिक-पर्यटन
को छोड़ दें तो वैली ऑफ़ फ्लावर्स, मसूरी, नैनीताल, रानीखेत आदि हिल स्टेशनों के
अलावा पर्यटकों का आगमन नाम मात्र को ही होता था.
पौड़ी गढ़वाल से विधायक और उत्तर
प्रदेश सरकार के एक उत्साही और कर्मठ मंत्री, माननीय नरेन्द्र सिंह भंडारी को
पर्यटन-उद्योग की यह शोचनीय दशा क़तई स्वीकार्य नहीं थी. पौड़ी गढ़वाल में आयोजित एक
जन-सभा में उन्होंने जिलाधीश, उनके कनिष्ठ अधिकारियों तथा बैंक अधिकारियों को इस
बात के लिए फटकार लगाई कि पर्यटन को हर-संभव बढ़ावा दिए जाने के सरकारी निर्देशों
तथा आदेशों के बाद भी वो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. उन्होंने इस बात पर बाकायदा
आंसू बहाए कि उनका अपना प्यारा पौड़ी गढ़वाल तो पर्यटन के मामले में बहुत ही पिछड़ा
हुआ है.
इस जन-सभा में एक रौबीले से सज्जन
ने अपना हाथ उठाकर मंत्रीजी के समक्ष कुछ तथ्य रखने की अनुमति मांगी. अनुमति मिलने
पर उन्होंने कहा –
‘मंत्रीजी, मैं रिटायर्ड सूबेदार
मेजर हूँ. 1965 के भारत-पाक युद्ध में मुझे वीर चक्र मिला है. मेरे पास इस शहर के
बीचो-बीच अच्छी-खासी ज़मीन है. मैं अपनी ज़मीन पर एक शानदार होटल बनाना चाहता हूँ पर
अपना होटल बनाने के लिए मुझे बैंक लोन नहीं दे रही है.’
वीर सैनिक की दर्द भरी दास्तान
सुनकर मंत्रीजी आगबबूला हो गए. उन्होंने जन-सभा में ही जिलाधीश की क्लास ले
ली.
मंत्रीजी की डांट खाकर जिलाधीश
महोदय चुपचाप नहीं बैठे. उन्होंने जन-सभा समाप्त होते ही मंत्रीजी की डांट अपने
कनिष्ठ अधिकारियों और वरिष्ठ बैंक अधिकारियों को पास-ऑन कर दी. अगले दिन स्टेट
बैंक की पौड़ी गढ़वाल शाखा के प्रबंधक ने मेरे भाई साहब को बुलाकर कहा –
‘जैसवाल, मैंने सूबेदार मेजर साहब
को बुलाया है, तुम होटल के निर्माण के विषय में उनसे उनका प्लान सुन लो. फौजी भाई
बड़े गुस्से में है, तुम उन्हें प्यार से सम्हाल लेना और हाँ, बैंक की तरफ़ से
तुम्हें आउट ऑफ़ वे जाकर उनकी मदद करने की पूरी छूट है.’
भाई साहब ने 5 मिनट तक सूबेदार मेजर
साहब (जिनको केवल मेजर साहब कहलवाना पसंद था) की शिकायतें सुनीं, फिर उनका गुस्सा
ठंडा होने पर उन्होंने उनकी ज़मीन के कागज़ात देखे, उनकी जमा-पूँजी का ब्यौरा देखा, होटल
का अप्रूव्ड नक्शा देखा, उसकी अनुमानित लागत देखी, होटल से होने वाली संभावित
वार्षिक आमदनी पर सरसरी निगाह डाली. सब कुछ ठीक—ठाक था.
अब भाई साहब ने पूछा –
‘मेजर साहब, आप तो पूरी तैयारी के
साथ आए हैं. बताइए,आपको होटल बनाने के लिए हमसे कितना लोन चाहिए?’
मेजर साहब नौजवान अधिकारी की तारीफ़
सुनकर बाग़-बाग़ हो गए. वो जोश में भरकर बोले –
‘जनाब, होटल की कुल लागत आएगी 15
लाख, 3 लाख मैं अपने लगाऊंगा, 12 लाख का लोन लूँगा. आपका पूरा लोन 10 साल में चुका
दूंगा. औसतन महीने में मुझे कितना प्रॉफिट होगा, लोन चुकाने की कितनी मासिक किश्त
होगी, इसका हिसाब भी मैंने लगा लिया है. आप खुद मेरा हिसाब चेक कर लीजिए.’
‘भाई साहब ने मेजर साहब का हिसाब
देखा, एक बार, दो बार, फिर सर झटक कर तीसरी बार, फिर उन्होंने हिम्मत करके पूछ ही
डाला –
‘मेजर साहब आपने मासिक आमदनी का औसत
15000/- लगाया है और लोन चुकाने की मासिक किश्त लगाई है, 10000/-, ठीक है न?’
मेजर साहब ने मूछों पर ताव देते हुए
कहा –
‘मासिक आमदनी का औसत 16-17 हज़ार तक
भी जा सकता है. अब लोन के 10000/- महीने चुका कर मेरे पास मुनाफ़े के 5-6 हज़ार
महीने के तो बचेंगे ही.’
भाई साहब ने भोलेपन से पूछा –
’12 लाख का लोन आप दस साल में 120
किश्तों में चुकाएंगे और आप हमको सिर्फ 10000/- महीने की किश्त देंगे?’
मेजर साहब ने भाई साहब की नादानी पर
हैरत जताते हुए पूछा –
12 लाख को 120 से डिवाइड करेंगे तो
कितना आएगा?’
भाई साहब ने जवाब दिया –
’10000/-‘
मेजर साहब ने फिर पूछा –
‘फिर लोन चुकाने की मासिक किश्त
कितनी हुई? 10000/- ही तो होगी’
भाई साहब काफ़ी देर तक हिसाब लगाते
रहे फिर अंत में उन्होंने जवाब दिया –
‘मेरे हिसाब से आपको कम से कम
17000/- महीने की किश्त देनी होगी और लिखा-पढ़ी, स्टाम्प वगैरा के शुरू में 7-8
हज़ार ऊपर से देने होंगे.’
मेजर साहब ने नाराज़ होकर पूछा –
‘ये मासिक किश्त 10 हज़ार से 17 हज़ार
कैसे हो गई?’
भाई साहब ने प्यार से कहा –
‘मेजर साहब, 10 सालों तक 10 हज़ार
रूपये महीने तो आपको मूल धन के लिए चुकाने होंगे और 12 लाख लोन पर ब्याज के आपको 10
साल तक क़रीब 7 हज़ार रूपये हर महीने चुकाने होंगे. कुल मिलाकर आपकी किश्त बनी 17
हज़ार रूपये महीना.’
मेजर साहब ने अपने माथे का पसीना
पोंछते हुए सवाल दागा –
‘मान लीजिए मैं मासिक किश्तें समय
से न चुका पाऊं तो आप क्या करेंगे?’
भाई साहब ने कहा –
‘तो हम आपका होटल ज़ब्त कर लेंगे.’
मेजर साहब ने धीरे से कहा –
‘वो मंत्रीजी तो कह रहे थे –‘
लेकिन विस्तार से समझाए जाने के बाद
मेजर साहब ने तय कर लिया कि वो होटल नहीं बनाएँगे और अपने निश्चय से शाखा प्रबंधक,
जिलाधीश और मंत्रीजी को भी अवगत करा
देंगे. हैप्पी एंडिंग के बाद भाई साहब ने मेजर साहब को चाय पिलाई फिर उनसे पूछा –
‘आप रिटायर्मेंट के बाद क्या करते
हैं? अपना खाली वक़्त कैसे बिताते हैं?’
मेजर साहब ने जवाब दिया –
‘मैं एक छोटी से डेरी चलाता हूँ.’
भाई साहब ने उनसे कहा –
‘जिस ज़मीन पर आप होटल बनाने वाले थे
वहां पर आप डेरी क्यूँ नहीं खोल लेते? गाय-भैंस खरीदने के लिए, उनके रहने को शेड
बनाने के लिए लोन हम देंगे. ज़्यादा से ज़्यादा 2-3 लाख के लोन में आपकी शानदार डेरी
तैयार हो जाएगी.’
मेजर साहब ने अपनी कुर्सी से उठकर
भाई साहब को गले लगा लिया और पूरी तैयारी कर के डेरी खोलने हेतु लोन एप्लाई करने
के लिए अगले हफ़्ते आने का वादा करके उन्होंने विदा ली.
मेजर साहब को विदा करके भाई साहब ने
विस्तार से पूरा प्रकरण शाखा प्रबंधक को बताया.
राहत की सांस लेते हुए उन्होंने भाई
साहब से पूछा –
‘मेजर साहब की डेरी तो तुम खुलवा
दोगे पर सरकार के, और मंत्रीजी के पर्यटन-उद्योग को बढ़ावा देने के मिशन का क्या
होगा?’
भाई साहब ने मुस्कुराते हुए जवाब
दिया –
‘सैकड़ों पर्यटक मेजर साहब की डेरी
का शुद्ध और ताज़ा दूध पीने पौड़ी गढ़वाल आएँगे. इससे पर्यटन-उद्योग को ही तो बढ़ावा
मिलेगा.’
अच्छी कहानी अच्छी तरह परोसी है बधाई भाई जी पर ये भी पुरानी बात हो गई आज मेजर साहब लोन ले कर घर चले गये होते और जेब गरम कर गये होते । समझाने वालों की आज ऐसी की तैसी हो गई होती है ना :)
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, हम तो पुराने ज़माने में ही जीते हैं. आज का ज़माना हमको हज़म नहीं हो पाता और न ये ज़माना हमको हज़म कर पाता है. वैसे जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ उस ज़माने में भी विजय माल्या के पूर्वज विद्यमान थे जो कि लोन को दहेज़ में मिला उपहार समझते थे. हाँ, समझाने वाले भी कभी-कभी माल डकारने में साझेदार बन जाते थे. ग़लतफ़हमी में मत रहो. आज से 40 साल पहले भी हालात काफ़ी बुरे थे.
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, हम तो पुराने ज़माने में ही जीते हैं. आज का ज़माना हमको हज़म नहीं हो पाता और न ये ज़माना हमको हज़म कर पाता है. वैसे जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ उस ज़माने में भी विजय माल्या के पूर्वज विद्यमान थे जो कि लोन को दहेज़ में मिला उपहार समझते थे. हाँ, समझाने वाले भी कभी-कभी माल डकारने में साझेदार बन जाते थे. ग़लतफ़हमी में मत रहो. आज से 40 साल पहले भी हालात काफ़ी बुरे थे.
जवाब देंहटाएंआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिन : मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंहर्षवर्धनजी, 'जन्मदिन : मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी पोस्ट प्रकाशित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजसवाल जी, आपने इस लेख के माध्यम से पहाड़ में पर्यटन की दशा और दिशा को विस्तार से बताने की कोशिश की है। आपके लिखने का अंदाज मुझे बहुत अच्छा लगा। विशेषकर आपने एक छोटी सी बात को जिस रुचिकर अंदाज में पेश किया। वह मुझे अल्मोड़ा कैंपस में आपके पढ़ाने के तरीके जैसा लगा। आपकी शैली किसी पत्रकार से कम नहीं लग रही है। मुझे गर्व है कि आप मेरे शिक्षक रह चुके हैं। आपका- अनिल आज़ाद पांडेय, चायना रेडियो, बीजिंग चीन। मोबाइल- 0086-15210675582
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आज़ाद कि तुमको मेरी लेखन-शैली रुचिकर लगी. मुझे भगवतीचरण वर्मा, श्री लाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और सबसे अधिक अकबर इलाहाबादी की व्यंग्य-रचनाओं से व्यंग्य-लेखन की प्रेरणा मिली है.
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