गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

स्वर्णिम अवसर

 

1. हमको उन से रहम की है उम्मीद

जो नहीं जानते दया क्या है

कल दवा दस हज़ार में बेची

लाख का रेट अब बुरा क्या है

 2. खुल्लम-खुल्ला छूट है

लूट सके तो लूट

धरम-करम में यदि पड़ा

भाग जाएंगे फूट

 3. सजग पहरेदार की शिक़ायत –

 'गब्बर, तुम रोज़ हाथ मारो और हमको सिर्फ़ हफ़्ता दो.

बहुत नाइंसाफ़ी है !'

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

मीडिया भारत का लेकिन फ़िक्र पाकिस्तान की

 पड़ौसी के यहाँ कौन सी दाल बनी है और कौन सी सब्ज़ी, इसकी फ़िक्र करने वाले अक्सर अपनी रसोई में दाल-सब्ज़ी बनाना भूल जाते हैं.

हमारे जागरूक मीडिया को पाकिस्तान में हो रही हर गलत हरक़त की जानकारी रहती है लेकिन उसे अपनी नाक के नीचे हो रही तमाम गड़बड़ियाँ दिखाई नहीं देतीं.
पाकिस्तान की चरमराती अर्थ-व्यवस्था पर रोज़ाना उपन्यास लिखे जाते हैं.
पाकिस्तान कहाँ भीख मांगने गया, कहाँ ख़ुद को गिरवी रखने गया, कहाँ से उसे रोटी मिली, किधर से उसे कपड़े मिले, कौन-कौन से पाकिस्तानी बैंक डूबने की कगार पर हैं, पाकिस्तान के कौन-कौन से उद्योग-संस्थानों में ताला लगने वाला है, इसकी विस्तृत जानकारी देने वाला हमारा मीडिया भारत की अर्थव्यवस्था को तो जैसे फलते-फूलते ही दिखलाना चाहता है.
हम यह भूल जाते हैं कि राफ़ेल से लेकर टीवी, मोबाइल के छोटे से छोटे पुर्ज़े भी हम आयात करते हैं.
हम को यह भी याद नहीं रहता कि हम अपने देश में पाकिस्तान की कुल आबादी के दस प्रतिशत से ज़्यादा तो हर साल बेरोज़गार बढ़ा देते हैं.
हम रोज़ सुनते हैं कि पाकिस्तान में भुखमरी है और हमारे यहाँ तो जैसे लोग ज़्यादा खाने से मर रहे हैं.
हम रोज़ पढ़ते हैं कि पाकिस्तान में आए दिन लोकतान्त्रिक मूल्यों की बलि चढ़ाई जा रही है तो क्या हमारे देश में लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप स्थापित हो गया है?
सब जानते हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ बहुत ज़्यादतियां होती हैं लेकिन हमको इस बात की फ़िक्र करने के बजाय इस बात की फ़िक्र करनी चाहिए कि हमारे देश में अल्पसंख्यकों के साथ या किसी समुदाय विशेष के साथ किसी प्रकार का कोई अन्याय न हो.
हमारे मीडिया विशेषज्ञ पाकिस्तान के विषय में भविष्यवाणी करने के लिए भृगुसंहिता का शायद इस्तेमाल करते हैं.
अगस्त, 2018 में इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की ढुलमुल होती हुई कुर्सी संभाली थी.
सबको पता था कि उसकी कुर्सी पाकिस्तान की सेना के रहमो-करम पर टिकी है लेकिन सिर्फ़ हमारे मीडिया को यह पता था कि किस दिन, कितने बज कर, कितने मिनट पर, उसकी गद्दी छिननी है.
पिछले 32 महीनों में हमारे मीडिया ने कम से कम 32 बार इमरान खान का मर्सिया पढ़ लिया है लेकिन वो कमबख्त आज भी वज़ीरे-आज़म की अपनी कुर्सी पर जमा हुआ है.
हमारे मीडिया को इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध को कैसे सुधारा जाए.
उसे तो इस बात की फ़िक्र होती है कि इमरान खान की नई शादी कब टूटने वाली है और उसकी किसी पूर्व-पत्नी ने उस पर क्या-क्या इल्ज़ाम लगाए हैं.
हमारे मीडिया ने सबसे ज़्यादा अक्लमंदी कोरोना-संकट के विषय में दिखाई है.
पिछले साल हमने व्यापक तालाबंदी कर के न जाने कितनी बार अपनी पीठ ठोकी थी.
कोरोना-दैत्य को तो हमने ताली और थाली बजा कर ही भगा दिया था. और दूसरी तरफ़ मरदूद पाकिस्तान था कि वहां न तो कोरोना से लड़ने वाली दवाइयां थीं और न ही ऐसी समस्या से निपटने के लायक़ शासनतन्त्र.
इस कोरोना-संकट में पाकिस्तान कितना बर्बाद हुआ इसका हिसाब तो बाद में होगा लेकिन यह सबको पता है कि इस संकट की दूसरी लहर में हम पूरी दुनिया के चालीस प्रतिशत से भी अधिक शिकार दे रहे हैं और हमारे यहाँ रोज़ाना मरने वालों का आंकड़ा अब तीन हज़ार के क़रीब हो गया है.
आज हम कहीं से वैक्सीन के लिए कच्चा माल मंगा रहे हैं तो कहीं से वैक्सीन आयात कर रहे हैं.
हम आत्मनिर्भरता की डींग हांकने वाले आज हवाई जहाजों पर लाद कर ऑक्सीजन प्लांट्स ला रहे हैं.
पाकिस्तान की हालत ख़राब है, यह साबित कर के हमको क्या हासिल होने वाला है?
क्या इस से हमारी मुश्किलें हल हो जाएँगी?
धन्य हो तुम भारत के सियासतदानों !
धन्य हो तुम भारत के मीडिया वालो !
हमको इस बात की चिंता नहीं है कि हमारी कमीज़ गंदी है.
हम तो इस बात का जश्न मना रहे हैं कि पड़ौसी की कमीज़ हमारी कमीज़ से कहीं ज़्यादा गन्दी है.
हम अगर गढ्ढे में गिर गए हैं तो उस से निकलने की भला कोशिश क्यों करें?
देखो, देखो ! हमारा दुश्मन पड़ौसी तो खाई में गिर गया है.
भगवान महावीर का संदेश - 'जियो और जीने दो' न तो हम भारतीयों तक पहुंचा है और न ही पाकिस्तानियों तक. एक-दूसरे को डुबाने में ही हमारी सारी ऊर्जा समाप्त हो जाती है.
अंत में इस भ्रष्ट एंटी-पाकिस्तान मीडिया के और विक्षिप्त एंटी-भारत मीडिया के बारे में और हवा में नफ़रत का ज़हर घोलने वाले इन सियासतदानों के विषय में, मैं भगवान से प्रार्थना करना चाहूँगा -
अवतार ले के भगवन, इस सृष्टि को बचा ले,
नफ़रत के बीज बोएं, उनको अभी उठा ले.

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

जीनियस

 मुदर्रिसी के दौरान अल्मोड़ा में एक से एक जीनियस विद्यार्थियों से मेरा पाला पड़ा था.

इन में से कुछ विभूतियाँ तो चाह कर भी भूली नहीं जा सकती हैं.
ऐसी ही एक हस्ती थी एम. ए. के हमारे एक पहलवान विद्यार्थी की.
पहलवान क्लास में मेरे लेक्चर्स के समय थोड़े-थोड़े अंतराल पर कहता रहता था -
'गुरु जी, नोट्स लिखा दीजिए. आपका लेक्चर हमारे पल्ले नहीं पड़ता.'
मेरा जैसा गुस्ताख़ उसकी ऐसे हर फ़रमाइश को अन-सुना करते हुए अपना लेक्चर जारी रखता था.
दो सौ नाली के मालिक, एक बड़े किसान के बेटे, इस पहलवान विद्यार्थी से मुझे सिर्फ़ एक शिक़ायत थी.
वह यह कि वो खेत के बजाय क्लास में नोट-बुक्स में और परीक्षा के दौरान उत्तर-पुस्तिकाओं में गुड़ाई किया करता था.
लेकिन मुझे इस गुड़ाई-एक्सपर्ट विद्यार्थी के भविष्य की कोई चिंता नहीं थी.
मेरी तनख्वाह से ज़्यादा आमदनी तो उसके खेतों में उपजे आलुओं से हो जाती थी.
मैं अक्सर पहलवान को सलाह देता रहता था कि वो पढ़ाई-लिखाई को तिलांजलि देकर अपना पूरा समय खेती को दे.
ऐसा करने से उसका और साथ में हमारे इतिहास विभाग, दोनों का ही, कल्याण हो सकता था.
लेकिन पहलवान की खेती में कोई दिलचस्पी नहीं थी.
पहलवान की दिली तमन्ना थी कि वो इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस बन कर उत्तराखंड में जुर्म को जड़ से मिटा कर अपना नाम इतिहास में अमर कर दे.
हमारा पहलवान कई बार पुलिसिया परीक्षाओं में गोता लगा चुका था.
अबकी बार आर-पार की यानी कि 'नाउ और नेवर' की लड़ाई थी.
पहलवान ऐसी हर परीक्षा के लिए अगले साल से ओवर-एज होने वाला था.
एक दिन मेरा क्लास शुरू होते ही पहलवान मुस्कुराते हुए मेरे पास आया.
उसने एक ही हाथ से मेरे पैर छुए क्योंकि उसके दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा था.
पहलवान ने मिठाई का डिब्बा खोला और मुझ से अनुरोध किया कि उस में से एक लड्डू निकाल कर खा लूं.
मैंने इस मिष्ठान-वितरण का सबब पूछा तो पता चला कि पहलवान की भर्ती कांस्टेबल के रूप में उत्तराखंड पुलिस में हो गयी है.
मैंने ख़ुद लड्डू खाते हुए क्लास में लड्डू-ब्रेक की घोषणा कर दी.
लड्डू खाते हुए मैंने और सभी विद्यार्थियों ने पहलवान को उसकी कामयाबी पर मुबारकबाद दी.
क्लास ख़त्म होने पर और विद्यार्थियों की भीड़ छटने पर मैंने पहलवान से पूछा -
'वत्स ! तूने क्या जुगाड़ किया था जो इस बार तुझे खाक़ी वर्दी मिल ही गयी?'
पहलवान ने शर्माते हुए बताया -
'हमारे दरोगा मामा जी ने जुगाड़ लगाया था. चार लाख देकर ही काम हो गया. वैसे आजकल रेट तो दस लाख का चल रहा है.'
मैंने अदृश्य दरोगा मामा जी को प्रणाम करते हुए होने वाले सिपैया से कहा -
'बालक ! तेरी मनोकामना पूरी हुई.
तेरी तोंद निकल आई है. अब तू पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर खेलकूद और कसरत पर ध्यान दे.'
बालक ने जवाब दिया -
'गुरु जी, अभी से पढ़ाई-लिखाई छोड़ दूंगा तो आई. पी. एस. कैसे बनूँगा?
आप आशीर्वाद दीजिए कि अपने अंतिम प्रयास में मैं आई. पी. एस. हो जाऊं.'
'आई. पी. एस.' होने का आशीर्वाद देने की बात सुनते ही मेरे पैर कांपने लगे और मेरी ज़ुबान लड़खड़ाने लगी. मैंने हकलाते हुए बांके सिपैया से पूछा -
'बालक ! तू 'आई. पी. एस.' का फ़ुल फ़ॉर्म जानता है?'
बालक को मेरे सवाल पर आश्चर्य हुआ. फिर उसने जवाब दिया -
'हाँ गुरु जी ! अच्छी तरह जानता हूँ. 'आई. पी. एस.' से मतलब है - इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस सर्विस'.
इतना सुनना था कि मैंने अपने पर्स में से एक पांच का नोट निकाल कर पहलवान को दिया और फिर हाथ जोड़ते हुए उस से माफ़ी मांगते हुए कहा -
'पहलवान, तेरा लड्डू तो मेरे पेट में चला गया है. वो तो मैं तुझे वापस कर नहीं सकता. उसके बदले में तू ये पांच रूपये रख और मुझे माफ़ कर.
मैं चाह कर भी, अपनी आत्मा का खून कर के भी, तुझको 'आई. पी. एस.' होने का आशीर्वाद नहीं दे पाऊंगा.'

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

नीम-करेले का जूस

 रहीम ने कहा है -

'खीरा मुख तें काटिए, मलियत नोन लगाय,
रहिमन कड़वे मुखन को, चहियत इही सजाय.'
मुझे लगता है कि भारत में मेरे जनम से सैकड़ों साल पहले से ही मेरी जान के दुश्मन मौजूद थे.
आज सुबह अपनी कॉलोनी के एक पार्क में टहलने गया तो देखा कि एक साहब वहां दो बड़े-बड़े कुत्तों को बिना कोई चेन बांधे घुमा रहे हैं. ऐसे सभी महानुभावों को टोकना मैं अपना फ़र्ज़ समझता हूँ. मैंने उन सज्जन से कहा कि अव्वल तो उन्हें अपने कुत्तों को पार्क में घुमाने के लिए लाना ही नहीं चाहिए और अगर उन्हें वहां घुमाना भी है तो कम से कम उन्हें चेन से बांधकर लाना चाहिए.
उन सज्जन ने मुझे आश्वस्त किया कि उनके कुत्ते बड़े सज्जन (उन्होंने तो उन्हें जेंटलमैन कहा था) हैं, वो किसी को काटते नहीं हैं.
मुझे उन साहब के आश्वासन पर कोई भरोसा नहीं हुआ और मैंने उन्हें पार्क से जाने की सलाह दे डाली.
उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मुझे घूरा फिर उन्होंने मुझसे पूछा –
‘आप जानते हैं मैं कौन हूँ?’
मैंने बुद्धूपन से जवाब दिया –
‘जी मैं आपको नहीं जानता. क्या आप अपना परिचय देंगे?
उन्होंने फ़रमाया – ‘
मैं अपना परिचय दूंगा तो आप हिल जाएंगे.’
मैंने हाथ जोड़कर माफ़ी मांगते हुए कहा –
'ओह, माफ़ कीजिएगा राष्ट्रपति महोदय, आपने गोल्डन फ्रेम वाला अपना चश्मा नहीं लगाया है, इसलिए मैं आपको पहचान नहीं पाया.’
उन राष्ट्रपति महोदय का चेहरा लाल हो गया पर इस बार गुस्से से नहीं, बल्कि शर्म से.
बाद में उनसे बड़े प्यार से बात हुई. वो सज्जन ग्रेटर नॉएडा डवलपमेंट अथॉरिटी के किसी विभाग में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत थे और आदतन पूरे ग्रेटर नॉएडा को अपनी जागीर समझते थे.
मेरे इन नए बने मित्र ने मुझे आश्वस्त किया कि अब वो अपने कुत्तों को लेकर पार्क में नहीं आएँगे.
घर जाकर जब मैंने अपनी श्रीमतीजी को अपनी यह उपलब्धि बताई तो उन्होंने मुझसे पूछा –
‘आपकी ब्लड-शुगर कंट्रोल करने के लिए मैं जो आपको रोज़ सवेरे नीम-करेले का जूस देती हूँ वो आप अपने गले के नीचे उतारने के बजाय अपनी ज़ुबान पर ही क्यूँ रक्खे रहते हैं?’
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरी श्रीमतीजी ने आगे से मुझे नीम-करेले का जूस न देने का फ़ैसला कर लिया है.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

आस्था की डुबकी या फिर बुद्धि-विवेक को डुबकी?

फ़िल्म ‘हम दोनों’ का एक नग्मा –
‘कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया’
मुझे याद आ रहा है.
विश्वव्यापी महामारी से जूझने की इस संकट की घड़ी में हमारे हुक्मरानों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि हमको उम्र भर रोने से यह ज़्यादा बेहतर लग रहा है कि हम एक ही झटके में बेवकूफ़ों-जाहिलों से भरी इस दुनिया से निजात पा जाएं.
हरद्वार में महा-कुम्भ का पर्व अपने शबाब पर है और दूसरी तरफ़ कोरोना संक्रमण रोज़ नई बुलंदियों के कीर्तिमान स्थापित कर रहा है.
22 मार्च, 2020 को जब भारत में पहला एक-दिवसीय लॉक डाउन लगाया गया था, तब से अगर आज के हालात का मुक़ाबला किया जाए तो इसकी भयावहता का आकलन करने में बड़े से बड़ा गणितज्ञ अथवा सांख्यिकी विशेषज्ञ अपने हाथ खड़े कर देगा.
हम ऐसी आपदा की घड़ी में महा-कुम्भ का आयोजन कर रहे हैं.
एक कहावत है –
‘जान है तो जहान है’
लेकिन यहाँ तो एक नई कहावत –
‘गधेपन में गधे को भी मात दे फिर भी मेरा भारत महान है’
गढ़ने की आवश्यकता पड़ रही है.
कोरोना-संक्रमण की निर्बाध गति को और उसको बेतहाशा फैलने से रोकने के उपायों को, हम पूर्ण तिलांजलि दे कर महा-कुम्भ का भव्य आयोजन कर रहे हैं.
अब तक के तीनों शाही स्नानों में डुबकी लगाने वालों की संख्या दस-दस लाख से कहीं ऊपर गयी है.
सरकार द्वारा प्रायोजित इस आत्मघाती समारोह के कारण कोरोना-संक्रमण किस भयावहता से देश में अपने पाँव पसारेगा, इसकी तो कल्पना करने का भी किसी का साहस नहीं होता.
पिछले साल दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में तब्लीगी जमात के सैकड़ों जाहिलों ने लॉक डाउन की सावधानियों की जिस तरह से धज्जियाँ उड़ाई थी, उसकी हर जागरूक व्यक्ति ने निंदा की थी और हमारी सरकार ने तथा हमारे मीडिया ने, तो इन्हें विश्व-इतिहास के सबसे बड़े खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया था.
जमाती मानते थे कि क़ुरान की आयतों का पाठ करने वालों को और पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ने वालों को, कोरोना छू भी नहीं सकता था.
ज़ाहिर है कि ऐसे जहालत भरे ख़यालात रखने वालों को सरकार का या मीडिया का या फिर समाज का साथ नहीं मिला.
अब एक साल बाद जब कि हालात पहले से सौ गुने से भी ज़्यादा बदतर हो गए हैं हम आस्था की डुबकी के नाम पर अपने विवेक और अपनी बुद्धि को डुबकी लगवा रहे हैं.
पहले हम त्रिपुरा के मुख्यमंत्री श्री बिप्लब देब के विप्लवकारी वक्तव्यों को सुन कर या उन्हें पढ़ कर, कभी-कभी अपना सर धुना करते थे.
लेकिन अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत ने अपने प्रलयंकारी और विस्फोटक उद्गारों से हमको नित्य ही अपना सर फोड़ने के लिए मजबूर किया है.
भारत पर 200 साल तक अमरीकियों से हुकूमत कराने वाले और मन्दिर बना कर मोदी जी की पूजा किए जाने की वक़ालत करने वाले, श्री रावत ने वैज्ञानिक शोध कर यह सिद्ध कर दिया है कि माँ गंगे में स्नान करने से कोरोना-संक्रमण फैलेगा नहीं, बल्कि रुकेगा.
श्री रावत ने हम सबको आगाह किया है कि हम तब्लीगी जमातियों की मूर्खताओं की महा-कुम्भ में आस्था की डुबकी लगाने वालों से तुलना करने की भूल न करें.
वैसे उनकी यह बात सही भी है.
भला संकट की घड़ी में सैकड़ों-हज़ारों जाहिलों के इकठ्ठा होने की तुलना हम आपदा-काल में लाखों-करोड़ों मूर्खों के एकत्र होने से कैसे कर सकते हैं?
डॉक्टर हर्षवर्धन के रूप में हमको एक बहुत ही योग्य और कर्मठ स्वास्थ्य-मंत्री मिला है.
लेकिन महा-कुम्भ के विषय में डॉक्टर हर्षवर्धन श्री रावत के और उनके ही जैसे मौलिक विद्वानों के, वक्तव्यों पर लगाम कस पाने में सर्वथा असमर्थ दिखाई दे रहे हैं.
वो मीडिया जो पिछले साल तब्लीगी जमातियों को दिन-रात कोस रहा था, वह महा-कुम्भ में स्वास्थ्य-संबंधी सावधानियों की नितांत उपेक्षा के अपराधों को बहुत कुछ अनदेखा कर रहा है.
अब यह तय हो गया है कि महा-कुम्भ के आयोजन की अवधि को किसी भी तरह घटाया नहीं जाएगा और न ही आस्था की डुबकी लगाने वालों पर भी कोई रोक लगाई जाएगी.
गंगा-स्नान के समय भक्त-गण न तो आपस में दो गज़ की दूरी बना कर रखते हैं और न ही मास्क लगाने की हिदायत का ध्यान रखते हैं.
आस्था की डुबकी के नाम पर महा-कुम्भ में हो रही इन असावधानियों की दुहाई देते हुए अब बहुत से जाहिल मुल्ला-मौलवी भी रमज़ान के महीने में मस्जिदों में बड़ी तादाद में इकठ्ठा होने की छूट दिए जाने की मांग कर रहे हैं.
हिन्दू आस्था के सामने नतमस्तक सरकार के पास मुल्ला-मौलवियों की इस नाजायज़ मांग को ठुकराने का कोई ठोस कारण नहीं है.
अगर सरकार ने हिदू कुओं में भांग डालने की अनुमति दी है तो फिर वह मुस्लिम कुओं में भांग डाले जाने पर कैसे रोक लगा सकती है?
कहते हैं कि गंगा मैया में हमारे पाप धोने की अद्भुत क्षमता है लेकिन यह तो निश्चित है कि उन में हमारे शासकों-प्रशासकों की मूर्खताओं को धोने की शक्ति नहीं है.
हाँ, कोई चमत्कार हो जाए और बुद्धि-विवेक की संस्थापना के लिए भगवान फिर अवतार लें तो हमारे बिगड़े हुए सारे काज फिर संवर सकते हैं.

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

सांच कहे तो मारन धावे

 

जहाँ भी तुम क़दम रख दो

वहीं पर राजधानी है

इशारों पर हिलाना दुम

ये पेशा खानदानी है

न ही इज्ज़त की है चिंता

न ही आँखों में पानी है

चरण-रज नित्य श्रद्धा से

हमें मस्तक लगानी है 

तुम्हें दिन में दिखें तारे

तो हाँ में हाँ मिलानी है

भले हो अक्ल घुटने में 

कहो जो बेद-बानी है

अगर कबिरा सा बोलें सांच

तो आफ़त बुलानी है

तुम्हारी हर जहालत पर

हमें ताली बजानी है


गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

स्वयं-मुग्धा नायिकाएं और ख़ुद पे फ़िदा नायकगण

यूं तो हमको टीवी पर, रेडियो पर और समाचार पत्रों में, सदा छाए रहने वाली एक विभूति की छत्रछाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त है लेकिन जब उनके अलावा हमको कुछ और हस्तियों को भी दिन-रात देखना-सुनना पड़ता है तो हम अपने इस सौभाग्य से परेशान हो कर इस दुनिया को छोड़ कर भाग जाना चाहते हैं.
फ़ेसबुक पर उन नायिकाओं और उन नायकों से भगवान बचाए जो कि रोज़ाना अपनी एक दर्जन तस्वीरें पोस्ट करती/करते हैं.
छब्बीस जनवरी को तिरंगा लहराते, हुए होली के अवसर पर अबीर-गुलाल से खेलते हुए, ईद पर गोल टोपी धारण किए हुए, रक्षा बंधन पर बहन से राखी बंधवाते हुए या फिर भाई को राखी बांधते हुए, जन्माष्टमी पर कान्हाजी की या फिर राधाजी की भी छवि को मात करते हुए और दीपावली पर फुलझड़ी या अनार जलाते हुए, इनको देखने के बाद, रही-सही कसर इनकी बर्थडे पार्टीज़ पर केक काटते हुए इनकी विभिन्न मुद्राओं वाली फ़ोटोज़ से पूरी हो जाती है.
वैसे इनके फ़ोटो-शूट में दो कमियां फिर भी रह जाती हैं – गुड फ्राइडे पर न तो क्रॉस पर इन्हें चढ़ा हुआ दिखाया जाता है और न ही शहीद दिवस पर इन्हें फांसी के फंदे पर लटका हुआ.
यह आत्म-मुग्धि की पराकाष्ठा दूसरों को कितना कष्ट देती है, इसकी थाह पाना इन मासूम घमंडिनों के और इन भोले-भाले घमंडियों के, बस में नहीं है.
अगर ये देश-विदेश कहीं घूमने जाते हैं तो हमको फ़ेसबुक पर इनकी पचासों तस्वीरें देखनी पड़ती हैं और उनको लाइक भी करना पड़ता है.
अगर ये ताजमहल के सामने खड़े होकर रणवीर कपूर के पोज़ में अपनी तस्वीर खिंचवाते हैं तो इनकी कोशिश रहती है कि ये ताजमहल के गुम्बद से भी बड़े नज़र आएं और अगर ऐसी कोई आत्म-मुग्धा नायिका आलिया भट्ट के स्टाइल में बुलंद दरवाज़े के सामने खड़ी हों तो उनकी कोशिश रहती है कि वो उस से भी ज़्यादा बुलंद नज़र आएं.
और तो और, अगर ऐसी हस्तियाँ किसी मन्दिर में जाती हैं तो ये अपने फ़ोटो-शूट में भगवान को भी ओवर-शैडो करना चाहती हैं.
अपनी शादी के तुरंत बाद का एक क़िस्सा मुझे याद आ रहा है –
हमारे एक बहुत क़रीबी अंकल-आंटी थे.
अंकल उत्तर प्रदेश सरकार में बाक़ायदा एक फ़न्ने खां ओहदे पर तैनात थे.
अंकल-आंटी की मुझ से जब भी मुलाक़ात होती थी तो वो दोनों अपनी लेटेस्ट फ़ोटोज़ सहित गतांक से आगे की आत्म-श्लाघा का कार्यक्रम प्रारंभ कर देते थे.
लेकिन इस बार शादी के बाद मैं अंकल-आंटी से पहली बार मिल रहा था इसलिए मुझे उम्मीद थी कि वो लोग ख़ुद से ज़्यादा तवज्जो नई बहूरानी को देंगे.
दो-चार औपचारिक हाय-हेलो और सवाल-जवाब के बाद अंकल-आंटी ने नई बहूरानी को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया और दोनों ही उस समारोह का विस्तार से ज़िक्र करने लगे जिसमें अंकल तो मुख्य-अतिथि थे और पुरस्कार वितरण का शुभ-कार्य आंटी ने किया था.
आधे घंटे तक हम मियां-बीबी को रनिंग कमेंट्री के साथ इस समारोह का फ़ोटो-एल्बम देखना पड़ा.
सबसे दुखदायी बात तो यह थी कि हम दोनों को इस फ़ोटो-शतक की झूठ-मूठ तारीफ़ भी करनी पड़ी थी.
अंकल-आंटी से नई बहूरानी को कोई मुंह-दिखाई तो नहीं मिली लेकिन हमारी तारीफ़ से ख़ुश होकर उन्होंने स्मृति-चिह्न के रूप में वह फ़ोटो-एल्बम हमको ज़रूर दे दिया.
मेरी श्रीमती जी तो अंकल-आंटी के फीके स्वागत-सत्कार से बहुत दुखी हो गयी थीं लेकिन मेरे पास इस दुखदायी मिलन को सुखदायी समाचार में तब्दील करने का फ़ॉर्मूला था.
मैंने घर जाकर उस शानदार फ़ोटो-एल्बम की सारी फ़ोटोज़ चिंदी-चिंदी कर के आग के हवाले कर दीं और फिर उस ख़ाली एल्बम में अपनी शादी के एल्बम से बची हुई फ़ोटोज़ लगा लीं.
हमारे बहुत से उदीयमान गायक-गायिकाओं को फ़ेसबुक पर अपने वीडियोज़ पोस्ट करने का शौक़ होता है.
आए दिन ऐसे ही वीडियोज़ में बहुत से स्व-घोषित मुहम्मद रफ़ी और स्व-घोषित किशोर कुमार संगीत की हत्या करते नज़र आते हैं.
ऐसा ही अत्याचार लता मंगेशकर, आशा भोंसले या श्रेया घोषाल के साथ भी होता है.
मुझे उच्चारण दोष होने पर भी और क़ाफ़-शीन दुरुस्त न होने पर भी दूसरों के कानों में मच्छरों की तरह भिनभिनाते हुए बेसुरे कलाकार बहुत दुखी करते हैं.
अल्मोड़ा में हमारी एक भाभी जी स्व-घोषित गीता दत्त थीं.
ये बात और थी कि जब वो –
‘वक़्त ने किया क्या हंसी सितम - - - - ’
नग्मा गाती थीं तो वो गाती हुई गीता दत्त कम और मिमियाती हुई बकरी ज़्यादा लगती थीं
ऐसे ही जब वो –
‘न जाओ सैयां छुड़ा के बैयाँ, क़सम तुम्हारी मैं रो पडूँगी’
गाती थीं तो उनकी मधुर तान सुन कर सोते हुए बच्चे जाग कर रोने लगते थे.
भाभी जी से जब भी और जहां भी हमारी मुलाक़ात होती थी तो उनका दीर्घ-गामी गायन हमको बर्दाश्त करना ही पड़ता था.
उन दिनों सी. डी. का नहीं, बल्कि कैसेट्स का ज़माना था.
भाभी जी ने अच्छे-खासे पैसे खर्च कर के अपने गानों के कई कैसेट्स तैयार करवाए थे.
हमारे मना करने पर भी उन्होंने हमको अपने गानों वाले चार कैसेट्स ज़बर्दस्ती भेंट किए थे.
मुझ पापी ने कैसेट्स की दुकान पर जा कर स्व-घोषित गीता दत्त भाभी जी के मधुर गीत इरेज़ करवा कर उसमें असली गीता दत्त के गाने भरवा लिए थे.
हम मधुबाला की ख़ूबसूरती के क़ायल हैं लेकिन मधुबाला की हम रोज़ाना सैकड़ों तस्वीर देखेंगे तो उन से उकता जाएंगे.
हम सब लता जी के कोयल जैसे स्वर के मुरीद हैं मगर एक दिन में लता जी को सुनने का भी हम सबका कोई न कोई मैक्सिमम कोटा तो होता ही होगा.
सयाने कह गए हैं – ‘अति सर्वत्र वर्जयेत !’
किन्तु हमारे ये फ़ेसबुक चैंपियंस इस उक्ति की नित्य धज्जियाँ उड़ाते हैं और अपनी नाना प्रकार की तस्वीरों से, अपने भांति-भांति के वीडियोज़ से, हमारा चैन-ओ-अमन, हमारा सब्र-ओ-क़रार, बेतक़ल्लुफ़ होकर, बेमुरव्वत होकर, लूटते रहते हैं.
इन फ़ेसबुक चैंपियंस को अगर हम अपनी मित्र सूची से हटाएँ तो हम पर आफ़त आ सकती है. इनको फॉलो न करें या इनकी तस्वीरों और इनके वीडियोज़ को अगर हम लाइक न करें तो इनके तक़ाज़े आने लगते हैं.
मजबूरन हमको इन्हें और इनके अत्याचारों को बर्दाश्त करना ही पड़ता है.
क्या कोई क़ानून का जानकार मुझे बता सकता है कि श्रोताओं पर हिचकोले खाती भैंसागाड़ी की – ‘चूं-चरर-मरर, चूं-चरर-मरर’ जैसी आवाज़ में ग़ज़ल, गीत या कविता थोपने के अपराधियों पर और अपनी पचासियों हास्यास्पद-ऊलजलूल तस्वीरों से, अपने दर्जनों उबाऊ वीडियोज़ से, अपने फ़ेसबुक मित्रों को स्थायी सर-दर्द देने वाले इन मुजरिमों पर भारतीय दंड संहिता की कौन-कौन सी धाराएं लगाई जा सकती हैं?

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

मूर्ख-दिवस की बधाई

 आजकल के बच्चों के पेट में मान्यवर की दाढ़ी से भी लम्बी दाढ़ी होती है.

पिछले छह दिनों से हमारी तीन वर्षीया नातिन इरा को 'अप्रैल फ़ूूल' बनाने का चस्का लगा हुआ है.
कभी वो अपने पापा को, तो कभी अपनी मम्मा को, तो कभी अपने भैया को अप्रैल फ़ूूल बना रही हैं. मूर्ख बनाने के बाद वो अपने शिकार को मूर्ख-दिवस की बधाई देना भी नहीं भूलतीं.
इसकी एक बानगी पेश है -
Ira - 'Look mummy ! there is a spider on your back.'
Mummy - 'O my God ! Where is it?'
Ira - 'Fooled you ! Fooled you !
Happy Foolantine Day Mummy !'

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

समुद्र-मंथन

1
समुद्र मंथन की कथा हमारी पौराणिक कथाओं में बहुत प्रसिद्ध है.
‘शठे शाठ्यम समाचरेत्’ अर्थात- ‘दुष्टों के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए’ का सन्देश देने वाली इस कथा का वर्णन अग्नि पुराण में किया गया है.
एक बार मेनका नामक अप्सरा ने महर्षि दुर्वासा को दिव्य सुगंध वाले कल्पक पुष्पों की माला भेंट की. महर्षि दुर्वासा जैसे सन्यासी के लिए इस माला की कोई उपयोगिता नहीं थी. उन्होंने वह माला देवराज इन्द्र को भेंट कर दी.
देवराज इन्द्र ने माला को स्वयम् धारण करने के स्थान पर वह अपने हाथी के मस्तक पर डाल दी.
इन्द्र के हाथी ने भी अपने स्वामी इन्द्र की ही भांति उस माला का तिरस्कार किया और उसे धरती पर पटक दिया.
दुर्वासा ने अपनी भेंट का इस प्रकार तिरस्कार होते हुए देखा तो उन्हें क्रोध आ गया.
उन्होंने देवराज इन्द्र को यह शाप दिया कि देवलोक का सारा यश और वैभव भी माला की तरह ही धूल-मिट्टी में मिल जाए.
इस शाप के प्रभाव से देवलोक का सारा वैभव और यश नष्ट होने लगा.
असुरों ने जब देवताओं की यह दशा देखी तो उन्होंने उसका लाभ उठाकर उन पर आक्रमण कर दिया.
अशक्त देवतागण असुरों का सामना नहीं कर सके.
असुरों के विरुद्ध सहायता माँगने के लिए देवतागण भगवान ब्रह्मा के पास गए किन्तु उनके पास इस समस्या का कोई निदान नहीं था इसलिए उन्होंने देवताओं को भगवान विष्णु से सहायता मांगने की सलाह दी.
भगवान विष्णु ने देवताओं को बताया कि वो अमृत पान करके फिर से शक्तिवान होकर असुरों को परास्त कर सकते थे और अमरत्व भी प्राप्त कर सकते थे. भगवान विष्णु ने देवताओं को अमृत प्राप्त करने का मार्ग भी सुझाया -
‘देवगण ! आप लोगों में स्वयम् अमृत प्राप्त करने की शक्ति नहीं है. अमृत प्राप्त करने के लिए आप को अपने परम्परागत शत्रु असुरों की सहायता लेनी पड़ेगी.’
भगवान विष्णु ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन का उपाय बताया था.
यह समुद्र मंथन कोई साधारण मंथन नहीं था, इसमें पहले क्षीर सागर में सृष्टि की समस्त औषधीय वनस्पतियां डाली जानी थीं फिर उसका देर तक मंथन किया जाना था.
इस दुर्गम प्रक्रिया के बाद ही अमृत प्राप्त होना था.
अमृत के लालच में असुरों ने देवताओं का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.
असुर दुष्ट और अत्याचारी थे. भगवान विष्णु नहीं चाहते थे कि वे अमृत पान करके शक्तिशाली और अमर हो जाएं. इसलिए उन्होंने ऐसी चाल चली कि अमृत प्राप्त करने में असुरों की शक्ति का उपयोग भी हो जाए पर उन्हें अमृत पान करने का अवसर नहीं मिल पाए.
देवताओं और असुरों ने मिलकर सृष्टि की सारी औषधीय वनस्पतियां क्षीर सागर में डाल दीं.
इसके बाद महामेरु पर्वत को मथनी बनाया गया और इस मथनी को चलाने के लिए वासुकि नाग को रस्सी के रूप में प्रयुक्त किया गया. मंथन के समय कहीं महामेरु पर्वत क्षीर सागर में डूब न जाए इसके लिए विष्णु ने स्वयं कच्छप का रूप धारण करके उसे अपनी पीठ पर टिका लिया.
अब वासुकि नाग को इस विशाल मथनी को चलाने के लिए प्रयुक्त किया गया पर यहाँ भी विष्णु ने अपनी चतुराई दिखाई. उन्होंने समुद्र मंथन में देवताओं को वासुकि नाग की दुम की ओर का भाग दिलाया और असुरों को उसके फन की ओर का भाग.
वासुकि की ज़हरीली फुफकारों के प्रभाव से असुर काले पड़ गए पर देवताओं पर इसका कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा.
2
समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए । ये रत्न थे -
1. कामधेनु
2. कमल लोचन वारुणि नामक कन्या
3. पारिजात (कल्पवृक्ष)
4. अप्सराएं
5. चन्द्रमा
6. कालकूट विष
7. पाँचजन्य (शंख)
8. कौस्तुभ मणि
9. धनवन्तरि
10. लक्ष्मी
11. उच्चैश्रवा नामक घोड़ा
12. ऐरावत नामक सफ़ेद हाथी
13. मदिरा
14. अमृत
समुद्र मंथन से निकले रत्नों के कारण अनेक समस्याएं खड़ी हो गईं. कालकूट विष के निकलते ही उसके विषैले धुएं और ज़हरीली लपटों से तीनों लोकों के नष्ट होने का संकट उठ खड़ा हुआ.
और कोई उपाय न देखकर भगवान ब्रह्मा ने भगवान शंकर की शरण ली.
उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की -
‘भगवन ! आप ही समस्त सृष्टि को कालकूट विष के प्रकोप से बचा सकते हैं.’
भगवान शिव ने कालकूट विष को पी तो लिया पर उन्होंने उसे अपने गले में ही रोक लिया.
विष के प्रभाव से भगवान शंकर का कण्ठ नीला पड़ गया जिसके कारण उनका एक नाम नीलकण्ठ भी हो गया.
विष की गरमी भगवान शंकर के मस्तक तक चढ़ गई थी जिसे शीतल करने के लिए उन्हें अपने मस्तक पर धारण करने के लिए चन्द्रमा प्रदान किया गया.
समुद्र मंथन से निकली और कमल पर विराजमान देवी लक्ष्मी विष्णु को प्राप्त हुईं.
असुरगण लक्ष्मी को स्वयम् प्राप्त करना चाहते थे.
विष्णु को लक्ष्मी का उपहार मिल जाने से असुर नाराज़ हो गए और वो अमृत कलश लेकर भाग खड़े हुए.
3
भगवान विष्णु ने असुरों से अमृत कलश प्राप्त करने के लिए एक अनोखा स्वांग रचा. उन्होंने मोहिनी का रूप धारण किया.
मोहिनी ने असुरों के लोक में जाकर उन पर अपने रूप का जादू चला दिया. सभी असुर मोहिनी से विवाह करना चाहते थे. वह उसके हाथों से अमृत पान करना चाहते थे.
मोहिनी ने असुरों से कहा-
‘मैं आप सबको अमृत पान कराऊँगी और आप में से एक असुर से विवाह भी करूंगी पर इसके लिए आप को मेरी एक शर्त माननी होगी.‘
असुरों मोहिनी से कहा -
‘सुन्दरी तुम जो भी कहोगी वह हम करेंगे. बोलो तुम्हारी क्या शर्त है?’
मोहिनी ने लुभावनी मुस्कान बिखेरते हुए कहा -
‘मैं आप सबको अमृत पान कराऊँगी पर इसके लिए आप सबको अपनी-अपनी आँखें बन्द करनी होंगी. आप में से जो असुर सबसे बाद में अपनी आँखें खोलेगा मैं उसी के हाथ से अमृत पान करूंगी और फिर उसी से विवाह कर लूंगी.’
मोहिनी को प्राप्त करने की होड़ में मूर्ख असुरों ने उसकी शर्त मान कर अपनी-अपनी आखें मूँद लीं. अमृत पान कराने के बहाने मोहिनी ने असुरों से अमृत कलश पहले ही प्राप्त कर लिया था अब उन सबकी मुंदी आँखों का लाभ उठाकर वह अमृत कलश लेकर चुपचाप देवलोक चली आई.
असुरों को जब मोहिनी की इस चाल का पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी. असुर मोहिनी का पीछा करते हुए देवलोक पहुंचे जहाँ सूर्य और चन्द्रमा स्वर्ग के द्वार की रक्षा कर रहे थे.
असुर स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाए पर उनमें से स्वरभानु नामक असुर भेष बदल कर चुपचाप देवलोक में प्रवेश कर गया. देवताओं में अमृत बाँटे जाते समय उसने भी अमृत पान कर लिया किन्तु उसको वहां सूर्य और चन्द्रमा ने पहचान लिया.
अमृत अभी स्वरभानु के गले तक ही पहुँचा था कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया.
अमृत पान करने के कारण स्वरभानु के सर से गले तक का हिस्सा (राहु) अमर हो गया पर उसका शेष शरीर (केतु) नष्ट हो गया.
राहु ने इस घटना के लिए सूर्य और चन्द्रमा को दोषी ठहराया.
उसने उनसे बदला लेने का निश्चय कर लिया.
तब से अवसर पाकर वह कभी सूर्य को तो कभी चन्द्रमा को निगल लेता है पर वह कुछ ही देर बाद ही उसके कटे हुए गले से बाहर निकल जाते हैं.
इस प्रकार की घटनाओं को हम सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण के रूप में जानते हैं.
अमृत पान करने के बाद देवता फिर से सशक्त हो गए और उन्हें अमरत्व भी प्राप्त हो गया. उन्होंने असुरों को युद्ध में पराजित किया.
अमृत पान करके देवतागण महर्षि दुर्वासा के शाप से मुक्त हो गए.
देवलोक और मृत्यु लोक में फिर से शान्ति हो गई और वहाँ सुख-समृद्धि की फिर से स्थापना हो गई.
समुद्र मथन से निकले चौदह रत्नों में से भगवान विष्णु को लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि और पाँचजन्य शंख प्राप्त हुए.
देवराज इन्द्र को उच्चैश्रवा नामक घोड़ा और ऐरावत हाथी प्राप्त हुए.
अप्सराओं को देव-लोक में अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए नियुक्त किया गया.
कामधेनु और पारिजात (कल्पवृक्ष) भी देवलोक को प्राप्त हुए.
भगवान धनवन्तरि भी देवताओं के हिस्से में आए. उनके आयुर्वेद शास्त्र का लाभ उठाकर देवता सदैव निरोगी और पुष्ट रहने लगे.
अमृत पान से देवताओं को अमरत्व प्राप्त हुआ.
कालकूट विष और चन्द्रमा भगवान शंकर के भाग में आए.
समुद्र मंथन से असुरों को कोई लाभ नहीं हुआ.
स्वयं मूर्ख बनकर उन्होंने देवताओं को अमृत प्राप्त करने में सहायता दी.
असुरों को मिली तो केवल मदिरा मिली. इस मदिरा को निरंतर पीते रहने से उनका रहा-सहा विवेक भी जाता रहा. देवलोक जीतने का उनका स्वप्न सदा के लिए धूल में मिल गया.
भगवान विष्णु ने साम-दाम-दण्ड-भेद से देवताओं को महर्षि दुर्वासा के श्राप से मुक्त करवाया.
उनके इस कार्य को किसी भी प्रकार अनुचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इसका परिणाम बड़ा सुखद रहा.
इससे धर्म की फिर से स्थापना हुई और पाप का तथा पापियों का नाश हुआ.

मेरा अपना निष्कर्ष :
इस कहानी में सिंहासनारूढ़ विष्णु भगवान को समुद्र-मंथन से निकली अधिकांश मलाई मिल जाती है.
शास्त्रोंं-पुराणों के अनुसार धर्म की स्थापना तभी होती है जब बिना हाथ-पैर हिलाए साहब को और उनके खासमखास लोगों को, सारी की सारी मलाई मिलती है और प्रजा को जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद छाछ भी नहीं मिलता हैे.