गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

आस्था की डुबकी या फिर बुद्धि-विवेक को डुबकी?

फ़िल्म ‘हम दोनों’ का एक नग्मा –
‘कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया’
मुझे याद आ रहा है.
विश्वव्यापी महामारी से जूझने की इस संकट की घड़ी में हमारे हुक्मरानों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि हमको उम्र भर रोने से यह ज़्यादा बेहतर लग रहा है कि हम एक ही झटके में बेवकूफ़ों-जाहिलों से भरी इस दुनिया से निजात पा जाएं.
हरद्वार में महा-कुम्भ का पर्व अपने शबाब पर है और दूसरी तरफ़ कोरोना संक्रमण रोज़ नई बुलंदियों के कीर्तिमान स्थापित कर रहा है.
22 मार्च, 2020 को जब भारत में पहला एक-दिवसीय लॉक डाउन लगाया गया था, तब से अगर आज के हालात का मुक़ाबला किया जाए तो इसकी भयावहता का आकलन करने में बड़े से बड़ा गणितज्ञ अथवा सांख्यिकी विशेषज्ञ अपने हाथ खड़े कर देगा.
हम ऐसी आपदा की घड़ी में महा-कुम्भ का आयोजन कर रहे हैं.
एक कहावत है –
‘जान है तो जहान है’
लेकिन यहाँ तो एक नई कहावत –
‘गधेपन में गधे को भी मात दे फिर भी मेरा भारत महान है’
गढ़ने की आवश्यकता पड़ रही है.
कोरोना-संक्रमण की निर्बाध गति को और उसको बेतहाशा फैलने से रोकने के उपायों को, हम पूर्ण तिलांजलि दे कर महा-कुम्भ का भव्य आयोजन कर रहे हैं.
अब तक के तीनों शाही स्नानों में डुबकी लगाने वालों की संख्या दस-दस लाख से कहीं ऊपर गयी है.
सरकार द्वारा प्रायोजित इस आत्मघाती समारोह के कारण कोरोना-संक्रमण किस भयावहता से देश में अपने पाँव पसारेगा, इसकी तो कल्पना करने का भी किसी का साहस नहीं होता.
पिछले साल दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में तब्लीगी जमात के सैकड़ों जाहिलों ने लॉक डाउन की सावधानियों की जिस तरह से धज्जियाँ उड़ाई थी, उसकी हर जागरूक व्यक्ति ने निंदा की थी और हमारी सरकार ने तथा हमारे मीडिया ने, तो इन्हें विश्व-इतिहास के सबसे बड़े खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया था.
जमाती मानते थे कि क़ुरान की आयतों का पाठ करने वालों को और पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ने वालों को, कोरोना छू भी नहीं सकता था.
ज़ाहिर है कि ऐसे जहालत भरे ख़यालात रखने वालों को सरकार का या मीडिया का या फिर समाज का साथ नहीं मिला.
अब एक साल बाद जब कि हालात पहले से सौ गुने से भी ज़्यादा बदतर हो गए हैं हम आस्था की डुबकी के नाम पर अपने विवेक और अपनी बुद्धि को डुबकी लगवा रहे हैं.
पहले हम त्रिपुरा के मुख्यमंत्री श्री बिप्लब देब के विप्लवकारी वक्तव्यों को सुन कर या उन्हें पढ़ कर, कभी-कभी अपना सर धुना करते थे.
लेकिन अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत ने अपने प्रलयंकारी और विस्फोटक उद्गारों से हमको नित्य ही अपना सर फोड़ने के लिए मजबूर किया है.
भारत पर 200 साल तक अमरीकियों से हुकूमत कराने वाले और मन्दिर बना कर मोदी जी की पूजा किए जाने की वक़ालत करने वाले, श्री रावत ने वैज्ञानिक शोध कर यह सिद्ध कर दिया है कि माँ गंगे में स्नान करने से कोरोना-संक्रमण फैलेगा नहीं, बल्कि रुकेगा.
श्री रावत ने हम सबको आगाह किया है कि हम तब्लीगी जमातियों की मूर्खताओं की महा-कुम्भ में आस्था की डुबकी लगाने वालों से तुलना करने की भूल न करें.
वैसे उनकी यह बात सही भी है.
भला संकट की घड़ी में सैकड़ों-हज़ारों जाहिलों के इकठ्ठा होने की तुलना हम आपदा-काल में लाखों-करोड़ों मूर्खों के एकत्र होने से कैसे कर सकते हैं?
डॉक्टर हर्षवर्धन के रूप में हमको एक बहुत ही योग्य और कर्मठ स्वास्थ्य-मंत्री मिला है.
लेकिन महा-कुम्भ के विषय में डॉक्टर हर्षवर्धन श्री रावत के और उनके ही जैसे मौलिक विद्वानों के, वक्तव्यों पर लगाम कस पाने में सर्वथा असमर्थ दिखाई दे रहे हैं.
वो मीडिया जो पिछले साल तब्लीगी जमातियों को दिन-रात कोस रहा था, वह महा-कुम्भ में स्वास्थ्य-संबंधी सावधानियों की नितांत उपेक्षा के अपराधों को बहुत कुछ अनदेखा कर रहा है.
अब यह तय हो गया है कि महा-कुम्भ के आयोजन की अवधि को किसी भी तरह घटाया नहीं जाएगा और न ही आस्था की डुबकी लगाने वालों पर भी कोई रोक लगाई जाएगी.
गंगा-स्नान के समय भक्त-गण न तो आपस में दो गज़ की दूरी बना कर रखते हैं और न ही मास्क लगाने की हिदायत का ध्यान रखते हैं.
आस्था की डुबकी के नाम पर महा-कुम्भ में हो रही इन असावधानियों की दुहाई देते हुए अब बहुत से जाहिल मुल्ला-मौलवी भी रमज़ान के महीने में मस्जिदों में बड़ी तादाद में इकठ्ठा होने की छूट दिए जाने की मांग कर रहे हैं.
हिन्दू आस्था के सामने नतमस्तक सरकार के पास मुल्ला-मौलवियों की इस नाजायज़ मांग को ठुकराने का कोई ठोस कारण नहीं है.
अगर सरकार ने हिदू कुओं में भांग डालने की अनुमति दी है तो फिर वह मुस्लिम कुओं में भांग डाले जाने पर कैसे रोक लगा सकती है?
कहते हैं कि गंगा मैया में हमारे पाप धोने की अद्भुत क्षमता है लेकिन यह तो निश्चित है कि उन में हमारे शासकों-प्रशासकों की मूर्खताओं को धोने की शक्ति नहीं है.
हाँ, कोई चमत्कार हो जाए और बुद्धि-विवेक की संस्थापना के लिए भगवान फिर अवतार लें तो हमारे बिगड़े हुए सारे काज फिर संवर सकते हैं.

24 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १६ अप्रैल २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. मेरे आलेख को 'पांच लिंकों का आनंद' के दिनांक 16 अप्रैल, 2021 के अंक में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद श्वेता !

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  2. अभी तो बुद्धि विवेक को ही दुबकी हो रही .... पागलपन की हद है ... सटीक लेख .

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    1. मेरे विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद संगीता स्वरुप (गीत) जी.

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१७-०४-२०२१) को 'ज़िंदगी के मायने और है'(चर्चा अंक- ३९४०) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।

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    1. 'ज़िंदगी के मायने और हैं' (चर्चा अंक - 3940) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता !

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  4. बहुत सुन्दर और सार्थक ।
    --
    ऐसे लेखन से क्या लाभ? जिस पर टिप्पणियाँ न आये।
    ब्लॉग लेखन के साथ दूसरे लोंगों के ब्लॉगों पर भी टिप्पणी कीजिए।
    तभी तो आपकी पोस्ट पर भी लोग आयेंगे।

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    1. आप सही कह रहे हैं डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ! मेरा बेकार का आलस मुझे एकाकी बना कर छोड़ेगा. मैं कोशिश करूंगा कि दूसरे लोगों के ब्लॉग पर भी नियमित रूप से जाऊं.

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  5. बहुत सुन्दर व साहसिक उसके उपरांत साहित्यिक रचना, हिप हिप हुर्रे।☺️☺️☺️☺️

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    1. आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद विमल कुमार शुक्ल 'विमल' जी.

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  6. बहुत ही सारगर्भित और यथार्थपूर्ण लेखन,समसामयिक भी । आपको सादर शुभकामनाएं।

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    1. आलेख की प्रशसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
      हमको अपने आसपास हो रही असावधानियों, मूर्खताओं और हिमाक़तों को कभी भी नतमस्तक होकर सहन नहीं करना चाहिए. और अगर सरकार ख़ुद इन बेवकूफ़ियों और गुस्ताखियों में हिस्सेदार हो तो उसकी आलोचना करने में भी हमको संकोच नहीं करना चाहिए.

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  7. आदरणीय गोपेश जी, बहुत ही प्रासंगिक है ये लेख और विचारणीय भी। इस आस्था की डुबकी से क्या लाभ जो अन गिन लोगों के प्राणों पर संकट ले आये। और मीडिया की निष्क्रिय भूमिका प्रश्नों के घेरे में है। इस विषय पर सही रिपोर्टिंग और लोगों को जागरूक करने का दायित्व मीडिया का है। सरकार को भी दूरगामी परिणामों का अवलोकन और विश्लेषण करने के बाद कुंभ पर आंशिक कम से कम आम जनता के लिए रोक लगाई जानी चाहिए थी। हाँ , संत महात्मा लगाते रहते डुबकी और करते रहते शाही स्नान। कोरोना का लौट अना दुनिया और भारत जैसे जनसंख्या बहुल देश के लिए बहुत भयावह भविष्य का संकेत दे रहा है। आपकी चिंता जायज है।
    समसामयिक वस्तुस्थिति का अवलोकन करते लेख के लिए बस आभार बहुत छोटा शब्द है। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके लिए🙏🙏 💐💐

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    1. आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद रेणुबाला जी !
      डब्लूएचओ का अनुमान है कि सारी दुनिया में कोरोना संक्रमण के वास्तविक आंकड़ों में और सरकारी आंकड़ों में, दस और एक का अनुपात है. और हम हैं कि चुनावों में या फिर धार्मिक आयोजनों में सावधानी की चहुँ-ओर धज्जियाँ उड़ाते फिर रहे हैं.

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  8. सचमुच चिंता का विषय है यह। साधु संन्यासी तो कुंभ नहाकर अपने डेरों में चले जाएँगे पर सामान्य जन को तो जनसमूह में, समाज में लौटना है। लोगों में जागरूकता तथा स्व अनुशासन की कमी है जिसका नतीजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ रहा है। बीमारी को हल्के में ले रहे हैं लोग।

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    1. मीना जी, कोरोना-संक्रमण रोकने के लिए अपनाई गयी सभी सावधानियों-हिदायतों की धज्जियाँ उड़ाने वाले इन मुफ़्तखोर साधु-सन्यासियों को और उनकी चरण-रज पखारने वाले सरकारी महकमे को, चोर-डाकुओं के लिए निश्चित की गयी सजाएं देनी चाहिए.

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  9. , कोई चमत्कार हो जाए और बुद्धि-विवेक की संस्थापना के लिए भगवान फिर अवतार लें तो हमारे बिगड़े हुए सारे काज फिर संवर सकते हैं.....आमीन🙏

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    1. उषा किरण जी, काश कि हमारी-आपकी -
      'सबको सन्मति दे भगवान !'
      वाली दुआ क़ुबूल हो !

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  10. सटीक और चिंतनपरक आलेख नीतियों और अनीतियों के बीच जकड़ा जीवन मुक्ति के लिए छटपटा रहा है।महामारी के इस दौर में भी चुनावी रैलियों कुंभ आयोजन ने समाज को मौत की ओर ढकेल दिया है।

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    1. अभिलाषा जी, लगता है कि ये मूर्ख पाप तारिणी गंगा मैया को 'संहारिणी' में बदल कर ही दम लेंगे.

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  11. इसी अनदेखी की सजा आज पूरे देश को भुगतनी पड़ रही है।पूरे परिवार को लेकर भीषण महामारी में यह डुबकी कौन सा पुण्य देगी भगवान जाने..? बहुत सार्थक और चिंतनपरक आलेख आदरणीय

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    1. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी.
      दुःख की बात यह है कि मेरी यह बात केवल आप जैसे जागरूक लोगों तक पहुँच रही है.

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  12. आदरणीय सर एक बहुत सशक्त और सामयिक लेख के लिए हार्दिक आभार । सच, ये हम भारतवासियों का दुर्भाग्य और अविवेक ही है की हम धर्म के नाम पर अपने परिवार और देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं । सरकार भी ऐसे निर्णय अपने स्वार्थी और सियासी मकसदों से लेती है। वास्तव में भारत की जनता को ही इतनी बुद्धिमानी दिखानी चाहिए कि वे समझे की क्या चीज हमारे देश के लिए लाभकारी है और क्या हानिकारक । अभी हमारा सब से बड़ा धर्म अपने घर में रहकर समजीक दूरी का पालन करने में और जरूरतमंदों की सहायता करने में है । अभी इससे बढ़ कर और कोई पुण्य नहीं है, कुच्छ और करने जाएंगे तो लफड़ा ही करेंगे । हार्दिक आभार इस सार्थक लेख के लिए

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    1. आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनंता.
      दुखियारी प्रजा के पास राजा चुनने के विकल्प के नाम पर है ही क्या?
      छलिया जाएगा तो ठगिया आएगा.
      पहले ने भून कर खाया था, दूसरा कच्चा खाएगा.

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