शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

स्वराज्य का मंत्रदाता

स्वराज्य का मन्त्रदाता
शिवाजी के बचपन की लीलास्थली और पेशवा बाजीराव प्रथम की कर्मस्थली पूना में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना का सपना संजोया जा रहा था.
शिवाजी के स्वप्न को अखिल भारतीय स्तर पर साकार करने का बीड़ा उठाने वाला पेशवाओं का वंशज, स्वराज्य की हुंकार भरने वाला देशभक्त था- हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का पहला जन-नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक.
इस बालक को पेशवा बालाजी विश्वनाथ की बुद्धिमत्ता और पेशवा बाजीराव प्रथम का साहस विरासत में प्राप्त हुए थे.
साधारण आर्थिक स्थिति के परिवार में जन्मे इस बालक में बचपन से ही देश के उत्थान की उत्कट कामना थी.
जिस आयु में बच्चों को परियों की कहानियां सुनना और लुका-छिपी के खेल अच्छे लगते हैं और तरह-तरह की शरारतों व धमा-चौकड़ी करने में ही उनका दिन बीतता है, उस आयु में बाल गंगाधर तिलक देश को आज़ाद कराने की चिन्ता में लीन रहता था.
भारत को ग़ुलामी की बेडि़यों में जकड़े देख कर उसको चैन से नींद नहीं आती थी.
बालक गंगाधर कहता था -
‘मैं बड़ा होकर शिवाजी के सपने को साकार करूंगा.
स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.
अंग्रेज़ों ने हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी, हमारी आपसी फूट का लाभ उठा कर हमको गुलाम बना लिया है.
हम भारतीय एक हो कर उनकी इस चाल को नाकाम कर देंगे और भारत में स्वराज्य स्थापित कर देंगे.‘
अपने विद्यार्थी जीवन के साथी दस्तूर, आगरकर और चन्द्रावरकर के साथ बाल गंगाधर तिलक ने देश-सेवा और शिक्षा प्रसार का स्वप्न देखा था.
युवक तिलक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अतीत का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारतीय जागृति के लिए पश्चिम के मार्ग-दर्शन पर आश्रित होना या योरोपीय पुनर्जागरण का अंधानुकरण करना बिलकुल भी आवश्यक नहीं है. उनका विचार था -
‘भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्पराओं का निर्वाह करने वाले और विवेक व नीति की कसौटी पर खरे उतरे मूल्यों की पुनर्स्थापना से ही भारत का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है.‘
युवक तिलक ने ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया था कि आर्य सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता थी पर सदियों की कूपमण्डकता, हठवादिता, आपसी कलह, आलस्य, स्वार्थपरता और कायरता ने भारतीय अवनति के अनगिनत द्वार खोल दिए थे.
युवक तिलक को तब बहुत कष्ट होता था जब पाश्चात्य सभ्यता की श्रेष्ठता का दावा करने वाले अंग्रेज़ भारतीयों को सभ्य बनाने का बीड़ा उठाने की बात करते थे.
तिलक जानते थे कि सशस्त्र क्रांति के माध्यम से अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ना असंम्भव था इसलिए यह आवश्यक था कि अंग्रेज़ी शासन में रहते हुए ही भारतीय अपने सर्वतोमुखी उत्थान का प्रयास करें और अंग्रेज़ों को यह दिखा दें कि उनकी मदद के बिना ही भारतीय अपना कल्याण कर सकते हैं.
उन्होंने अंग्रेज़ों को सुधार के बहाने भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक मामलों में टांग अड़ाने से बड़ी सख्ती से मना किया.
उन्होंने कहा था -
‘किसी विदेशी सरकार को हमारे घरेलू मामलों में, हमारी सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं में सुधार के नाम पर अपनी टांग अड़ाने की आवश्यकता नहीं है.
हममें अपनी सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों को दूर करने की पूरी क्षमता है.‘
तिलक का स्वाभिमान और उनका देशप्रेम उन्हें प्रेरित कर रहा था कि वे भारतीयों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जागृति लाने के लिए पत्रकारिता का आश्रय लें.
अपने साथी श्री आगरकर और श्री चिपलूणकर के साथ उन्होंने सन् 1881 में दो पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया. ये पत्र थे मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेज़ी में ‘दि मराठा’.
इन पत्रों ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में निर्भीक और प्रतिबद्ध पत्रकारिता के नए मापदण्ड स्थापित किए.
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से ही उससे जुड़ गए परन्तु उन्हें राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के लिए अंग्रेज़ों से याचना करने की नरम-पंथी कांग्रेसी नीति स्वीकार्य नहीं थी. उन्होंने अपने अधिकारों को लड़ कर प्राप्त करने का सुझाव दिया.
‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणेश उत्सव’ के माध्यम से उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया.
लोकमान्य ने लार्ड कर्ज़न के दमनकारी शासन (1899-1905) का खुल कर विरोध किया.
लोकमान्य भारत की आर्थिक अवनति को देखकर बहुत दुखी होते थे.
उन्होंने भारतीयों की इसी आलसी प्रवृत्ति के लिए उन्हें फटकारते हुए कहा था -
‘हमारे आलस की अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम विलायत को गोबर का निर्यात करेंगे और वहां से बने हुए उपलों का आयात कर के अपने घरों के चूल्हे सुलगाएंगे.‘
लोकमान्य की हुंकार थी -
स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम उसे लेकर रहेंगे‘
यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि लोकमान्य की दृष्टि में - स्वराज्य-प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल राजनीतिक स्वराज्य ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वराज्य आर्थिक स्वराज्य और शैक्षिक स्वराज्य भी आवश्यक था.
ब्रिटिश सरकार महाराष्ट्र के इस शेर को पिंजड़े में कैद करने का बहाना ढूंढ़ रही थी जो कि उसे सन् 1897 में मिल गया.
महाराष्ट्र में व्यापक रूप से फैली प्लेग के निवारण के लिए प्लेग कमिश्नर रैण्ड प्लेग से ग्रस्त घरों और गाँवों को जला रहा था. ‘केसरी’ ने रैण्ड के अत्याचारों की कटु आलोचना की थी.
रैण्ड के अत्याचारों से क्षुब्ध चापेकर बंधुओं ने उसकी हत्या कर दी.
लोकमान्य को हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का दोषी माना गया और देश के इस पूज्य नेता को सश्रम कारावास दिया गया.
लार्ड कर्ज़न के अत्याचारी शासन के विरुद्ध भारत भर में आन्दोलन करने वाले लोकमान्य ने बंगाल विभाजन के विरोध में सन् 1905 में स्वदेशी आन्दोलन नेतृत्व किया था.
अब देश स्वराज्य की माँग कर रहा था.
अंग्रेज़ सरकार अपने सबसे बड़े शत्रु को फिर से जेल में भेजने का बहाना ढूंढ़ रही थी.
सूरत में सन् 1907 में कांग्रेस की फूट का लाभ उठा कर अंग्रेज़ों ने गरम दल के नेताओं के दमन का षडयन्त्र रचा.
एक बार फिर लोकमान्य पर हिंसा भड़काने वाले लेख लिखने का आरोप सिद्ध किया गया.
इस बार उन्हें छह साल का कठोर कारावास देकर भारत से बाहर माण्डले (बर्मा) भेज दिया गया.
जेल में रह कर लोकमान्य ने ‘गीता रहस्य’ की रचना कर अन्याय का प्रतिकार करने का सन्देश दिया.
लोकमान्य जब माण्डले जेल के लिए भारत छोड़ रहे थे तो अपनी पत्नी सुश्री सत्यभामा से उन्होंने अपने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के प्रकाशन को जारी रखने के विषय में चिन्ता व्यक्त की थी। श्रीमती सत्यभामा ने उनसे कहा था -
‘आप देशसेवा के लिए इतना कठोर दण्ड उठाने जा रहे हैं.
इन पत्रों के प्रकाशन की चिन्ता आप मुझ पर छोड़ दीजिए.
आप निश्चिन्त होकर माण्डले जाइए.‘
सन् 1914 में लोकमान्य को जब मुक्त किया गया. तब तक सत्यभामा जी की मृत्यु हो चुकी थी.
घर आ कर लोकमान्य ने देखा कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ पहले की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं.
लोकमान्य को पता चला कि श्रीमती सत्यभामा ने अपने ज़ेवर बेच-बेच कर उनके प्रिय पत्रों का नियमित प्रकाशन करवाया था.
लोकमान्य ने श्रीमती सत्यभामा के विषय में कहा था –
‘जिस देश की माताएं, बहनें, पुत्रियाँ और पत्नियाँ देश-सेवा के लिए ऐसा त्याग करने को तत्पर रहेंगी वह देश बहुत दिनों तक परतंत्र नहीं रह सकता.’
लोकमान्य के जीवन के अंतिम वर्ष होमरूल आन्दोलन को व्यापक बनाने में व्यतीत हुए.
उन्होंने श्रीमती एनीबीसेन्ट के साथ मिलकर इस आन्दोलन का नेतृत्व किया.
लोकमान्य के परम अनुयायी और उर्दू के मशहूर शायर पंडित ब्रज नारायण चकबस्त ने होम-रूल की मांग पर कहा है -
तलब फि़ज़ूल है, काँटो की फूल के बदले,
न लें बहिश्त भी हम होमरूल के बदले.‘
( जिस तरह फूल के स्थान पर काँटे नहीं लिए जा सकते, उसी तरह होमरूल के बदले में स्वर्ग भी नहीं लिया जा सकता.)
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लोकमान्य ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए विशेष प्रयास किए.
1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौते में उनका विशेष योगदान था.
सन् 1917 में सरकार को भी ‘मान्टेग्यू घोषणा’ के अन्तर्गत स्वशासन की भारतीय माँग को सैद्धातिक रूप से स्वीकार कर लिया गया.
लोकमान्य की यह महान राजनीतिक सफलता थी.
1917 के चंपारन आन्दोलन से देश के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व अब गांधीजी के कुशल हाथों में आ चुका था.
बूढ़ा शेर थक चुका था. वह अब सदा-सदा के लिए सोना चाहता था.
असहयोग आन्दोलन के शंखनाद के साथ ही 1 अगस्त, सन् 1920 में स्वराज्य के इस मन्त्रदाता ने आंखें मूंद लीं.
बिलखते हुए देशवासियों से जाते हुए वह मानो कह रहा था-
‘स्वराज्य की ज्योति को सदैव जलाए रखना.‘

21 टिप्‍पणियां:

  1. 'खुशनुमा ख्वाहिश हूँ मैं' (चर्चा अंक - 4135) में मेरा आलेख सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.

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  2. आभारी हूँ सर,ज्ञानवर्धक लेख के लिए।
    प्रणाम सर
    सादर।

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    1. धन्यवाद श्वेता !
      इतिहास के एक विद्यार्थी के रूप में मैं अपना यह कर्तव्य समझता हूँ कि भारत के इतिहास को गौरवशाली मोड़ देने वाले सपूतों को मैं न सिर्फ़ स्वयं याद करूं, बल्कि दूसरों को ही उन्हें भूलने न दूं.

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  3. आदरणीय सर, नमस्कार!
    देश के तमाम वीर सेनानियों के बारे में नई पीढ़ी बिलकुल जानती ही नहीं,ऐसे समय में आपका ये आलेख बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है, ज्यादा नहीं तो कुछ जी लोग इस बात को समझेंगे कि हमारे देश में कैसे कैसे महान जननायक हुए । सत्यभामा जी के बारे में पढ़कर गर्व की अनुभूति हुई, कि सदी पहले हमारे देश की नारियां कितने महान कार्य कर चुकी हैं,बालगंगाधर तिलक जी और सत्यभामा जी को मेरा सादर नाम 🙏🙏 💐💐

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    1. जिज्ञासा, देश को सपूतों को और देश की त्यागमयी सुपुत्रियों को, किसी भी देशवासी को कभी भूलना नहीं चाहिए लेकिन हम न सिर्फ़ उन्हें भुला बैठे हैं, बल्कि इतिहास के पन्नों में उनका नाम भी हटाने पर तुले हुए हैं. कल लोकमान्य की जयंती पर फ़ेसबुक पर, अखबारों में और टीवी-रेडियो पर, उन्हें कितनों ने श्रद्धांजलि दी?
      हमारे नेतागण तो उनका नाम सुन कर पूछ रहे होंगे - 'कौन लोकमान्य?'

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    2. क्या मैम आप भी, युवा पीढ़ी को पता तब होगा जब जानना चाहेगी! युवा पीढ़ी तो सिर्फ वही पढ़ती है जिससे उन्हें नौकरी मिलने वाली होती है! मैं ये बात पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ क्योंकि मैं एक युवा हूँ मैंने देखा लोगों को ऐसे लेख को अनदेखा करते हुए! कल कुछ ही लोग थे जिन्होंने तिलक जी और चन्द्रशेखर आजाद को याद किया! पहले लोग स्टेट्स भी डालते थे पर अब इतना भी नहीं करते!

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    3. मनीषा, हम बुजुर्गों को युवा पीढ़ी से बहुत आशाएं हैं. यह मानना कि हम बुज़ुर्ग सन्मार्ग पर चलते थे और आज की युवा पीढ़ी पथ-भ्रष्ट है, बिलकुल ग़लत है.
      अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करने में कोई खराबी नहीं है लेकिन उसके साथ-साथ अपने गौरवशाली अतीत से जुड़ा रहना भी ज़रूरी है.

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  4. लोकमान्य तिलक के बारे में सविस्तर जानकारी शेयर करने के लिए धन्यवाद, गोपेश भाई।

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    1. धन्यवाद ज्योति ! कोशिश करूंगा कि भारत की चंद अन्य महान विभूतियों पर भी इसी प्रकार श्रद्धा-सूमन अर्पित कर सकूं.

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  5. अग्निपथिकों का इतिहास बड़ी सुंदरता से आपने उजागर किया है - - नमन सह।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.
      देश के इन महान सपूतों को याद करना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए.

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  6. अंग्रेज़ों ने हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी, हमारी आपसी फूट का लाभ उठा कर हमको गुलाम बना लिया है.

    अफ़सोस फिर से यही हो रहा है बस फर्क इतना है कि तब अंग्रेजी हुकूमत ऐसा कर रही थी और अब हमारे राजनेता कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर फूट डाल कर घटिया राजनीति करतें हैं!ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज की युवा पीढ़ी धर्म,जाति की राजनीति को बड़वा देती है!
    एक तिलक जी थे जिन्होंने पत्रकारिता को अपना हथियार बनाया था और वर्तमान के पत्रकार चाटूकारिता कर रहें हैं!
    और युवा पीढ़ी की क्या बात करे वो तो बस नौकरी के लिए पागल हो रही है उसे न्याय, अन्याय कोई मतलब ही नहीं है! आज की युवा पीढ़ी पढ़ाई भी करती है तो सिर्फ नौकरी के लिए! जिस चीज़ से उन्हें नौकरी मिलने वाली होती है उसे ही पढ़ना पंसद करती कुछ को छोड़ दे तो!
    बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए आपका तहेदिल से धन्यवाद सर 🙏

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    1. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मनीषा !
      आज के राजनेताओं की प्रशंसा में कुछ भी लिखना तो चारण-भाट और भाड़े के टट्टू ही कर सकते हैं.
      लोकमान्य का ज़माना प्रतिबद्ध पत्रकारिता का ज़माना था, हालांकि तब भी ईमान बेचने वाले पत्रकारों की कमी नहीं थी.
      तुम आज की युवा पीढ़ी के बारे में इतनी बुरी राय मत रखो. देश का भला करने की उम्मीद इन्हीं से रखी जा सकती है. हाँ, इसके लिए इन्हें देश-रूपी तालाब से गंदी मछलियाँ निकाल-फेंकने में हिम्मत जुटानी होगी.

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    2. सर ये राय नहीं बल्कि हकीकत है पर हाँ सभी नहीं है कुछ है जो देश को अपने स्वार्थ से ऊपर रखते हैं! जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक उसी तरह युवा पीढ़ी के भी दो पहलू हैं!

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  7. ज्ञानवर्धक लेख आदरणीय।

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  8. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद !

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  9. बेहद प्रभावशाली सृजन सर! इस तरह के लेख और भी निकलेंगे आपकी स्मृतियों के पिटारे से.., प्रतीक्षा रहेगी । बहुत समय के बाद ऐसा लेख पढ़ा ।

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    1. तारीफ़ के लिए शुक्रिया मीना जी.
      देश की कुछ महान विभूतियों को मैंने अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित अवश्य किए हैं.
      समय-समय पर उन पर लिखे आलेख आप सब के साथ साझा करता रहूँगा.

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