सोमवार, 31 जुलाई 2017

कलम का सिपाही

कलम का सिपाही –
कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की जयन्ती हर साल 31 जुलाई को मनाए जाती है. इस दिन उनकी जन्मभूमि लमही में उनके टूटे-फूटे स्मारक में एक समारोह हो जाता है और कई जगह उनके पुराने चित्रों को झाड-पोंछकर उन पर मालाएं चढ़ा दी जाती हैं. छात्र-छात्राओं को प्रेमचंद पर भाषण प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर दिया जाता है और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकार व साहित्यिक अभिरुचि का दावा करनेवाले राजनीतिज्ञ उन्हें उपन्यास सम्राट तथा कहानी सम्राट का तमगा पहना देते हैं.
प्रेमचंद के देहावसान को इक्यासी वर्ष बीत चुके हैं पर आज भी उनके उपन्यासों और कहानियों के पात्र जीवंत प्रतीत होते हैं. अगर हमको उनकी रचनाओं में से केवल एक पात्र चुनना हो तो हम निश्चित ही ‘गोदान’ के होरी को चुनेंगे. किसान से खेतिहर मजदूर बना अशिक्षित और दुनियादारी से सर्वथा वंचित होरी आज भी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद क़र्ज़ के बोझ तले दबा हुआ है. खेतिहर मजदूर होने की वजह से किसी भी विपदा में उसे सौ-दो सौ के चेक के रूप में कोई सरकारी मदद भी नहीं मिल सकती. उसकी घरवाली धनिया, उसकी बेटियां रूपा और सोना, भगवान न करे, अगर सुन्दर हुईं तो ज़रूर कोई न कोई महाजन या किसी ज़मींदार का वंशज उन पर घात लगाये बैठा होगा. फसल अगर ख़राब हो गयी तो उसके पास न तो खाने को रहेगा और न ही कर्जे की किश्त चुकाने को. ऐसे में गले में रस्सी का फन्दा ही उसका एक मात्र सहारा हो जाता है. हमारे भारत महान में, हमारे शाइनिंग इंडिया में, अनगिनत होरी अपनी करुण गाथा लिखवाने के लिए प्रेमचंद का आवाहन कर रहे हैं –
हे प्रेमचंद, फिर कलम उठा, नवभारत का उत्थान लिखो,
होरी के लाखों पुनर्मरण पर, एक नया गोदान लिखो.
प्रेमचंद के सुपुत्र श्री अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ लिखकर हिंदी-उर्दू भाषियों के साहित्य प्रेम पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ा है. गांधीजी के आवाहन पर शिक्षा विभाग की अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर हमारा कथा सम्राट असहयोग आन्दोलन में भाग लेता है और हमेशा-हमेशा के लिए गरीबी उसका दामन थाम लेती है. उसके बिना कलफ और बिना इस्तरी किये हुए गाढ़े के कुरते के अन्दर से उसकी फटी बनियान झांकती रहती है. उसकी पैर की तकलीफ को देखकर डॉक्टर उसे नर्म चमड़े वाला फ्लेक्स का जूता पहनने को को कहता है पर उसके पास उन्हें खरीदने के लिए सात रुपये नहीं हैं. वो अपने प्रकाशक को एक ख़त लिख कर उसमें विस्तार से अपनी तकलीफ बताकर सात रुपये भेजने की गुज़ारिश करता है. अभावों से जूझता हमारा नायक जब अंतिम यात्रा करता है तो उसे कन्धा देने के लिए दस-बारह प्रशंसक जमा हो जाते हैं. शव यात्रा देखकर कोई पूछता है –
‘कौन था?’
जवाब मिलता है –
‘कोई मास्टर था.’
प्रेमचंद हमेशा अपनी रचनाओं और अपने प्रगतिशील पत्रों – ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ के माध्यम से स्वदेशी, सांप्रदायिक सद्भाव, नारी-उत्थान और दलितोद्धार का सन्देश देते रहे. उनका सम्पूर्ण साहित्य धार्मिक सामाजिक, आर्थिक शोषण, असमानता, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखंड, लिंग भेद, अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, आलस्य, जातीय दंभ, बनावटीपन, शेखीखोरी, असहिष्णुता, धर्मान्धता, विलासिता, खोखली देशभक्ति और अवसरवादिता के विरुद्ध संघर्ष है. उन्हें अल्लामा इकबाल का यह शेर बहुत पसंद था –
‘जिस खेत से दहकान को मयस्सर न हो रोटी,
उस खेत के हर खेश-ए-गंदुम को जला दो.’
(जिस खेत से खुद किसान को रोटी नसीब न हो, उस खेत की गेंहू की हर बाली को जला दो)
पर इस शेर का मर्म समझने की हमारे देश के नेताओं को आजतक फुर्सत नहीं है. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का अमर पात्र देवीदीन जो असहयोग आन्दोलन के दौरान अपने दो बेटों की क़ुरबानी दे चुका है, देश के एक भावी कर्णधार से पूछता है कि क्या वो ये नहीं सोचते कि जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो इनके बंगलों पर वो खुद क़ब्ज़ा कर लेंगे. नेताजी के हाँ कहने पर देवीदीन सोचने लगता है कि इस आज़ादी की लड़ाई में क़ुरबानी देने से आम आदमी को क्या मिलेगा. आज भी हम उसी देवीदीन की तरह असमंजस की स्थिति में हैं पर अब हमारा खुद से प्रश्न होता है –‘क्या हम वाकई आजाद हो गए हैं?’
आज हमको फिर एक नए प्रेमचंद की ज़रुरत है, आज फिर हमको आम आदमी का दर्द समझने वाले कलम के सिपाही की दरकार है, आज फिर ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘सदगति’, ‘सवा सेर गेंहू’, ‘ठाकुर का कुआँ’ ‘ईदगाह’, पूस की रात’ ‘कफ़न’, और ‘मन्त्र’ लिखे जाने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वही अन्याय और वही अनाचार फल-फूल रहा है जिसके खिलाफ कभी प्रेमचंद ने निर्भीकता से आवाज़ बुलंद की थी.
प्रेमचंद की रचनाएँ तो सीमित हैं किन्तु भारतीय जन-मानस पर उनका प्रभाव असीमित और शाश्वत है. लेकिन आज प्रेमचंद का गुणगान करने के स्थान पर ज़रुरत इस बात की है कि उनका अनुकरण कर हम भी उन्हीं की तरह अन्याय के खिलाफ़ साहस के साथ आवाज़ उठाएं और धर्म के, समाज के , राजनीति के, असंख्य भ्रष्ट ठेकेदारों को बेनकाब कर उनको उनके सही अंजाम तक पहुंचाएं और मजलूमों को, मेहनतकश को, सर्वहारा को, उनका वाजिब हक़ दिलवाएं.

10 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खुबसूरत लेख , जिसको पढ़ते हुए एक गाना याद आया."वो सुबह कभी‎ तो आएगी.............."

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    1. धन्यवाद मीना जी. कितने ही प्रेमचंद अपनी कलम घिस लें पर हमारे मुल्क में इस सिस्टम के रहते वो सुबह कभी नहीं आएगी.हाँ, इस सिस्टम में पूरी तरह से आग लगा दी जाय तो अल्लामा इकबाल और प्रेमचंद दोनों के ही सपने पूरे हो सकते हैं.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " होरी को हीरो बनाने वाले रचनाकार मुंशी प्रेमचंद “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. मेरी रचना को ब्लॉग बुलेटिन के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने के लिए धन्यावाद.

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  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 31 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. इतना विचार उत्तेजक लेख कि रोंगटे खड़े हो गये
    हर शब्द शूल है, आवाज बन जाए तो गरम शीशा, साहिर साहब की दो पंक्तियां याद दिलाता आपका लेख जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया।
    निशब्द।

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  6. क्या लिखें! कलम का सिपाही हर युग में 'बाहुबलियों' से भिड़ता रहा है, भिड़ता रहेगा।।

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