श्रीमती रमा जैसवाल का एक प्रकाशित शोध पत्र
(मैंने किंचित परिवर्तन कर इस शोध पत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया है और इसके सन्दर्भ का विस्तार हटा दिया है. आज प्रस्तुत है इसका प्रथम भाग)
‘प्रेमचंद के साहित्य में शोषित किन्तु विद्रोहिणी नारी’
जिस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक असमानता को अपनी नियति मानकर स्वीकार करना पड़ता है वहां अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाली और विद्रोह का परचम लहराने वाली स्त्रियों को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाने का साहस बहुत कम साहित्यकार ही कर सकते हैं. इसके लिए साहित्यकार में अन्याय का प्रतिकार करने के साहस के साथ-साथ सामाजिक सुधार के प्रति प्रतिबद्धता भी आवश्यक होती है. प्रेमचंद ने उर्दू व हिन्दी में साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिष्कार का बीड़ा उठाया था. प्रेमचंद नारी समाज के सच्चे हितैषी थे. उत्तर भारतीय नारी समाज के सुख-दुःख को उन्होंने बहुत करीब से देखा और समझा था. यूं तो प्रेमचंद का साहित्य बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध के उत्तर भारतीय सामाजिक जीवन का समग्र और प्रामाणिक चित्रण करता है परन्तु शोषित समाज के चित्रण में यह अद्वितीय है. शोषिता भारतीय नारी के जीवन की हर त्रासदी और उसके हर संघर्ष को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जीवन्त किया है.
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में उत्तर भारतीय गाँवों और शहरों की मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय स्त्रियों के जीवन का यथार्थवादी रूप प्रस्तुत किया गया है. नारी-जीवन के इस चित्रण में न तो कोई रूमानियत है, न कोई फ़ैन्टैसी और न आदर्शवाद का कोरा भाषण. प्रेमचंद की रचनाओं में चित्रित नारियां गुणवान भी हैं और इंसानी कमज़ोरियों की शिकार भी. अशिक्षा, निर्धनता और सामाजिक दमन के कारण स्त्रियों में जिस प्रकार की रूढि़यां और अंधविश्वास पनपते हैं, उनसे प्रेमचंद भलीभाँति परिचित हैं.
प्रेमचंद के नारी पात्र स्वयं लिंगभेद के पोषक हैं, कन्या जन्म उनके लिए एक त्रासदी है, पुत्र जन्म के बाद ही स्त्रियाँ, अपना जीवन सफल मानती हैं, वैधव्य उनके लिए अभिशाप है और सधवाओं लिए विधवा मनहूस. आभूषणों के लिए घर-फूंक तमाशा देखने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता, अधिकांश सासें, बहुओं को सताने में और बहुएं, सासों को खिजाने में व्यस्त रहती हैं, चुगली, त्रिया-हठ, मिथ्यावादिता, चटोरापन, चंचलता, चपलता और कभी-कभी कामुकता से भी उन्हें परहेज़ नहीं है. पर इन कमज़ोरियों के बावजूद प्रेमचंद के अधिकांश नारी पात्र साहस, धैर्य, सहनशीलता, त्याग और कर्मठता से परिपूर्ण हैं. अन्याय और दमन को उनके अधिकांश नारी पात्र अपनी नियति समझ कर स्वीकार करते हैं पर यहां चर्चा उनके उन नारी पात्रों की हो रही है जिन्होंने अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की है और ऐसे पात्रों की प्रेमचंद साहित्य में कोई कमी नहीं है. प्रेमचंद को विद्रोहिणी नारी के चित्रण में बहुत आनन्द आता है, शायद इसके लिए उनकी सुधारवादी प्रकृति उत्तरदायी है. उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय नारी अपने ऊपर ढाए गए ज़ुल्मों के खि़लाफ़ ख़ुद जिहाद छेड़े.
‘गोदान’ उपन्यास की धनिया समाज के नियमों से बंधी एक कृषक महिला है. उसकी दृष्टि में दातादीन ब्राह्मण देवता हैं, भले ही उनका लड़का मातादीन सिलिया चमारन को अपनी रखैल बनाए हुए है. पर जब यही देवता उसे सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर अपने पुत्र गोबर की गर्भवती विधवा प्रेमिका, झुनिया को घर से निकालने को कहते हैं तो वह बिफ़र कर जवाब देती है-
‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते. ब्याहता न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही. किस मुंह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता. वही काम छोटे आदमी करते हैं तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है. नाक कट जाती है. बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं.‘
‘गोदान’ उपन्यास में होरी की बड़ी बेटी सोना नहीं चाहती है कि होरी सोनारी वालों के यहां उसकी शादी के लिए दुलारी सहुआइन से 200 रुपये का क़र्ज़ ले. वह अपनी सखी सिलिया से कहती है-
‘मैं तो सोनार वालों से कह दूंगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज का लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूंगी.’
गरीब और वह भी अछूत औरत अगर सुन्दर हो तो उसका यौन शोषण करना रईस सवर्ण अपना अधिकार समझते हैं. ‘घासवाली’ कहानी में मुलिया चमारन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है. उसके सौन्दर्य पर ठाकुर चैनसिंह लट्टू हो जाता है और उससे अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है तो मुलिया उसे झिड़कते हुए उससे पूछती है-
‘मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर (मुलिया का पति) चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है?--- मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी या जरा से लालच से तुम्हारी मुठ्ठी में आ जाएगी? कितना सस्ता सौदा है. ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे ?’
प्रेमचंद की दलित नारी पात्र वर्ण-व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने का साहस आसानी से नहीं करतीं पर जब उनके परिवार के किसी सदस्य की जान बचाने की बात होती है तो वह निःसंकोच ऐसा साहस कर बैठती हैं. कहानी ‘मन्दिर’ में एक शूद्रा अपने बेटे की जान बचाने के लिए भगवान का प्रसाद लेने के लिए मन्दिर का ताला तोड़ देती है.
कहानी ‘ठाकुर का कूंआ’ की गंगी अपने बीमार पति को स्वच्छ जल पिलाने के लिए ठाकुर के कुँए से पानी चुराने का असफल प्रयास करती है.
यह बात और है कि इन दोनों कहानियों में इन नारी पात्रों का विद्रोह उनके लक्ष्य प्राप्ति में उनका सहायक नहीं होता.
प्रेमचंद ने वेश्याओं के पुनर्वास के मुद्दे को कई बार बड़ी शिद्दत के साथ उठाया है. पुरुष समाज की कामुकता की शिकार ऐसी स्त्रियाँ विद्रोहिणी बनकर अपने साथ हुए अन्याय का समूचे पुरुष समाज से बदला लेना चाहती हैं. ‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन और ‘गबन’ उपन्यास की ज़ोहरा वेश्या होकर पुरुषों को गुमराह करने में या उनका घर उजाड़ने में संकोच नहीं करतीं क्योंकि समाज को वह वही लौटा रही हैं जो कि उन्हें समाज से मिला है. पर ऐसी ही विद्रोहिणी नारी जब किसी सुधारक या हमदर्द के सम्पर्क में आती है तो वह ममता और सेवा की मूर्ति बनकर समाज के लिए उपयोगी बन जाती है. सुमन और ज़ोहरा के हृदय परिवर्तन से हमको यही सन्देश मिलता है. प्रेमचन्द इस शक्ति स्वरूपा विद्रोहिणी नारी की शक्ति को विनाश के स्थान पर सृजन के लिए प्रयुक्त होते हुए देखना चाहते हैं.
‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में बिलासी चारागाह में अपने पशुओं को चरने से रोकने पर सरकारी कारिन्दों से भिड़ जाती है. फौजदारी में बिलासी के पति मनोहर के हाथों सरकारी कारिन्दे ग़ौस खां की हत्या हो जाती है. मनोहर जेल में आत्महत्या कर लेता है. बिलासी विधवा होकर भी हार नहीं मानती है. उसे सन्तोष है कि उसने अपने अधिकार और अपने सम्मान की रक्षा की, भले ही इसके बदले में उसे वैधव्य और आजीवन दारिद्य का दुःख भोगना पड़ रहा है.
प्रेमचंद के साहित्य में गरीब, दलित, अशिक्षित स्त्री भी अन्याय का प्रतिकार करना जानती है. उसमें गलत बात को गलत कहने का साहस है. वह अन्याय का प्रतिकार करते हुए इस बात की भी चिंता नहीं करती कि उसके विद्रोह का अंजाम क्या होगा. उसका यह संघर्ष उस नन्हे से दीपक की उस लड़ाई के समान है जो कि तूफ़ान के थपेड़े खाता हुआ भी उसके सामने झुकता नहीं. प्रेमचंद की दलित नारी का यह विद्रोह कोई आत्मघात नहीं है अपितु यह उसका उद्घोष है कि वह केंचुए की तरह केवल कुचले जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है, भले ही इसके लिए उसे अपना सर्वस्व ही क्यों न गंवाना पड़े.
(मैंने किंचित परिवर्तन कर इस शोध पत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया है और इसके सन्दर्भ का विस्तार हटा दिया है. आज प्रस्तुत है इसका प्रथम भाग)
‘प्रेमचंद के साहित्य में शोषित किन्तु विद्रोहिणी नारी’
जिस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक असमानता को अपनी नियति मानकर स्वीकार करना पड़ता है वहां अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाली और विद्रोह का परचम लहराने वाली स्त्रियों को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाने का साहस बहुत कम साहित्यकार ही कर सकते हैं. इसके लिए साहित्यकार में अन्याय का प्रतिकार करने के साहस के साथ-साथ सामाजिक सुधार के प्रति प्रतिबद्धता भी आवश्यक होती है. प्रेमचंद ने उर्दू व हिन्दी में साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिष्कार का बीड़ा उठाया था. प्रेमचंद नारी समाज के सच्चे हितैषी थे. उत्तर भारतीय नारी समाज के सुख-दुःख को उन्होंने बहुत करीब से देखा और समझा था. यूं तो प्रेमचंद का साहित्य बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध के उत्तर भारतीय सामाजिक जीवन का समग्र और प्रामाणिक चित्रण करता है परन्तु शोषित समाज के चित्रण में यह अद्वितीय है. शोषिता भारतीय नारी के जीवन की हर त्रासदी और उसके हर संघर्ष को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जीवन्त किया है.
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में उत्तर भारतीय गाँवों और शहरों की मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय स्त्रियों के जीवन का यथार्थवादी रूप प्रस्तुत किया गया है. नारी-जीवन के इस चित्रण में न तो कोई रूमानियत है, न कोई फ़ैन्टैसी और न आदर्शवाद का कोरा भाषण. प्रेमचंद की रचनाओं में चित्रित नारियां गुणवान भी हैं और इंसानी कमज़ोरियों की शिकार भी. अशिक्षा, निर्धनता और सामाजिक दमन के कारण स्त्रियों में जिस प्रकार की रूढि़यां और अंधविश्वास पनपते हैं, उनसे प्रेमचंद भलीभाँति परिचित हैं.
प्रेमचंद के नारी पात्र स्वयं लिंगभेद के पोषक हैं, कन्या जन्म उनके लिए एक त्रासदी है, पुत्र जन्म के बाद ही स्त्रियाँ, अपना जीवन सफल मानती हैं, वैधव्य उनके लिए अभिशाप है और सधवाओं लिए विधवा मनहूस. आभूषणों के लिए घर-फूंक तमाशा देखने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता, अधिकांश सासें, बहुओं को सताने में और बहुएं, सासों को खिजाने में व्यस्त रहती हैं, चुगली, त्रिया-हठ, मिथ्यावादिता, चटोरापन, चंचलता, चपलता और कभी-कभी कामुकता से भी उन्हें परहेज़ नहीं है. पर इन कमज़ोरियों के बावजूद प्रेमचंद के अधिकांश नारी पात्र साहस, धैर्य, सहनशीलता, त्याग और कर्मठता से परिपूर्ण हैं. अन्याय और दमन को उनके अधिकांश नारी पात्र अपनी नियति समझ कर स्वीकार करते हैं पर यहां चर्चा उनके उन नारी पात्रों की हो रही है जिन्होंने अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की है और ऐसे पात्रों की प्रेमचंद साहित्य में कोई कमी नहीं है. प्रेमचंद को विद्रोहिणी नारी के चित्रण में बहुत आनन्द आता है, शायद इसके लिए उनकी सुधारवादी प्रकृति उत्तरदायी है. उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय नारी अपने ऊपर ढाए गए ज़ुल्मों के खि़लाफ़ ख़ुद जिहाद छेड़े.
‘गोदान’ उपन्यास की धनिया समाज के नियमों से बंधी एक कृषक महिला है. उसकी दृष्टि में दातादीन ब्राह्मण देवता हैं, भले ही उनका लड़का मातादीन सिलिया चमारन को अपनी रखैल बनाए हुए है. पर जब यही देवता उसे सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर अपने पुत्र गोबर की गर्भवती विधवा प्रेमिका, झुनिया को घर से निकालने को कहते हैं तो वह बिफ़र कर जवाब देती है-
‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते. ब्याहता न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही. किस मुंह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता. वही काम छोटे आदमी करते हैं तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है. नाक कट जाती है. बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं.‘
‘गोदान’ उपन्यास में होरी की बड़ी बेटी सोना नहीं चाहती है कि होरी सोनारी वालों के यहां उसकी शादी के लिए दुलारी सहुआइन से 200 रुपये का क़र्ज़ ले. वह अपनी सखी सिलिया से कहती है-
‘मैं तो सोनार वालों से कह दूंगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज का लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूंगी.’
गरीब और वह भी अछूत औरत अगर सुन्दर हो तो उसका यौन शोषण करना रईस सवर्ण अपना अधिकार समझते हैं. ‘घासवाली’ कहानी में मुलिया चमारन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है. उसके सौन्दर्य पर ठाकुर चैनसिंह लट्टू हो जाता है और उससे अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है तो मुलिया उसे झिड़कते हुए उससे पूछती है-
‘मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर (मुलिया का पति) चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है?--- मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी या जरा से लालच से तुम्हारी मुठ्ठी में आ जाएगी? कितना सस्ता सौदा है. ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे ?’
प्रेमचंद की दलित नारी पात्र वर्ण-व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने का साहस आसानी से नहीं करतीं पर जब उनके परिवार के किसी सदस्य की जान बचाने की बात होती है तो वह निःसंकोच ऐसा साहस कर बैठती हैं. कहानी ‘मन्दिर’ में एक शूद्रा अपने बेटे की जान बचाने के लिए भगवान का प्रसाद लेने के लिए मन्दिर का ताला तोड़ देती है.
कहानी ‘ठाकुर का कूंआ’ की गंगी अपने बीमार पति को स्वच्छ जल पिलाने के लिए ठाकुर के कुँए से पानी चुराने का असफल प्रयास करती है.
यह बात और है कि इन दोनों कहानियों में इन नारी पात्रों का विद्रोह उनके लक्ष्य प्राप्ति में उनका सहायक नहीं होता.
प्रेमचंद ने वेश्याओं के पुनर्वास के मुद्दे को कई बार बड़ी शिद्दत के साथ उठाया है. पुरुष समाज की कामुकता की शिकार ऐसी स्त्रियाँ विद्रोहिणी बनकर अपने साथ हुए अन्याय का समूचे पुरुष समाज से बदला लेना चाहती हैं. ‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन और ‘गबन’ उपन्यास की ज़ोहरा वेश्या होकर पुरुषों को गुमराह करने में या उनका घर उजाड़ने में संकोच नहीं करतीं क्योंकि समाज को वह वही लौटा रही हैं जो कि उन्हें समाज से मिला है. पर ऐसी ही विद्रोहिणी नारी जब किसी सुधारक या हमदर्द के सम्पर्क में आती है तो वह ममता और सेवा की मूर्ति बनकर समाज के लिए उपयोगी बन जाती है. सुमन और ज़ोहरा के हृदय परिवर्तन से हमको यही सन्देश मिलता है. प्रेमचन्द इस शक्ति स्वरूपा विद्रोहिणी नारी की शक्ति को विनाश के स्थान पर सृजन के लिए प्रयुक्त होते हुए देखना चाहते हैं.
‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में बिलासी चारागाह में अपने पशुओं को चरने से रोकने पर सरकारी कारिन्दों से भिड़ जाती है. फौजदारी में बिलासी के पति मनोहर के हाथों सरकारी कारिन्दे ग़ौस खां की हत्या हो जाती है. मनोहर जेल में आत्महत्या कर लेता है. बिलासी विधवा होकर भी हार नहीं मानती है. उसे सन्तोष है कि उसने अपने अधिकार और अपने सम्मान की रक्षा की, भले ही इसके बदले में उसे वैधव्य और आजीवन दारिद्य का दुःख भोगना पड़ रहा है.
प्रेमचंद के साहित्य में गरीब, दलित, अशिक्षित स्त्री भी अन्याय का प्रतिकार करना जानती है. उसमें गलत बात को गलत कहने का साहस है. वह अन्याय का प्रतिकार करते हुए इस बात की भी चिंता नहीं करती कि उसके विद्रोह का अंजाम क्या होगा. उसका यह संघर्ष उस नन्हे से दीपक की उस लड़ाई के समान है जो कि तूफ़ान के थपेड़े खाता हुआ भी उसके सामने झुकता नहीं. प्रेमचंद की दलित नारी का यह विद्रोह कोई आत्मघात नहीं है अपितु यह उसका उद्घोष है कि वह केंचुए की तरह केवल कुचले जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है, भले ही इसके लिए उसे अपना सर्वस्व ही क्यों न गंवाना पड़े.
रोचक और जानकारी से परिपूर्ण।
जवाब देंहटाएंद्वितीय अंक की प्रतीक्षा रहेगी।
धन्यवाद. इस आलेख की अगली कड़ी कल प्रेमचंद जयंती पर प्रस्तुत की जाएगी.
जवाब देंहटाएंरोचक।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंदजी की मुरीद रही हूँ और उनकी कहानियों, उपन्यासों को बहुत कुछ पढ़ा है। यह लेख काफी रोचक और ज्ञानवर्धक लगा। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी. प्रेमचंद के लेखन ने हमारी उंगली पकड़कर हमको लिखना सिखाया है. कल प्रेमचंद जयंती पर इस आलेख की दूसरी और अंतिम कड़ी प्रस्तुत की जाएगी.
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गोविन्द चन्द्र पाण्डे और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हर्षवर्धन जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' के माध्यम से श्रीमती रमा जैसवाल की बात सुधी पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद. आज इस आलेख का दूसरा और अंतिम भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ. उसको भी जन-जन तक पहुँचाने के लिए आपकी कृपा की अपेक्षा रहेगी.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और रोचक आलेख ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी. प्रेमचंद का लेखन इतना बेहतरीन और रोचक है कि उसके बारे में सच्चाई से कुछ भी लिखो तो वो कुछ अच्छा और कुछ रोचक तो ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाता है.
जवाब देंहटाएंमैने मुंशी जी की कहानियों और उपन्यासों को काफी पढा है और हमेशा एक विलक्षण सा महसूस भी किया पर कभी भी इस तरह एक एक नारी चरित्र का पास से शायद ही कभी अवलोकन किया, हां ये सच है कि पढने के बाद उनके चरित्र दिमाग मे जा बैठते हैं लम्बे समय तक पर ये विहंगम दृष्टि शायद एक शोध कर्ता या अच्छे समीक्षक के पास ही हो सकती है सिर्फ पाठक के पास नही ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शोध जो सिर्फ सामायिक ही नही सदियों तक पठन पाठन को सोच देता रहेगा ।
धन्यवाद कुसुम जी. आप प्रतिष्ठित कवियित्री हैं और आपकी टिप्पणी भी काव्यात्मक है. प्रेमचंद के ख़ुद कमज़ोरियों से भरे नारी पात्र जब मज़बूती के साथ अन्याय का प्रतिकार करते हैं तो हम भी उनके साथ शामिल हो जाते हैं. यही प्रेमचंद की कलम का जादू है.
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