हे प्रेमचंद, फिर कलम उठा, नवभारत का उत्थान लिखो,
लाखों होरी के पुनर्मरण पर, एक नया गोदान लिखो.
प्रेमचंद के सुपुत्र श्री अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ लिखकर हिंदी-उर्दू भाषियों के साहित्य प्रेम पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ा है. गांधीजी के आवाहन पर शिक्षा विभाग की अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर हमारा कथा सम्राट राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेता है और हमेशा-हमेशा के लिए गरीबी उसका दामन थाम लेती है. उसके बिना कलफ और बिना इस्तरी किये हुए गाढ़े के कुरते के अन्दर से उसकी फटी बनियान झांकती रहती है. उसकी पैर की तकलीफ को देखकर डॉक्टर उसे नर्म चमड़े वाला फ्लेक्स का जूता पहनने को को कहता है पर उसके पास उन्हें खरीदने के लिए सात रुपये नहीं हैं. वो अपने प्रकाशक को एक ख़त लिख कर उसमें विस्तार से अपनी तकलीफ बताकर सात रुपये भेजने की गुज़ारिश करता है. अभावों से जूझता हमारा नायक जब अंतिम यात्रा करता है तो उसे कन्धा देने के लिए दस-बारह प्रशंसक जमा हो जाते हैं. शव यात्रा देखकर कोई पूछता है –‘कौन था?’ जवाब मिलता है –‘कोई मास्टर था.’
प्रेमचंद हमेशा अपनी रचनाओं और अपने प्रगतिशील पत्रों – ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ के माध्यम से स्वदेशी, सांप्रदायिक सद्भाव, नारी-उत्थान और दलितोद्धार का सन्देश देते रहे. उनका सम्पूर्ण साहित्य धार्मिक सामाजिक, आर्थिक शोषण, असमानता, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखंड, लिंग भेद, अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, आलस्य, जातीय दंभ, बनावटीपन, शेखीखोरी, असहिष्णुता, धर्मान्धता, विलासिता और अवसरवादिता के विरुद्ध संघर्ष है. उन्हें अल्लामा इकबाल का यह शेर बहुत पसंद था –
‘जिस खेत से दहकान को मयस्सर न हो रोटी,
उस खेत के हर खेश-ए-गंदुम को जला दो.’
(जिस खेत से खुद किसान को रोटी नसीब न हो, उस खेत की गेंहू की हर बाली को जला दो)
पर इस शेर का मर्म समझने की हमारे देश के नेताओं को आजतक फुर्सत नहीं है. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का अमर पात्र देवीदीन जो असहयोग आन्दोलन के दौरान अपने दो बेटों की क़ुरबानी दे चुका है, देश के एक भावी कर्णधार से पूछता है कि क्या वो ये नहीं सोचते कि जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो इनके बंगलों पर वो खुद क़ब्ज़ा कर लेंगे. नेताजी के हाँ कहने पर देवीदीन सोचने लगता है कि इस आज़ादी की लड़ाई में क़ुरबानी देने से आम आदमी को क्या मिलेगा. आज भी हम उसी देवीदीन की तरह असमंजस की स्थिति में हैं पर अब हमारा खुद से प्रश्न होता है –‘क्या हम वाकई आजाद हैं?’
आज हमको फिर एक नए प्रेमचंद की ज़रुरत है, आज फिर हमको आम आदमी का दर्द समझने वाले कलम के सिपाही की दरकार है, आज फिर ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘निर्मला’, ‘सदगति’, ‘सवा सेर गेंहू’ ‘ठाकुर का कुआँ’ ‘ईदगाह’, पूस की रात’ ‘कफ़न’, और ‘मन्त्र’ लिखे जाने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वही अन्याय और वही अनाचार फल-फूल रहा है जिसके खिलाफ कभी प्रेमचंद ने निर्भीकता से आवाज़ बुलंद की थी.
वाह ।
जवाब देंहटाएंलिखने पर आते हो तो छा जाते हो
कँजूसी करते हो रोज नहीं आते हो ।
धन्यवाद सुशील बाबू, तुम्हारे जैसे कद्रदान कम हैं इसलिए हफ्ते में एक बार ही आने का फैसला किया है. प्रेमचंद आज भी मेरे सबसे प्रिय लेखक हैं और शायद सभी हिंदी और उर्दू भाषियों के भी. मेरी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचेगी तो मुझे खुशी होगी. तुम भी इसे अपने पत्र में प्रकाशित कर देना पर 31 जुलाई को.
हटाएंऐसा नहीं है कद्रदान बहुत हैं । उन्हे पता लगता है तो पढ़ते भी हैं । आपने जिस तरह मेरे ब्लाग पर आकर पहली बार टिप्पणी की है उसी तरह ब्लागों पर जाइये उन्हे पढ़िये अपनी टिप्पणी जड़िये अपनी उपस्थिति दर्ज कराइये लोग जानेंगे और आना शुरु करेंगे पढ़ेंगे और सराहेंगे ।
हटाएंइसको यहीं से उपर प्रस्तुतकर्ता के नीचे दिये गये लिंकों से फेसबुक, गूगल आदि पर शेयर भी कर दिया कीजिये ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ,उम्दा
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मदन मोहन सक्सेना जी.
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