मंगलवार, 12 मार्च 2019

अस्माकं विद्यालय

अस्माकं विद्यालय -
आज से 60 साल पहले पिताजी का लखनऊ से इटावा ट्रांसफ़र हुआ था. तब मेरी उम्र आठ साल की थी. लखनऊ जैसे बड़े शहर से इटावा जैसे कस्बाई जिले में जाना किसी को भी रास नहीं आ रहा था पर किया ही क्या जा सकता था !
लखनऊ में मैं, 'बॉयज़ एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज' में क्लास फ़र्स्ट से क्लास थर्ड तक पढ़ा था. हमारा यह कॉलेज, अच्छा-खासा था. हमारे टीचर्स अच्छे थे, क्लास रूम्स अच्छे थे और उनमें पड़ी लम्बी-लम्बी बेंचें, उनके सामने के डेस्क भी बहुत अच्छे थे.
हमारे लखनऊ के कॉलेज में इंग्लिश, क्लास फ़ोर्थ से पढ़ाई जाती थी इसलिए अपने राम लखनऊ प्रवास में इंग्लिश में सर्वथा पैदल ही थे.
इटावा में मुझे क्लास फ़ोर्थ में नाम लिखाना था. मेरे लिए स्कूल तलाशे गए तो पता चला कि वहां प्राइमरी क्लासेज़ के लिए कोई ढंग का कोई स्कूल ही नहीं है. लड़कियों का एक इंग्लिश स्कूल था जिसमें कुछ लड़के भी पढ़ते थे लेकिन उन में मेरी तरह का इंग्लिश में महा-पैदल कोई नहीं था. हफ़्ते भर की बेकार की क़सरत के बाद मुझे पुरबिया टोले के राजकीय आदर्श विद्यालय (मॉडल स्कूल) में ले जाया गया.
पांच-छह कमरों का छोटा सा स्कूल, छोटा सा कंपाउंड, आधे देहाती से मास्साब लोग और पोस्ट मास्टर साहब के लड़के, सुनील सचदेव के अलावा बाकी महा-देहाती विद्यार्थीगण ! मेरी तो तब जान ही निकल गयी जब यह पता चला कि मुझे दरी-टाट पर बैठना पड़ेगा. क्लास-रूम की एक मात्र कुर्सी मास्साब के लिए सुरक्षित थी.
मेरी टी. सी., मेरा क्लास थर्ड का रिज़ल्ट और फ़ीस के पैसे लेकर पिताजी का स्मार्ट चपरासी बच्चीलाल मेरे साथ राजकीय आदर्श विद्यालय गया था. पांच मिनट में ही मेरा एडमिशन हो गया और फ़ीस के नक़द 10 आने देकर बच्चीलाल, मुझ रुआंसे बालक को कक्षा चार के कक्ष में एक फटहे से टाट पर बिठाकर चल दिया. वैसे हमारे स्कूल में मासिक शुल्क - मात्र तीन पैसे था. पहली फ़ीस के 10 आने में से 8 आने तो कौशन मनी था.
मुझे ज़मीन पर बिछे टाट या दरी पर बैठने की आदत ही नहीं थी. मेरे सहपाठी मेरी दिक्क़त को देख कर ‘खी-खी’ किये जा रहे थे.
हमारे क्लास टीचर तिवारी मास्साब ने बीड़ी नंबर 207 का एक गहरा कश लगाते हुए मुझसे पूछा –
‘हाँ तो बेटा गोपेस मोहन ! तुम लखनऊ से आए हो. लखनऊ के बारे में सबको बताओ.
मैंने भरे गले से सिर्फ़ इतना कहा –
‘मेरा नाम गोपेश मोहन है, गोपेस मोहन नहीं!’
मास्साब ने जवाब दिया –
‘हाँ, हाँ, गोपेस मोहन’ ही तो कह रहा हूँ.’
इसके बाद मैंने फिर कभी तिवारी मास्साब को या अपने किसी सहपाठी को सुधारने की कोशिश नहीं की और स्कूल में सुनील सचदेव के अलावा मेरा नाम जिसने भी पुकारा तो – ‘गोपेस मोहन’ ही पुकारा.
हमारे राजकीय विद्यालय में प्राइमरी क्लास तक सभी विद्यार्थी, लिखने के लिए स्याही-कलम का प्रयोग करते थे जब कि मैं लखनऊ में लिखने के लिए सिर्फ़ पेंसिल का प्रयोग करता था. मेरा जैसा असावधान और बेतरतीब लड़का, कलम से लिखते वक़्त अपने शरीर पर, अपने कपड़ों पर, अपने बस्ते पर और अपने आसन-रूपी टाट पर ख़ूब स्याही गिरा लेता था. घर लौटने पर मुझे ख़ुद को खुरच-खुरच साफ़ करना पड़ता था और मेरे कपड़ों को साफ़ करने में धोबी को डबल मेहनत करनी पड़ती थी.
मेरे सहपाठी मुलायम सिंह यादव जैसी कनौजिया-मिश्रित ब्रज भाषा बोलते थे. एक नज़ीर पेश है –
‘जब हम कच्छा तीन पढ़त हते तो सर्मा मास्साब गणित पढ़ात्ते. 7 का पहाड़ा ना याद होये तो डंडन ते मार-मार के हमाई सगरी देह सुजाय देत्ते.’
मैं शहरी माहौल में पला हुआ, दुरुस्त क़ाफ़ और शीन वाला, बच्चन और नीरज की कविताओं का दीवाना, इन मेधावी छात्रों के बीच में ख़ुद को अभिशप्त समझने लगा था. मैं चाहता था कि मुझे लखनऊ के किसी अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया जाए पर मेरा अंग्रेज़ी का अज्ञान तो इटावा के ही एक मात्र इंग्लिश स्कूल में भी मेरे एडमिशन में बाधक बन गया था. मजबूरन –
‘पचम पच्चे पच्चिस, छक्के तीस, सते पैंतिस, अट्ठे चालिस, नमे पैंतालिस , धम्मा पचास’ का गीत गाने में मुझे भी निष्णात होना पड़ा.
मुझे बैडमिंटन और क्रिकेट खेलना पसंद था पर हमारे स्कूल में खेलों के नाम पर ज़्यादातर कबड्डी, गिट्टी-फोड़ और गेंद-तड़ी ही खेली जाती थीं.
हमारा स्कूल, नार्मल स्कूल से अटैच्ड था. नार्मल स्कूल के प्रिंसिपल मेरी हाज़िर-जवाबी और मेरे बात करने के तरीक़े को देखकर मुझसे बहुत खुश रहते थे. बातों-बातों में प्रिंसिपल साहब को क्रिकेट में मेरी अभिरुचि के बारे में पता चला. प्रिंसिपल साहब भी मेरी तरह क्रिकेट के दीवाने थे. अपने दोस्तों के सामने मुझे बुलाकर वो भारतीय क्रिकेट खिलाडियों पर ‘जनगण मन अधिनायक जय हे’ की धुन पर मेरे बड़े भाई साहब की कविता –
‘विजय हज़ारे, वीनू मनकद, विजय मांजरेकर,
नाना जोशी, नरेंद्र तम्हाने, पौली उम्रीगर,
घोर्पदे, देसाई, गुप्ते, मनहर हार्डीकर,
गायकवाड़, बोर्डे, सुरती, नारी कांट्रेक्टर.’
सुना करते थे और मुझे दालमोठ, मिठाई भी खिलाया करते थे. प्रिंसिपल साहब की नज़रों में मेरी क़दर देखकर, हमारे स्कूल के हेड मास्टर साहब, स्कूल में होने वाले हर इंस्पेक्शन में, हर फंक्शन में, मुझे आगे कर देते थे. धीरे-धीरे मेरे सहपाठियों पर भी मेरा रौब ग़ालिब होने लगा.
कक्षा पांच में हमको टाट की जगह बैठने के लिए लकड़ी के पटरे मिल गए और उनके सामने नीची-नीची मुंशी डेस्क भी मिल गईं. और तो और, लडकियों के स्थानीय इंग्लिश स्कूल में लड़कों का प्रवेश वर्जित हो जाने के कारण चार लड़के उस स्कूल से निकल कर हमारे स्कूल में आ गए. अब मेरी कंपनी अच्छी-ख़ासी हो गयी. फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ का ये नग्मा मेरी खुशकिस्मती का बखूबी बयान कर सकता था-
‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे'

आज अपनी नादानियों पर हंसी आती है. हमारे राजकीय आदर्श विद्यालय में कई विषयों में, पढ़ाई बहुत अच्छी होती थी. हमारे गणित, सामाजिक विज्ञान, हिंदी और ड्राइंग के मास्साब तो कमाल के थे. नार्मल स्कूल के विद्यार्थी भी हमको पढ़ाने आते थे और उन में से भी कई बहुत अच्छा पढ़ाते थे.
अर्ध-ग्रामीण स्कूलों में नितांत शहरी बच्चों की बड़ी क़द्र होती है. दो साल तक मैं अपने राजकीय आदर्श विद्यालय का सुपर हीरो रहा लेकिन क्लास फिफ्थ में अच्छी कम्पनी मिल जाने के बाद भी मेरा मन स्कूल में नहीं लगा.
मेरे दो बड़े भाई, गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा में पढ़ते थे. उनके साथ मैं कई बार उनके कॉलेज गया था. हाय ! क्या शानदार कॉलेज था ! कितनी बड़ी फ़ील्ड थी ! कितना बड़ा हॉल था ! एक गोल कमरे वाला – ‘सम्पूर्णानन्द शैक्षिक संग्रहालय’ भी था. सबसे ख़ूबसूरत बात यह थी कि सभी छात्रों के बैठने के लिए कुर्सियां थीं. और तो और, वहां छात्रों को लिखने के लिए फाउंटेन पेन का उपयोग करने की अनुमति थी.
राजकीय आदर्श विद्यालय में पढ़ते वक़्त मेरा सिर्फ़ एक सपना होता था कि मैं क्लास सिक्स्थ में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में एडमिशन पा जाऊं. एंट्रेंस टेस्ट के लिए मैंने बाक़ायदा तैयारी की, कैपिटल और स्मॉल लेटर्स के चील-बिलौए बनाने भी सीख लिए और फिर कक्षा पांच उत्तीर्ण करके मैं गवर्नमेंट इंटर कॉलेज के एंट्रेंस टेस्ट में क्वालीफ़ाई भी कर गया. अलविदा - राजकीय आदर्श विद्यालय !
इस ‘अलविदा – राजकीय आदर्श विद्यालय’ के साथ पुराने सुपर हीरो गोपेश मोहन धरती पर उतर आए थे क्योंकि गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा के सिक्स्थ क्लास में अधिकतर लड़के उन्हीं तरह शहरी पृष्ठभूमि के थे और कुछ उनमें अंग्रेज़ीदां भी थे. वहां अपने सहपाठियों पर या अपने गुरुजन पर उनका रौब ग़ालिब होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था. अब ‘अंधों में काना राजा’ वाली सिचुएशन नहीं थी. अब काने गोपेश मोहन का मुक़ाबला करने के लिए सिर्फ़ काने ही नहीं, बल्कि दो-दो आँखों वाले भी थे. लेकिन उनके लिए नया माहौल निहायत ही ख़ुशगवार था जो कि पिछले दो साल से लगातार देखे जा रहे, उनके ‘हैप्पी एंडिंग’ वाले सपने जैसा था.

22 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !! आपका 'अस्माकं विद्यालय"पढ़ने से पूर्व'फेसबुक स्कूल ग्रुप'में पहुँची हुई थी मगर आपके संसमरण जैसी मिसाल और कहाँ...,कमाल का लिखते हैं आप । शायद कुछ इसी तरह लिखा था मैने । रही बात साथियों की तो वो सब अपना अपना नजरिया है । मुझे तो जीवन के अनुभूत क्षणों को साझा करना कहीं भी गलत नही लगता।

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    1. मीना जी, बेबाक़ी मेरी प्रकृति में है. मुम्बइया भाषा में इसे बिंदास होना कहते हैं.

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    1. सुशील बाबू, मेरी इस रचनात्मक निरंतरता को बनाए रखने में तुम्हारे प्रोत्साहन का बड़ा हाथ है.

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  3. आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २३५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...

    तेरा, तेरह, अंधविश्वास और ब्लॉग-बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मैं इस अंक को पढ़ने का शीघ्र आनंद उठाऊंगा.

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  4. हर खट्टी मीठी यादों को मर्तबान से निकाल शानदार तरीके से परोसने का सलीका कोई आपसे सीखे सर लाजवाब बस लाजवाब।

    कुछ उनमें अंग्रेज़ीदां भी थे. वहां अपने सहपाठियों पर या अपने गुरुजन पर उनका रौब ग़ालिब होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था. अब ‘अंधों में काना राजा’ वाली सिचुएशन नहीं थी. अब काने गोपेश मोहन का मुक़ाबला करने के लिए सिर्फ़ काने ही नहीं, बल्कि दो-दो आँखों वाले भी थे.

    ऊंठ पहाड़ के नीचे आ ही गया आखिर ।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मन की वीणा ! मेरे संस्मरणों में मेरी कान खिंचाई, पिटाई और जग-हंसाई, सब होती है. ज़िन्दगी में गुस्ताखियाँ, नादानियाँ, शैतानियाँ और परशानियाँ न हों तो फिर इन्सान एक परफ़ेक्ट मशीन बन के रह जाता है और मैं मशीन तो क़तई नहीं हूँ.

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. मेरे संस्मरण को 'पांच लिंकों का आनंद' में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद श्वेता ! 'पांच लिंकों का आनंद' पढ़ने का मैं सदैव आनंद उठाता हूँ, आज भी उठाऊंगा.

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  6. बहुत ही सुन्दर संस्मरण लिखा है आपने.....
    अंधों में काना राजा होना कई बार इतना अच्छा लगने लगता है कि ज्यादातर बच्चे उसमे ही जीने के आदि हो जाते हैंऔर अपने पूराने सपने को पीछे छोड़ देते हैं पर ये आप थे कि राजसिंहासन छोड़ मैदान में डट गये....स्वर्णिम भविष्य के लिए ।इसलिए यह संस्मरण सुन्दर ही नहीं शिक्षाप्रद भी है
    बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको...

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    1. धन्यवाद सुधा जी.
      अपनी ज़िन्दगी में मैंने आसमान में उड़ने, आसमान से गिरकर खजूर के पेड़ में अटकने और फिर ज़मीन पर गिरने का ख़ूब तजुर्बा किया है. ऐसी ही खट्टी-मीठी यादों को मैं अपने मित्रों के साथ साझा कर लेता हूँ.
      अब ऐसी यादें अगर आप लोगों को अच्छी लगती हैं तो अपनी यादों के पिटारे में से यदा-कदा कुछ और खोज लाता हूँ.

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  7. बचपन की खट्टी मिठ्ठी यादे समेटे आप का ये संस्मरण हमे भी बचपन की गलियों मे लेके चला गया ,बहुत ही सुंदर ,सादर नमस्कार आप को

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    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी जी.
      मैं तो यही चाहता हूँ कि मेरे सुधी पाठक भी अपनी खट्टी-मीठी यादें सबके साथ साझा करें. सच में, यादों के पिटारों में अकूत खज़ाना छिपा हुआ होता है.

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  8. पुरानी यादों को जीवंत करता बहुत रोचक संस्मरण..

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    1. बहुत धन्यवाद कैलाश शर्मा जी. हम सब के जीवन में ऐसे हादसे होते रहते हैं लेकिन बाद में इनसे हमको बहुत कुछ सीखने को मिलता है और कभी-कभी इनको याद कर हम रोने के साथ हंस भी लेते हैं.

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  9. बहुत ही सुंदर संस्मरण
    बहुत बेबाकी से लिखा हैं आपने
    बधाई आदरणीय

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    1. धन्यवाद रवीन्द्र. मेरी बेबाकी कभी मुझे तारीफ़ दिलाती है तो कभी पिटवाती भी है. पर क्या करूं, आदत से मजबूर हूँ.

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  10. आदरनीय गोपेश जी -- बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आकर ये सुंदर भावपूर्ण पोस्ट पढ़ी |किन्ही कारणों सेब्लॉग से दूर थी | जिस सादगी और बेबाकी से लिखते हैं उसमें नटखटपन में भे एक करुणा स्वतः ही व्याप्त हो गयी है | मन को भावुक भी कर गया तो मुस्कुराहट भी बिखेर गये यादों के वे सुहाने पल | शुभकामनायें और होली की हार्दिक बधाई |

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    1. रेणु जी, आपकी प्रतिक्रिया का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है क्योंकि उनसे मुझे अपने लेखन की ख़ामियाँ और अच्छाइयां, दोनों ही पता चल जाती हैं. अपने अध्यापन के 36 सालों में भी मैंने साफ़गोई को अपनाया. कभी-कभी मेरे छात्र-छात्रा ऐसे सवाल पूछ लेते थे जिनके उत्तर मुझे नहीं आते थे. मैं स्पष्ट रूप से उन से यह कहता था कि मैं पढ़कर उनके प्रश्नों का उत्तर दूंगा. और यकीन मानिए - मेरे विद्यार्थी मेरी इस ईमानदारी से हमेशा ख़ुश ही होते थे. ख़ुद को महानायक के रूप में प्रस्तुत करने का काम नेताओं-अभिनेताओं का है. हम-आप काहे को इस झूठ-प्रपंच में पड़ें?
      होली की आप सबको अग्रिम शुभकामनाएँ !

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  11. जीवन से शायद सुन्दरतम लम्हों से एक होते हैं वो दिन ...
    मस्ती, हास्य और उद्दंता ... किसी में कोई कमी नहीं होती ...
    ऐसे जी यादगार पलों को ले कर लिखी ये पोस्ट ... सच कहो तो ये एक दस्तावज़ ही है जो आज कल की पीढ़ी को नसीब नहीं हमारी आपकी उम्र वाले जीते हैं इसे आनद लेते हैं इनका ... लाजवाब संस्मारक ... रोचक शैली ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर नसवा जी.
      अपने ऊपर हंसना, अपने बुरे हालात का चटपटा चित्रण करना और अपनी किरकिरी होने की दास्तान सुनाने में मुझे कभी संकोच नहीं होता.
      आज की पीढ़ी के अपने सपने हैं, अपनी समस्याएँ हैं, अपनी चुनौतियाँ हैं. न हमको उनकी नक़ल करनी चाहिए और न ही उनको हमारी.
      आप सबको होली की शुभकामनाएँ और बधाइयाँ !

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