गुरुवार, 25 अक्टूबर 2018

फ़िल्म - 'बधाई हो'


बधाई हो
प्राचीन काल में हर ऐरी-गैरी, नत्थू-खैरी फ़िल्म देखना मेरा फ़र्ज़ होता था. इसका प्रमाण यह है कि मैंने टीवी-विहीन युग में, सिनेमा हॉल्स में जाकर, अपने पैसे और अपना समय बर्बाद कर के, अभिनय सम्राट जीतेंद्र तक की क़रीब चार दर्जन फ़िल्में देख डाली थीं. और तो और, अपनी संवाद-अदायगी के लिए विख्यात – ‘मेरे करन-अर्जुन आएँगे’ उन दिनों मेरी पसंदीदा हीरोइन हुआ करती थीं.  
फिर युग बदले और सतयुग, त्रेता और द्वापर के बीतने के बाद इस कलयुग में फ़िल्मों में मेरी दिलचस्पी कम हो गयी. हमारी श्रीमती जी भी फ़िल्में देखने में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखती हैं. अब तो हाल यह है कि हमारी बेटियां ही हमको निर्देश देती हैं कि हम लोग किस मल्टीप्लेक्स में जाकर कौन सी फ़िल्म देखें. कभी-कभी तो वो हमसे बिना पूछे ही हमारे लिए किसी फ़िल्म की ऑन-लाइन टिकट बुक कराकर उसकी सूचना-मात्र हमको दे देती हैं.
हमारी दोनों बेटियों ने फ़िल्म ‘बधाई हो’ को हमारे लिए बड़े ज़बर्दस्त तरीके से रिकमेंड किया. इसका नतीजा यह हुआ कि हम कल इस फ़िल्म को देख आए.
वाह ! क्या शानदार फ़िल्म है ! धन्यवाद बेटियों ! तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हारी पसंद की दाद देते हैं.
फ़िल्म ‘बधाई हो’ जैसी कहानियां हमने अपने जीवन में बहुत देखी हैं. आज से पचास-साठ साल पहले तक माँ-बेटी और सास-बहू, एक ही समय में घर में नया मेहमान आने की खुशियाँ सुनाया करती थीं. स्त्रियाँ 15 साल की उम्र से लेकर 45 साल की उम्र तक, कभी भी और कितनी बार भी, माँ बन सकती थीं. बच्चों को भी चांदी के तारों जैसे बालों वाली माँ और बेंत पकड़ कर झुकी पीठ चलने वाले पिताजी को देख कर कोई ताज्जुब नहीं होता था. लेकिन आज के ज़माने में रिटायरमेंट के क़रीब पहुंचे हुए एक बुज़ुर्गवार और पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों को एक गुनाह मानने वाली एक अधेड़ महिला के बीच रोमांस और फिर दो बड़े-बड़े लड़कों की उस माँ के प्रेग्नेंट हो जाने की कहानी बहुत अजीब और बहुत हास्यास्पद लगती है. लेकिन कभी-कभी, हमारे आसपास, आज भी ऐसा होता है.     
        
आयुष्मान खुराना की आजकल चांदी ही चांदी है. पट्ठा हिट पर हिट फ़िल्में दे रहा है. लेकिन इस फ़िल्म में असली हीरो है इसका निर्देशक अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा !  कहानीकारों की जोड़ी शांतनु श्रीवास्तव और अक्षत घिल्डियाल ने भी कमाल कर दिया है.
इस फ़िल्म के कलाकारों में मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है, मेरे लिए अब तक अनजान – गजराज राव ने. आँखें नीचे कर शरमाते हुए वो जैसे अपनी पत्नी प्रियंवदा कश्यप (नीना गुप्ता) से रोमांस करते हैं या बच्चों को उनकी मम्मी के और अपनी माँ को उनकी बहू के, प्रेग्नेंट होने की धमाकेदार ख़बर देते हैं, उसकी तारीफ़ शब्दों में की ही नहीं जा सकती उसे तो बस देख कर महसूस किया जा सकता है.
और प्रियंवदा कश्यप बनी नीना गुप्ता तो कमाल की अभिनेत्री हैं ही. मुझे लगता है कि आंसू बहाती और खम्बे से बंधी – बचाओ-बचाओ’, चिल्लाने वाली फ़िल्मी माओं के सामने, सहज रूप से अपने पति के साथ रोमांस करने वाली पत्नी, अपने बच्चों पर बिना भाषण दिए हुए ममता लुटाने वाली माँ, और अपनी सास की झिडकियां सहते हुए भी उसे अपनी माँ जैसा प्यार देने वाली बहू की भूमिका निभाकर नीना गुप्ता ने यह घोषणा कर दी है कि –
बनावटी फ़िल्मी माओं, संभल जाओ ! अब मैं आ गयी हूँ.’
खुर्रैट सास, ममतामयी माँ और मुहब्बती दादी की भूमिकाएं निभाने में सुरेखा सीकरी ने तो गज़ब ढा दिया है. मुझे तो लगता है कि सुरेखा सीकरी को कोई निर्देशक अभिनय के गुर सिखा ही नहीं सकता, उन्हें तो बस कहानी और दृश्य के बारे में बता दिया जाता होगा और बाक़ी वो ख़ुद सम्हाल लेती होंगी.
आयुष्मान खुराना और सान्या मल्होत्रा की जोड़ी बड़ी प्यारी और ताज़गी भरी लगी है. जो लोग ख़ूबसूरत वादियों में फ़िल्मी जोड़ों को एक दूसरे के पीछे भागते हुए और गाते हुए देख-देख कर पक चुके हैं, उनके लिए इस नई रोमंटिक जोड़ी को देखना बहुत अच्छा लगेगा.
यह फ़िल्म इंटरवल तक तो हंसाते-हंसाते हुए हमको पागल कर देती है. इंटरवल के बाद कहानी मोड़ लेती है, उसमें गंभीरता आ जाती है लेकिन फ़िल्म कहीं भी बिखरती नहीं है. माँ के प्रेग्नेंट हो जाने से बेहद शर्मिंदा और बहुत नाराज़ होने वाले बेटे नकुल की भूमिका निभाने में आयुष्मान खुराना ने बहुत प्रभावित किया है पर जिस दृश्य में नकुल अपनी स्वार्थपरता पर शर्मिंदा होकर अपनी माँ से गले लगता है उसे देखकर मैं तो अपने आंसू नहीं रोक पाया. मैंने कनखियों से अपने बगल की सीट पर विराजमान अपनी श्रीमती जी को देखा तो पता चला कि वो मेरी तरह से छुपकर नहीं, बल्कि खुलेआम रो रही हैं.
फ़िल्मी निर्माता-निर्देशकों को अब यह समझ जाना चाहिए कि किसी फ़िल्म को हिट करने के लिए स्विटज़रलैंड की हसीं वादियों के दृश्य दिखाना, भव्य से भव्य सेट लगाना, और बड़े से बड़े स्टार्स की भीड़ जुटाना ज़रूरी नहीं है. अब अच्छी कहानी, अच्छे कलाकार और अच्छे निर्देशकों के साथ गली-मोहल्ले के साधारण मकानों में शूटिंग करके, कम बजट में, अच्छी से अच्छी और हिट से हिट फ़िल्म बनाई जा सकती है.
अब मैं अपने सभी मित्रों को इस फ़िल्म को देखने की सलाह देता हूँ. आपके पैसे वसूल न हों और आपको ऐसा लगे कि फ़िल्म देखकर आपका वक़्त बर्बाद हुआ है तो आप मुझसे रिफंड की मांग कर सकते हैं.  



Gajraj Rao · 
गोपेश जी नमस्कार ... आपकी हौंसला अफ़्जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया 🙏

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Geetika Jaswal Shared your post on Twitter and one of the writers Shantanu responded -
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13 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह्ह्ह सर...क्या बात है आप तो फिल्मी समीक्षा भी जबरदस्त लिखते हैं...लाज़वाब समीक्षा लिखा है आपने पात्रों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है आपने।
    वैसे फिल्में हम भी ज्यादा नहीं देखते है कोई खास रुचि नहीं है पर आपने तो उत्सुकता जगा दिया।
    लगता है देखना पड़ेगा:)
    सादर आभार आपका।

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  2. आपकी समीक्षा पढ़ ली काम हो गया :) फिलम देखे तो 40 साल तो हो ही गये होंग़े ।

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  3. धन्यवाद श्वेता जी. आप भी यह फ़िल्म देख आइए. घुटन भरी फ़ॉर्मूला फ़िल्मों के सामने आपको यह हवा के ताज़े झोंके जैसी लगेगी.

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  4. अल्मोड़ा में मल्टीप्लेक्स खुलवा दिए हैं फिर भी फ़िल्में देकने से परहेज़?

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  5. कल शाम हम ने भी परिवार सहित इस फिल्म का लुत्फ लिया ... और हमें कोई भी मुआवजा नहीं चाहिए |




    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 26/10/2018 की बुलेटिन, "सेब या घोडा?"- लाख टके के प्रसन है भैया !! “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. शिवम् मिश्रा जी, इस फ़िल्म के विषय में मेरी और आपकी राय मिलती-जुलती है. ऐसी साफ़-सुथरी और मनोरंजक फ़िल्में और बननी चाहिए.
    'ब्लॉग बुलेटिन' से मेरी रचना का जुड़ना मेरे लिए सदैव आनंद का विषय होता है. क़द्रदानी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.

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  7. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २९ अक्टूबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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    1. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच का मुझे हर सोमवार इंतज़ार रहता है और जब इसमें मेरी रचना भी शामिल होती है तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है.

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  8. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 31अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



    .

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    1. धन्यवाद पम्मी जी. 'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी रचना का सम्मिलित किया जाना मेरे लिए हमेशा गर्व का विषय होता है. मुझे कल के अंक की प्रतीक्षा रहेगी.

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  9. धन्यवाद अमित निश्छल. हम जैसे बुजुर्गों के आलेख आप नौजवानों को पसंद आएं, हमारे लिए इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. आश्चर्य तो यह है कि इस फ़िल्म के नौजवान कथाकार शांतनु श्रीवास्तव को और इसके मुख्य पात्र गजराज राव को भी यह आलेख पसंद आया है (मेरी बेटी ने अपने ट्विटर पर इसका लिंक डाला था).

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  10. 'बधाई हो' आपको भी! इतनी सुन्दर समीक्षा का.

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    1. विश्वमोहन जी, मैं एक सिद्ध-हस्त फ़िल्म-समीक्षक तो नहीं हूँ किन्तु एक जागरूक फ़िल्म-दर्शक अवश्य हूँ. इसलिए हो सकता है कि इस फिल्म के विषय में मेरे विचार इस फ़िल्म के अन्य दर्शकों को भी अच्छे लगे हों.

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