बुधवार, 14 नवंबर 2018

उपवास

यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है जो कि 11-12 साल की मेरी बड़ी बेटी गीतिका की ज़ुबानी सुनाई गयी है. इस कहानी का काल 1995-96 का है. 
उपवास
उपवास के नाम से ही मुझे कंपकंपी छूटने लगती है। लोगबाग भूखे-प्यासे रहने का रिकॉर्ड बनाते रहते हैं। हमारे देश में कच्चाहारी बाबा, फलाहारी बाबा, दूधिया माई वगैरा की कमी नहीं है। मेरे पापा बताते हैं कि सन् 1965 में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की अपील पर लाखों लोगों ने सोमवार की शाम को अन्न का त्याग करने करने का फ़ैसला कर लिया था। उपवासी देशभक्त आलू के कटलेट्स, खोए की बर्फी और मेवा पड़ा दूध पीकर ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा लगाते थे और भारत माता की जय बोला करते थे। 
हमारे देश में कोई दोनों नवरात्रियों में नौ-नौ दिन लगातार व्रत रखता है तो कोई रमज़ान में एक महीने तक सुबह से शाम तक भूखा-प्यासा रहता है। हमारे परिवार में अम्मा, मम्मी, नानी वगैरा बरसात के दिनों में दस दिन तक दश-लक्षण व्रत रखती हैं। उपवास करने वाले बहुत से लोगों में अनोखी बात ये होती है कि वो इन दिनों में बड़े जोश के साथ पूजा-पाठ भी करते हैं और खूब खुश भी रहते हैं। पर मैं तो उपवासों के मामले में अपने पापा की चेली हूँ। मैं और पापा जब भी उपवास रखते हैं तो वह निर्धारित समय से पहले ही तोड़ दिया जाता है। मेरी मम्मी मुझे सलाह देती रहती हैं कि मैं रात के खाने के बाद सुबह के नाश्ते तक का ही व्रत रखा करूं नहीं तो हर बार मुझ पर व्रत तोड़ने का पाप लगता रहेगा।
हिस्ट्री में हमको गांधीजी के उपवासों के बारे में पढ़ाया जाता है। मैं तो इन उपवासों के बारे में पढ़-पढ़ कर बहुत रोती हूँ। अच्छा है कि अब अंग्रेज़ हमारे देश से निकाल दिए गए हैं वरना हो सकता था कि मुझको भी उनके खिलाफ़ मोर्चा सम्भालने में एकाध बार उपवास रखना पड़ जाता। 
पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि वगैरा खूब उपवास रखते थे। पार्वती माता ने शिवजी को पति के रूप में पाने के लिए खूब उपवास किए थे पर इन सबने किसी को परेशान नहीं किया था। ये सब चुपचाप जंगलों में जाकर तप और उपवास करते थे। जो लोग अपने घरों में रहकर उपवास करते हैं उनमें से बहुतों से उनके घरवाले काफ़ी परेशान रहते हैं। पापा के लखनऊ वाले दोस्त माथुर अंकिल की मम्मी यानी हमारी माथुर दादी व्रत-उपवास रखने में महा चैम्पियन हैं पर इससे उनके घर में हमेशा खलबली मची रहती है। हनुमानजी और भगवान श्रीकृष्ण दोनों ने पहाड़ उठाए थे तो उनका बड़ा नाम हुआ था पर उपवास के दिनों में आसमान उठाने वाली हमारी माथुर दादी के कारनामों के बारे में लोग कम ही जानते हैं। माथुर अंकिल के घर में शिवरात्रि, दो-दो नवरात्रियां, जन्माष्टमी ही नहीं, हर एकादशी और हर अमावस्या पर दादी के व्रतों के कारण हंगामा मचा रहता है। हम लोगों की विण्टर वैकेशन्स का ज़्यादातर समय लखनऊ में ही बीतता है और वहां हम दिन में माथुर अंकिल के घर के कम से कम चार चक्कर तो लगा ही लेते हैं। मुझे, रागिनी और माथुर अंकिल के बेटे आलोक को दादीजी के व्रतों का बड़ा इन्तज़ार रहता है। मैं तो कैलेण्डर में दोनों पक्षों में पड़ने वाली एकादशियों की डेट्स पर लाल बाल पैन से सर्किल बना देती हूँ और आलोक अमावस्या का हिसाब रखता है। अब बच्चे तो खुद व्रत रखते नहीं तो फिर दादीजी के धरम-करम में उनकी इतनी दिलचस्पी क्यों? जवाब बिल्कुल सीधा है - दादीजी को व्रत रखने के लिए हम एनकरेज करते हैं इसलिए उनके व्रत रखने के पुण्य का कुछ हिस्सा तो हमको मिल ही जाता है और उस से भी ज़्यादा लाभ हमको उनका प्रसाद पाकर होता है। हम दोनों बहनें और आलोक, दादीजी के ख़ास दोस्त हैं। दादीजी बाल-गोपाल के साथ अपने उपवास की सारी सामग्री शेयर करती हैं। 
दादीजी के उपवास की सूचना माथुर आंटी को एडवांस में दे दी जाती है। इसका फ़ायदा यह होता है कि उपवासी दादीजी के लिए स्पेशल आहार का उत्तम प्रबन्ध हो जाता है। उपवास के दिनों में दादीजी अनाज से बने पकवानों को हाथ भी नहीं लगातीं। वो अपने बेटे और अपनी बहू पर रौब झाड़ते हुए कहती हैं -
‘ मुरारजी भाई ने अनाज खाना छोड़ दिया तो वो देश के प्रधानमन्त्री बन गए। तुम लोग सिर्फ़ तीज-त्यौहार पर भी अगर अनाज खाना छोड़ दो तो कम से कम प्रदेश के मुख्यमन्त्री तो बन ही सकते हो। ’
माथुर दादी व्रत के दिनों में सिर्फ़ फलों, दूध, मेवा और कुछ अन्य पवित्र आइटमों के सहारे अपना पूरा दिन काट लेती हैं पर उपवास की पूर्व संध्या पर वो दबा कर चाट-पकौड़ी और मिठाइयों का भोग लगाती हैं ताकि उपवास के दिन उन्हें कमज़ोरी न आए। हम बच्चों को न चाहते हुए भी दादीजी के इस अभियान में उनका हिस्सेदार बनना पड़ता है। उपवास से पहले की रात को दादीजी टीवी पर अपने पसंदीदा प्रोग्राम भी नहीं देखतीं और जल्दी ही सो जाती हैं। उपवास के दिन दादीजी बड़े सवेरे उठकर, नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग जाती हैं । भगवानजी की मूरत के सामने एक चौकी पर विराजी जाप करती और घण्टी बजाती हुई दादीजी और उनके पीछे एक दरी पर हाथ जोड़कर बैठे हुए नहाये-धोये हम तीनों बच्चे घर को मन्दिर जितना पवित्र बना देते हैं पर माथुर आंटी को तो दादीजी का हर उपवास बम के धमाके से कम ख़तरनाक नहीं लगता। जब मम्मी लखनऊ में होती हैं तो हमारी तरह दादीजी के हर उपवास में उनकी अटेन्डेन्स माथुर अंकिल के घर में लगना ज़रूरी है पर उनको तो माथुर आंटी अपनी हेल्प करने के लिए बुलाती हैं। 
सवेरे की पूजा समाप्त होते ही घण्टे और शंख बजाकर दादीजी किचिन में अपनी ड्यूटी पर तैनात बहूरानी और उनकी हैल्पर मम्मी को इशारा कर देती हैं कि उनके फलाहार का समय हो चुका है। माथुर आंटी एक बड़े से थाल में फलों का एक ऊँचा टीला बनाकर ले आती हैं। हमारा हिस्सा हमको मिल जाता है पर बाकी को बेचारी दादीजी को ही खत्म करना पड़ता है। इसके बाद दादीजी के लिए सी0 डी0 प्लेयर पर भजन लगा दिए जाते हैं और वो अपने बिस्तर पर लेट कर, आँखें मूंदकर उन्हें सुनती हैं पर पेट में अन्न का एक भी दाना डाले बिना कोई कैसे ठीक रह सकता है? दादीजी के हाथ-पैर झनझनाने लगते हैं। वो फ़ौरन बच्चों को बुला भेजती हैं और हम बच्चे कभी उनके पैर दबाते हैं तो कभी उनके हाथ और हमारी यह सेवा तब तक चलती रहती है जब तक कि आंटी मेवे की खीर नहीं ले आतीं। दादीजी कमज़ोरी के बावजूद खीर खाकर लेट जाती हैं और हम बच्चों को हमारा मेहनताना उसी समय मिल जाता है। पर व्रत में पता नहीं क्यो, दादीजी को मीठे पकवान ज़्यादा अच्छे नहीं लगते इसलिए घर में आलू और केले के चिप्स का इन्तज़ाम तो रखना ही पड़ता है। हम बच्चे भी व्रत के दिनों में अनाज की बनी हुई चीज़ों को टाटा कर देते हैं। रोटी, दाल और चावल खाकर हम भला पापी क्यों बनें? हम भी दादीजी की तरह फलाहारी और चिप्साहारी बन जाते हैं।
तीसरे पहर पर जब पापी लोग स्नैक्स के साथ चाय पीते हैं तो हमारी त्यागी दादीजी सिर्फ़ मलाई के लड्डू और घर में ही बने हुए पेड़ों का ही भोग लगाकर सो जाती हैं। 
शाम को एक लम्बी आरती का आयोजन होता है पर इससे पहले दादीजी सिंगाड़े के आटे की थोड़ी पकौडि़यां और कूटू के आटे की कुछ कचौडि़यों का आहार ले लेती हैं। भजन और आरती करके और भगवानजी को भोग लगाकर गोंद, नारियल और मेवे की पंजीरी खाकर दादीजी अपना उपवास तोड़ती हैं। सबको प्रसाद मिलता है और इसके बाद मेवे वाला दूध डकारते हुए दादीजी टीवी के सामने डट जाती हैं और पिछले दिन मिस हुए सीरियल्स की पूरी कहानी के बारे में तमाम इन्क्वायरी कर अपनी नॉलेज अपडेट कर लेती हैं। 
अब माथुर दादी कुछ कमज़ोर हो गई हैं क्योंकि हर उपवास के बाद उनका पेट थोड़ा खराब हो जाता है। डॉक्टर्स दादीजी को उपवासों से दूर रहने की सलाह देते हैं पर उनकी भक्ति उन्हें लगातार उपवास करते रहने की हिम्मत सप्लाई करती रहती है। इधर उनके हर उपवास के अगले दिन पता नहीं क्यों माथुर आंटी के सर में ज़ोरों का दर्द शुरू हो जाता है। कभी-कभी इसमें मम्मी भी उनका साथ देती हैं। माथुर दादी परेशान होकर माथुर अंकिल और मेरे पापा से कहती हैं - 
‘ आजकल की बहुओं के तो ढंग ही निराले हैं। दिन भर खा-पीकर भी इनके सर में दर्द हो जाता है और एक हम बूढ़ी हैं कि दिन भर मुहं में अन्न का एक भी दाना डाले बिना भगवान का भजन करती रहती हैं और फिर भी उफ़ तक नहीं करतीं। शिव ! शिव ! ’
आजकल माथुर आंटी और मेरी मम्मी हमको आइसक्रीम और चाकलेट की रिश्वत देने की कोशिश करती रहती हैं। इसके बदले में वो हमसे बस इतना चाहती हैं कि हम दादीजी को आने वाले उपवासों की याद न दिलाएं और उनके साथ उपवास वाले आइटम्स खाना बन्द कर दें। पर आंटी और मम्मी की ऐसी हर कोशिश नाकाम होगी। हम धर्मात्मा टाइप बच्चे न तो दादीजी के उपवासों में विघ्न डालेंगे और न ही उनके उपवास के दिनों में खुद अन्न का एक भी दाना ग्रहण करेंगे। हम मम्मी और आंटी को बहुत प्यार करते हैं पर हमको अपना धर्म उनसे भी ज़्यादा प्यारा है क्योंकि उसके साथ जुड़े हैं बढि़या फल, मेवे की खीर, पेड़े, मलाई के लड्डू और चटपटे चिप्स।

20 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी पढ़ कर हमें भी उपवास का पुण्य प्राप्त हो गया। जय हो आपकी।

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू . अगर हम भूले से कभी उपवास करते थे तो आम दिनों की तुलना में दुगुना-तिगुना तो डकार ही लेते थे. दुष्ट डॉक्टर्स ने हमारे ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों पर पूर्ण नियंत्रण लगा दिया है. पर तुम ऐसे उपवास अवश्य रक्खो.

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  2. "उपवास" का कथानक रोचक और उद्देश्य हृदयंगम करने लायक है । अपने आसपास के बहुत सारे किस्से याद आ गए ।

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  3. धन्यवाद मीनाजी. इस कहानी में कल्पना का लेशमात्र भी पुट नहीं है. हमारी स्वर्गीया चाची का व्रत माथुर-दादी जैसा ही विस्तृत मेन्यू वाला होता था. मैं उन से मज़ाक़ में कहता था कि अगर वो हमको भी अपने व्रत-भोज में शामिल करें तो वो साल में 365 दिन ऐसे ही व्रत किया करें.

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  4. सर, आप तो उपवास की अजब महिमा का बखान कर रहे है बहुत पाप लगेगा। बडी़-बुजुर्ग दादी,नानी,चाची जिसने भी उपवास रखा उनका खाना तो दिखता है हमको पर उनका त्याग नहीं दिखता। सब मज़ाक उड़ाते है बदलते दौर के साथ अब तो जब लोग जवानी में ही बीमारी का घर बनते जा रहे हैं ऐसे में तो बस सांकेतिक उपवास रखेगें।
    सर,उपवास तो हम भी रखते हैं,खूब रखते हैं पर इतना थोड़ी खाते है, न पहले न बाद में और न ही उपवास में।
    उपवास में त्याग का सर्वाधिक महत्व है अगर त्याग के बाद भी मोह न गया तो ऐसे त्याग को ढ़ोंग की श्रेणी में रखा जायेगा न।
    एक बात तो है पर बहुत अच्छी खिंचाई की है हमेशा की तरह चिरपरिचित अंदाज़ में।

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    1. श्वेता जी. दस साल पहले हल्दीराम की स्पेशल थाली 150/- की होती थी और व्रत वाली (बिना अनाज वाली और 18 पकवान वाली) 250/- की होती थी. अब के दाम मुझे पता नहीं. मैंने रोज़े से पहले सहरी खाते तो लोगों को नहीं देखा पर रोज़ा ख़त्म होते ही इफ़्तार-दावतों में लोगों को ठूंस-ठूंसकर कर खाते देखा है. आप व्रत में संयम बरतती हैं तो यह बुरी बात है, आपके बच्चे आपके साथ व्रत करने से बचते होंगे और एक हम थे जो अपने बड़ों के व्रतों में खुद बिना व्रत किए उनके लिए बनाए गए स्पेशल पकवानों को ख़त्म करने में हमेशा उनका साथ देते थे.

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    2. हा हा हा..सर मेरी एकमात्र बिटिया दस साल की है अभी..उसे भी व्रत में खाये जाने वाला हलुआ,खीर,दूध या फल जैसे सादा हम लेते हैं वैसे ही पसंद, घर की परंपरा के अनुसार सब ढल जाते है न..।

      जी सर,
      व्रत उपवास में बाहर का खाना होता है ये हम नहीं जानते हैं।

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    3. श्वेता जी, हम जैनों में दस-लक्षण पर्व के दौरान हाथ का पिसा आटा. घर का बना घी, घर में ही दूध से पकाया गया खोया, चीनी की जगह बूरा, थोक में मेवा और फल के बिना पेटुओं का उपवास नहीं होता. हाँ, कुछ लोग तो 10-10 दिन निर्जल व्रत रखते हैं. पर हमारे जैसे लोग और बच्चे, व्रत-धारियों की पहली बिरादरी में ही आते हैं.

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  5. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. धन्यवाद शिवम् मिश्राजी. 'ब्लॉग बुलेटिन' के बच्चों को समर्पित अंक में अपनी रचना के सम्मिलित किए जाने पर मैं गौरवान्वित हूँ.

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  6. आदरणीय गोपेश जी ००० यदि मेरी उन्नीस वर्षीय बिटिया ने गलती से आपकी ये कहानी पढ़ ली तो मैंने जो उसे उपवास के लिए कड़ी मेहनत से जो सिखाया है सब भुला देगी और कभी उपवास नहीं रखेगी | संयम का दुसरा नाम है उपवास -- अगली पीढ़ी में भी संयम आये सो उन्हें अपनी परम्पराओं से परिचित करवाना जरूरी है |हम लोग बचपन में बहुत सरलता से सब चींजों का अनुसरण कर लेते हैं पर आज के बच्चे बहुत आसानी से कुछ नहीं करते और उस पर आपकी ये कहानी सब खेल बिगाड़ देगी | दादी लोगों की श्रद्धा को तो बारम्बार नमन है उन जैसे तो हम भी नही |

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  7. रेनू जी, बिटिया को उपवास के दिनों में भी मुस्कुराने दीजिए, खिलखिलाने दीजिए. और उसकी उम्र में हम ही क्या, हमारे अधिकतर बुज़ुर्ग भी उपवास में वैकल्पिक पकवानों पर टूट पड़ना ही त्याग और बलिदान की कहानी समझा करते थे. मेरे बाल-कथा संग्रह - 'कलियों की मुस्कान' की प्रत्येक कहानी में मेरी 11-12 वर्षीय बेटी गीतिका (जो कि आज दो प्यारे से बच्चों की माँ है) बड़ों की शरारतों के खुलासे करती है किन्तु कभी भी उनका अनादर नहीं करती है. हास्य-व्यंग्य के अमर चितेरे, मार्क ट्वेन को बच्चों की शिक्षाप्रद कहानियों से बहुत चिढ़ थी. मेरी कलम को उन्हीं की मस्ती ने, ऐसे चलने की प्रेरणा दी है.

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    1. जी गोपेश जी -- मेरी बिटिया भी बहुत ही हंसमुख स्वभाव की है | वैसे मैं उसे समझाती भर हूँ उसे उपवास में पारंगत करने का दायित्व सासू माँ निभाती हैं जिन्होंने हमेशा उसे उपवास के लिए प्रेरित करने के लिए कई उदार प्रबंध कर रखे हैं पर धीरे धीरे बिटिया खुद भी संयम से व्रत रखना सीख गयी है | आपकी मस्त कलम के हम सब मुरीद हो गये हैं | हंसने हंसाने के लिए प्रेरित जो करती है जिसका आभार शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता | ऐसे ही बने रहिये |

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    2. भगवान करे कि बिटिया की मुस्कराहट और उसकी खिलखिलाहट यूँ ही खुशियाँ बिखेरती रहे. बिटिया की उम्र के जब हम थे तो दस-लक्षण पर्व में कोई व्रत नहीं करते थे पर उन दिनों हमको आलू खाने को नहीं मिलते थे. जैसे ही आलू-निषेध समाप्त होता था, हम बच्चे माँ से ढेरों आलू की टिक्की बनवाकर खाया करते थे. आप कभी हमको अपने घर बुलाएं तो उस दिन बुलाइयेगा, जिस दिन आपका और बिटिया का व्रत न हो. इस से हमको दो फायदे होंगे. पकवानों की संख्या अधिक होगी और आप सबके भरे पेट वाले चेहरे खिले हुए होंगे.

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    3. आदरनीय गोपेश जी आपका हार्दिक स्वागत है | मैं चाहूंगी वो दिन आये जरुर जब आपका आथित्य का सौभाग्य मिले |और बचपन में व्रत उपवास सभी बच्चे ऐसे ही करते हैं |मैं बचपन में शरीर से थोड़ी दुबली थी तो मेरी माँ तो मुझे जन्माष्टमी और शिवरात्री के सिवाय कोई उपवास नही करने देती थी , पर सासु मन के सानिध्य में मैंने खूब उपवास किये ,पर मैं नहीं मानती कोई उपवास करने वाला ही सच्चा उपासक होता है | ईश्वर को खुश करने के लिए उपवास नहीं अपितु अच्छे आचरण की जरूरत है | हाँ उपवास से भीतर ऊर्जा का संचार जरुर होता है | सादर --

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    4. रेनू जी, इतने प्यार से आप बुलाएंगी, तो हम ज़रूर आएँगे और बिटिया रानी से भी मिलेंगे.
      मेरी माँ को अपना गोलू-मोलू छोटा बेटा (अर्थात् मैं) दुनिया का सबसे प्यारा बच्चा लगता था और उसे वो मक्खन-मलाई जैसा तरोताज़ा देखने के लिए व्रत-उपवास से हमेशा दूर रखती थीं.
      निष्कर्ष यह निकलता है कि बच्चा/बच्ची चाहे कमज़ोर हो या हृष्ट-पुष्ट, किसी भी माँ से अपनी औलाद का भूखा रहना देखा नहीं जाता.

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  8. वाह उपवास की खूब महिमा बखान की है आपने👌उपवास सिर्फ खाने का नहीं होता भगवान के प्रति अपनी आस्था का प्रतीक होता है।

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    1. धन्यवाद अनुराधा जी. खुद पर और अपने आत्मीय-जन पर हलकी-फुल्की छींटाकशी हमारे उदास जीवन में ताज़गी ले आती है. सच्चे मन से ईश्वर-भक्ति करने के लिए उपवास की कोई महत्ता नहीं है, खासकर तब जब कि उपवास में मेवे और मलाई की हैवी डोज़ आवश्यक समझी जाती हो.

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  9. उपवास का अर्थ ही है अपने समीप बैठना अर्थात अपने आहार, अपने आचार और अपने ही विचार में डूबना। इस हिसाब से तो दादीजी का उपवास अत्यंत अनुकरणीय है, कम से कम मैं तो इसी आश्रम का अंतेवासी हूं। अब लिखने वाले जो लिखें। :)

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  10. विश्वमोहन जी, अपने बचपन से ही मुझको माथुर-दादी जैसे उपवास पसंद हैं किन्तु अब मेरा पूरा परिवार ऐसे किसी भी उपवास का प्रबल-विरोधी हो चुका है. अब ऐसे धर्म-लाभ की सुविधा सभी उपवासियों से छीन ली गयी है. क्या आप मुझे अपने घर बुलाकर माथुर-दादी जैसे उपवास की सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं?

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