शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

दुनिया न माने

दुनिया न माने –
1937 में रुपहले परदे पर व्ही शांताराम की एक फ़िल्म आई थी - ‘दुनिया न माने’. बेमेल विवाह की समस्या पर इस से बेहतर कोई फ़िल्म हो ही नहीं सकती. एक कम उम्र की लड़की को जबरन एक अधेड़ विधुर से ब्याह दिया जाता है लेकिन वो लड़की अपने बाप की उम्र के इस शख्स को अपना पति स्वीकार ही नहीं करती. धर्म और समाज के ठेकेदारों के अनवरत विरोध के बावजूद धीरे-धीरे परिस्थियाँ इस विद्रोहिणी लड़की के लिए अनुकूल होती जाती हैं. उसके अधेड़ पति को खुद ये एहसास होता है कि उसने एक मासूम के सपनों का खून किया है. पश्चाताप की आग में जलते हुए वह एक पत्र में उस लड़की को नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करने की गुज़ारिश करता है और फिर आत्म-हत्या कर लेता है.
हमारी यह कहानी इस फ़िल्मी कहानी से मिलती-जुल्ती तो है लेकिन इसमें थोड़ा ट्विस्ट है.
हमारी कहानी आज से करीब 50 साल पुरानी है.
प्रिंसिपल रामचन्द्र शुक्ल की पूरे कीर्तिनगर में बड़ी इज्ज़त थी. और दूसरी तरफ़ उनके बचपन के दोस्त लाला भानचंद थे जिनकी ख्याति सूदखोर बनिये के रूप में कीर्तिनगर की सीमाओं को भी लांघ चुकी थी.
लोगबाग उजाले और अँधेरे की इस दोस्ती पर बड़ा अचरज करते थे लेकिन 50 साल पुरानी इस दोस्ती में कभी कोई दरार नहीं पड़ी थी.
प्रिंसिपल साहब की एक बेटी थी, जिसकी शादी हो चुकी थी और वह सपरिवार पूना में रहती थी. कीर्तिनगर में तो शुक्ल जी और उनकी श्रीमती जी ही रहते थे.
लाला भानचंद के दो बेटियां थीं, दोनों ही विवाहित थीं. दुर्भाग्य से लाला जी की श्रीमती जी दो साल पहले उनका साथ छोड़कर स्वर्ग सिधार गयी थीं. लाला जी बेचारे अपने हवेली जैसे बड़े से घर में अकेले ही दिन और रात बिताने को मजबूर थे.
शुक्ल जी, लाला जी को धर्म-दर्शन के जो उपदेश देते थे, वो उनके पल्ले नहीं पड़ते थे और जब वो –‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ जैसे उनके प्रिय सिद्धांत के ख़िलाफ़ कुछ बोलते थे तो उनके तन-बदन में आग लग जाती थी. हर बार ऐसी सभा, बे-नतीजा भंग हो जाती थी.
एक बार शुक्ल जी और उनकी श्रीमती जी अपनी बिटिया से मिलने पूना चले गए. एक महीने बाद वो लौटे तो देखा कि सारे कीर्तिनगर में हंगामा मचा हुआ है. उनके पांवों तले ज़मीन खिसक गयी जब उन्हें पता चला कि पचपन साला विधुर, दो विवाहित बेटियों के पिता, उनके लंगोटिया यार, लाला भानचंद ने एक इक्कीस साल की कन्या से चुपचाप शादी कर ली है.
अपने घर लौटने के 15 मिनट बाद ही शुक्ल जी को लाला भानचंद के घर का दरवाज़ा पीटते हुए देखा गया. लाला जी घर पर नहीं थे पर दरवाज़ा फिर भी खुला और उसे खोला एक लड़की ने. लड़की ने शुक्ल जी को देखते ही कहा –
‘अरे, सर आप?’
इतना कहकर वह उनके चरण छूने के लिए झुक गयी.
और शुक्ल जी ने उस लड़की को देखते ही कहा –
‘अरे किरण तुम?’
और इतना कहकर उन्होंने अपने दोंनों हाथों से अपना सर पीट लिया.
लाला भानचंद, अपने परम मित्र शुक्ल जी की ही एक पूर्व छात्रा किरण गुप्ता को ब्याह कर अपने राज-महल में ले आए थे.
किरण गुप्ता ने बताया कि क़र्ज़ में डूबे हुए उसके नशेड़ी और जुआड़ी बाप फूलचंद गुप्ता ने उसको तीस हज़ार रुपयों में लाला भानचंद के हाथों बेच दिया था और उसके विरोध करने पर ज़हर खाकर अपनी जान देने की धमकी देकर उसे इस बेमेल विवाह को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया था.
किरण ने बिना कोई संकोच किए अपने गुरु जी को यह भी बता दिया कि वह एक लड़के से प्यार करती है और अपने जीते जी बुढ़ऊ लाला भानचंद को अपना हाथ तक भी छूने नहीं देगी.
शुक्ल जी ने मरते दम तक इस लड़ाई में किरण का साथ देने का वादा किया और फिर उसके सर पर हाथ रखकर उन्होंने उस से विदा ली.
उसी शाम खिसियाते हुए, शरमाते हुए, थोड़ा डरते हुए, लाला भानचंद, शुक्ल जी के घर पधारे. हाथ में लाया हुआ मिठाई का डिब्बा उन्होंने टेबल पर रक्खा और फिर बेशर्मी से अपनी खींसे निपोर कर, अपने हाथ जोड़कर, अपने दोस्त के सामने खड़े हो गए.
श्रीमती शुक्ल आशंकित होकर चुपचाप इन दोनों दोस्तों का मिलन देख रही थीं.
शुक्ल जी ने टेबल पर रक्खा हुआ मिठाई का डिब्बा उठाया और फिर उसे अपने नव-विवाहित दोस्त के लगभग गंजे सर पर पटक दिया.
जब तक घायल दोस्त – ‘अरे ये क्या कर रहे हो?’
और श्रीमती शुक्ल – ‘हाय राम ऐसे भी कोई करता है?’
वाक्य पूरे करें, उन्होंने धक्का देकर लाला जी को अपने घर से निकालकर दरवाज़ा बंद कर लिया.
15 मिनट बाद श्रीमती शुक्ल ने डरते-कांपते, सहमे-थरथराते हुए, लाला भानचंद को परशुराम बने अपने पतिदेव के सामने फिर खड़ा कर दिया.
इस बार बेमेल विवाह का अपराधी घर से धक्के मारकर निकाला तो नहीं गया लेकिन उसकी भर्त्सना में हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के चुनिन्दा शब्दों का जमकर उपयोग किया गया.
गालियाँ खाते-खाते लाला भानचंद ने अपने मित्र के पैर पकड़ते हुए कहा –
‘दोस्त ! जब से तुम्हारी भतीजियाँ अपनी-अपनी ससुराल गयी हैं और तुम्हारी भाभी मुझे हमेशा के लिए छोड़कर गयी है, मुझे अपना घर काटने को दौड़ता है. अब बुढ़ापे में अकेला नहीं रहा जाता. इसलिए मैं जीवन-संगिनी ले आया.’
मित्र ने दहाड़कर कर कहा –
‘जीवन-संगिनी लानी ही थी तो कोई अपनी हम-उम्र लाते. ये नातिनी क्यों ले आए? तुम विधुर हो, अपनी उम्र की किसी विधवा, तलाकशुदा या किसी चिर-कुमारी से शादी करते तो हमारा-तुम्हारा परिवार ही क्या, सारा समाज खुशी-खुशी उसमें शामिल होता.’
लाला ने अपने दोस्त के मक्खन लगाते हुए कहा –
‘गुस्सा थूक दो दोस्त ! अब तो तुम हमारी किरण को आशीर्वाद दो कि वह अपनी नई ज़िन्दगी सुख से बिताए.’
शुक्ल जी ने अपने दोस्त के मक्खन लगाए जाने का जवाब उनके कलेजे पर छुरी चलाते हुए दिया –
‘किरण मेरी छात्रा थी. उसको मैं आशीर्वाद तो तुम्हारे घर जाकर ही दे आया हूँ और साथ में उस से यह वादा भी कर आया हूँ कि इस बेमेल शादी को तुड़वा कर, उसकी शादी उस लड़के से करवाऊँगा, जिसे वो प्यार करती है.’
गुस्से से तमतमाते हुए लाला जी ने अपने मित्र से पूछा –
‘अच्छा तो किरण का पहले से कोई चक्कर है? अपनी अंटी में तीस हज़ार रूपये ठूंसते हुए तो उसके बाप ने मुझे ये बात नहीं बताई थी.’
शुक्ल जी बोले –
‘तुम्हारे तीस हज़ार रूपये डूबेंगे नहीं. माना कि किरण का लालची बाप तुम्हारे पैसे नहीं लौटाएगा पर अपने प्रोविडेंट फण्ड से इतने रूपये निकालकर मैं तुम्हें दे दूंगा. बस, तुम किरण को इस पाप-बंधन से मुक्त कर दो.’
लाला जी इधर-उधर झाँकने लगे पर तभी शुक्ल जी ने एक और बम दाग दिया –
‘किरण अब तुम्हारे घर में नहीं रहेगी. अपने लालची बाप का तो वो मुंह भी नहीं देखना चाहती है. जब तक तुम्हारे तीस हज़ार तुमको वापस नहीं मिलते तब तक वो हमारी दूसरी बेटी बनकर हमारे साथ रहेगी. तुमसे बंधन-मुक्त होकर वो जहाँ जाना चाहेगी, जा सकती है. मेरे इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ तुमने कुछ भी चूं-चां की तो मैं तुम्हारे ख़िलाफ़ जन-आन्दोलन करा दूंगा. इस मामले में मैं ईश्वरचंद्र विद्यासागर का चेला हूँ.’
कुछ ही समय बाद गुरु और गुरुमाता अपनी इस दूसरी बेटी को अपने घर ले आए और लाला भानचंद की उन्हें रोकने की हिम्मत भी नहीं हुई.
दो दिनों बाद किरण की बुआ जी प्रभा देवी शुक्ल जी के घर पहुँचीं.
किरण को बहुत-बहुत प्यार करने वाली, परिपक्व आयु की, भव्य व्यक्तित्व वाली, प्रभा देवी एक बाल-विधवा थीं. वो एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. उन्होंने इस बेमेल विवाह को रोकने की लाख कोशिशें की थीं पर उनका लालची भाई अपने फ़ैसले पर अडिग रहा था. इस शादी के बाद प्रभा देवी ने अपना पैतृक घर छोड़ दिया था और अब वो एक किराए के एक छोटे से मकान में रहने लगी थीं.
प्रभा देवी बैंक से लोन लेकर लाला भानचंद के तीस हज़ार रूपये वापस करने का इंतज़ाम भी कर रही थीं. प्रभा देवी अब चाहती थीं कि बुआ-भतीजी साथ रहकर ज़िन्दगी की सभी मुश्किलों का सामना करें.
शुक्ल दंपत्ति प्रभा देवी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ.
किरण कुछ दिन बेटी की तरह शुक्ल दंपत्ति के साथ रहकर अपनी बुआ के साथ उनके घर चली गयी. लाला भानचंद की उसे रोकने की हिम्मत ही नहीं हुई. शायद अब लाला जी को भी अपनी गलती का कुछ-कुछ एहसास हो गया था.
तीस हज़ार रुपयों की रकम की पहली किश्त के रूप में 10 हज़ार रूपये लेकर जब प्रभा देवी शुक्ल जी के पास आईं तो उन्होंने कुछ सोचकर उन्हें लाला भानचंद के पास भेज दिया.
आश्चर्य ! लाला भानचंद प्रभा देवी से बहुत सभ्यता से पेश आए और उनके अनुरोध पर वो तलाक़ के कागज़ात पर दस्तख़त करने को भी तैयार हो गए. और तो और उन्होंने वो 10 हज़ार रूपये भी लेने से इंकार कर दिया.
इस समाचार को सुनकर शुक्ल जी के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान आ गयी. उन्होंने अपनी श्रीमती जी से कहा –
‘मेरे मन में एक ब्रिलियंट आइडिया आया है. इस शरीफ़ हो चुके लाला की क्यों न प्रभा देवी से शादी करवा दी जाए?
लाला और किरण के तलाक़ होने तक इन दोनों की बार-बार मुलाक़ात करवाते हैं.’
श्रीमती शुक्ल को भी यह योजना बहुत पसंद आई.
अगले 6 महीनों तक लाला जी और प्रभा देवी किरण-लालाजी के तलाक़ के सिलसिले में कई बार मिले. सुधरे हुए लाला जी और उसूलों वाली प्रभा देवी के बीच अच्छी खासी दोस्ती भी हो गयी थी.
लालाजी और किरण के बीच आपसी सहमति से तलाक़ हो गया.
इधर शुक्ल जी और प्रभा देवी ने किरण के दोस्त नवल को उस से शादी करने के लिए राज़ी भी कर लिया. दोनों की शादी की तारीख भी पक्की हो गयी.
लाला भानचंद, प्रभा देवी के साथ अपने मित्र के घर पधारे और उन्होंने किरण-नवल की शादी की एक अद्भुत शर्त रख दी. और वह शर्त थी कि अपने पापों का प्रायिश्चित करने के लिए किरण का कन्यादान वो खुद करेंगे.
शुक्ल जी ने इस शर्त को अपनी एक शर्त लगाकर सहर्ष मान लिया. उन्होंने प्रभा देवी और लाला भानचंद के सामने अपनी शर्त रक्खी –
‘तुम दोनों ही एक-साथ मिलकर किरण का कन्यादान करोगे. लेकिन अगले दिन एक और विवाह होगा जिसमें मैं कन्यादान करूंगा और इसमें तुम दोनों को आना होगा’
लाला जी और प्रभा देवी ने एक साथ शुक्ल जी से पूछा –
‘अगले दिन किन की शादी होगी?
शुक्ल जी ने अपनी श्रीमती जी की तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा और फिर कहा –
‘तुम दोनों की शादी ! और हाँ, हमारी दोनों भतीजियाँ भी अपने पिताजी और अपनी नई माँ को शुभकामनाएँ देने के लिए यहाँ पहुँच रही हैं.
तो मित्रों ! इन दो विवाहों के संपन्न होने से फ़िल्म ‘दुनिया न माने’ की कहानी में एक खूबसूरत ट्विस्ट आ गया और हमारी कहानी पूर्णतया सुखान्त हो गयी.

22 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 01 दिसम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. धन्यवाद यशोदा जी.
      'मुखरित मौन' के माध्यम से मेरी रचना और उसमें निहित सन्देश, सुधी पाठकों तक पहुंचेंगे. कल के अंक की मुझे प्रतीक्षा रहेगी.

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  2. क्या बात है सर... पूरी फिल्मी स्टाइल रोचक कहानी..बहुत आनंद आया पढ़कर...आपके लिखने की शैली बहुत ही अच्छी है..लाज़वाब, सुरुचिपूर्ण, सुघढ़..वाहहह👌

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    1. धन्यवाद श्वेता जी.
      दो प्रौढ़ स्त्री-पुरुष के मध्य ऐसे वैवाहिक संबंधों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. मेरे बड़े चाचाजी लखनऊ विश्वविद्यालय में गणित विभाग में रीडर थे. 50 वर्ष से 3 महीने कम की आयु में उन्होंने हरिजन एवं समाज-कल्याण विभाग में 41 वर्षीय असिस्टेंट डायरेक्टर से विवाह किया. हमारे चाचा-चाची का 33 वर्ष का वैवाहिक जीवन बहुत ही प्यार से बीता. चाची की मृत्यु के बाद चाचाजी 5 वर्ष और जीवित रहे और चाची को हमेशा याद करते रहे.
      इस कहानी को मैंने जानबूझकर उस अमर फ़िल्म-कथा से जोड़ा है.

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  3. अब आपने शादियां करवाना शुरू कर दिया वाह

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    1. सुशील बाबू, हमारे कैंपस में कई चिर-कुमार और चिर-कुमारी थे. मेरी कहानी पढ़कर उन में से शायद कोई अपना घर बसाने का फ़ैसला कर ले.

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  4. क्रांतिकारी कदम..., ऐसे लोग समाज में कम ही मिलते हैं और मिलते हैं तो कहानी बनती है । बहुत सुन्दर....,

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    1. धन्यवाद मीना जी.
      मेरी कहानियां और मेरे संस्मरण - 'आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना' की श्रेणी में आते हैं.
      वैसे ऐसा क्रांतिकारी क़दम अगर कोई उठाता है तो उसका न केवल स्वागत किया जाना चाहिए अपितु उसका समर्थन भी किया जाना चाहिए.

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  5. अरे ,जैसे पूरा चलचित्र आँखों के.सामने चल रहा हो ,बिल्कुल ऐसा ही महसूस हो रहा था ,कहानी पढते समय । बहुत सुंदर !!👌

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद शुभा जी.
      महान चलचित्र 'दुनिया न माने' से प्रेरित होकर ही तो मैंने यह कहानी लिखी है. लेकिन इसमें एक सच्ची घटना को भी थोड़े फेर-बदल के साथ जोड़ दिया है.

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 30/11/2018 की बुलेटिन, " सूचना - ब्लॉग बुलेटिन पर अवलोकन 2018 “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना का शामिल किया जाना मेरे लिए सदैव हर्ष का और गर्व का विषय होता है.

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  7. तिरछी नही सर सटीक निगाहें हैं आपकी!
    सार्थक विषयों को इतनी मौलिकता से पेश करते हैं आप कि सारा घटना क्रम स्वतः ही दृश्य मान हो जाता है।
    बहुत ही सार गर्भित सोच है समाज सुधार के लिए और आपकी प्रस्तुति लाजवाब है जो शायद कई लोगों को नई सोच और नये कदम उठाने को प्रेरित करे।

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    1. धन्यवाद कुसुम जी.
      मुझे समाज-सुधार के लिए सतत प्रयत्नशील विभूतियाँ, हमारे राज-नेताओं से कहीं अधिक प्रभावित करती हैं.
      हम इन राज-नेताओं की और शासकों की भले ही दैत्याकार मूर्तियाँ स्थापित कर लें लेकिन हमारे दिलों में समाज-सुधार के लिए समर्पित महान सुधारकों की मूर्तियां स्वतः, सदा-सदा के लिए स्थापित हो जाती हैं.
      इस कहानी को लिखने की प्रेरणा मुझे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व से मिली है.

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  8. बहुत ही बेहतरीन कहानी का अंत भी बेहद खूबसूरत था।वाह्हह बहुत सुंदर 👌👌

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    1. धन्यवाद अनुराधा जी.
      'सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाय तो वह भूला नहीं कहलाता.'
      और
      'अंत भला तो सब भला !'

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  9. सार्थक सन्देशयुक्त रोचक कहानी ।

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    1. धन्यवाद महेंद्र वर्मा जी.
      हमारे पुरुष-प्रधान समाज में 'साठे पे पाठा' वाली मसल चलती है, इसलिए 60 साल के पुरुष की 20-21 साल की लड़की से शादी को जायज़ ठहराया का सकता है.

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  10. 'पांच लिंकों का आनंद' के माध्यम से मेरी कहानी - 'दुनिया न माने' को पाठकों तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद मीना जी.

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  11. बहुत सुंदर कहानी....,आपकी प्रस्तुति का अंदाज़ भी बेहद निराला हैं ,सादर नमस्कार सर

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  12. बहुत ही लाजवाब कहानी.....सच मेंं बिल्कुल एक चलचित्र सा मनोमस्तिष्क में दिखाई दिया शुरू से अन्त तक कुतुहल एवं रौचकता बनी रही वाकई यह कहानी सार्थक संदेश युक्त एवं समाजसुधारक है...बहुत ही प्रभावी लेखन शैली...अद्भुत और लाजवाब...।बहुत बहुत बधाइयां एवं शुभकामनाएं।

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  13. आदरणीय गोपेश जी --यूँ तो पहले भे पढ़ चुकी हूँ पर मीना बहन के सौजन्य से एक बार फिर इस रचना पर आकर बहुत ख़ुशी हो रही है | ये संस्मरण समाज के लिए प्रेरक है | लोगों को प्रौढ़ावस्था के विवाह को बड़ी ही उदारता से लेना चाहिए | इस अवस्था का अकेलापन बहुत भयावह होता होगा और आज भी भारतीय समाज में एक पुरुष के लिए अकेले घर संभालना बहुत मुश्किल है | दो जाने एक दुसरे का सहारा बने तो बच्चों को भी चिंता कम होती है | नहीं तो अपनी गृहस्थी के साथ अकेले माँ या बाप की देखभाल करना कई बार संभव नहीं होता | पर कहानी में जो दो दोस्तों की दोस्ती है वो बहुत ही प्रेरक है| ऐसे दोस्त हों तो इंसान कभी गलत काम करने को आतुर ना हो | शुक्ल जी ने जिस बुद्धिमता से समस्या का निपटान किया वो बहुत ही सुखद है | सुंदर ओचक संस्मरण के लिए सादर आभार आपका |

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