रविवार, 17 अगस्त 2025

आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत

 बहुत से नादान वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे घातक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर देते हैं जिनके कि परिणाम हम जैसे निरीह प्राणियों को ताज़िंदगी भुगतने पड़ते हैं.

हमारी ज़िंदगी में आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत सबसे घातक और पीड़ादायक रहा है.
लखनऊ विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ाने के बाद विभागीय षड्यंत्रों की बदौलत हम बेरोज़गार हो कर सड़क पर आ गए थे.
69 दिनों तक बेरोज़गारी की व्यथा सह कर हमने गवर्नमेंट पी० जी० कॉलेज बागेश्वर में प्रवक्ता के रूप में अपनी दाल-रोटी की फिर से व्यवस्था कर ली थी लेकिन हम इस बात पर खुश होने के बजाय निहायत दुखी और निराश थे.
इस घोर निराशा का और इस अथाह दुःख का कारण आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत था.
बागेश्वर प्रवास के आठों महीने हमने रो-रो कर और सिसक-सिसक कर गुज़ारे थे.
कभी हम लखनऊ विश्वविद्यालय के महलनुमा भवनों की तुलना में बागेश्वर के अपने सात कमरों वाले कॉलेज तो देखते थे, कभी हम लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने मेधावी विद्यार्थियों के सापेक्ष बागेश्वर के अक्ल से अक्सर पैदल विद्यार्थियों को देखते थे तो कभी लखनऊ विश्वविद्यालय के स्मार्ट और टिपटॉप गुरुजन के सापेक्ष शेर छाप बीड़ी सुलगाते हुए और आयुर्वेदिक दवाओं के नाम पर देसी ठर्रा (उन दिनों बागेश्वर में मद्य-निषेध लागू था) पीते हुए देखते थे.
हमको निराश और दुखी हो कर अवसादपूर्ण कविताएँ लिखने की प्रेरणा इसी कमबख्त आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से प्राप्त हुई थी.
अल्मोड़ा के 31 साल के प्रवास में भी आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने परेशान करने में हमारा पीछा नहीं छोड़ा.
बरसों तक हम टेल ऑफ़ दि डिपार्टमेंट कहलाते रहे.
हमसे चार-चार साल छोटे दो सहकर्मी पूरे 31 साल तक हमारे सीनियर रहे.
विभाग से हट कर बाक़ी ज़िंदगी में भी आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने हमारा जीना हराम कर रखा था.
अल्मोड़ा में बरसों तक हम छोटे से घुचकुल्ली मकानों में रहे जहाँ अक्सर जलापूर्ति में बाधा आती रहती थी और हम पति-पत्नी सहित हमारी दोनों बेटियों तक को दूर स्थित नौले (प्राकृतिक जल-स्रोत) से या फिर दूसरे घरों से पानी ढो कर लाना पड़ता था.
हमारे सामने हमारे वो भाग्यशाली साथी अपनी मूंछों पर ताव देते थे जो कि विश्वविद्यालय द्वारा आवंटित मकानों में या फिर अपने ख़ुद के अच्छे-खासे घरों में रहते थे और जिन्हें पानी ढो कर लाना सिर्फ़ मेटों-कुलियों का काम लगता था.
1980 में हम जब अल्मोड़ा आए थे तब हमारे साथियों में इक्का-दुक्का लोगों के पास कारें और दर्जन भर के पास दुपहिया वाहन हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे उन में से ज़्यादातर के पास कारें होने लगीं.
हम और हमारे परिवार के सदस्य गांधी जी की दांडी-मार्च का ही अनुसरण करते रहे.
हमारे कुछ प्रशंसकों ने तो हमारा नाम ही -‘प्रोफ़ेसर आजीवन पैदल’ रख दिया था.
फिर हम रिटायर हो गए और ग्रेटर नॉएडा में अपने ख़ुद के मकान में शिफ्ट हो गए.
‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया,
अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे.’
अब तो ठाठ थे बाबू जी के.
दो सौ वर्ग मीटर के प्लाट पर बने अपने थ्री बेडरूम हाउस में रहने का हमारा सपना अब जा कर साकार हुआ था.
हमारी दोनों बेटियां भी सेटल हो गईं थीं.
और तो और – ‘प्रोफ़ेसर आजीवन पैदल’कहलाने वाले रिटायर्ड गुरु जी अब शानदार-जानदार आल्टो 800 कार के मालिक भी बन गए थे.
12 दिन के पैकेज टूर पर हम इंग्लैंड, फ्रांस, स्विटज़रलैंड ,ऑस्ट्रिया और इटली की सैर भी कर आए थे.
दुबईवासिनी बेटी गीतिका के सौजन्य से हमने तीन बार यूएई भ्रमण का आनंद भी ले लिया था.
अब तो हमको यह गीत गाना ही था –
‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे ----’
लेकिन फिर इस दुष्ट सापेक्षता के सिद्धांत ने हमारे रंग में भंग कर दिया.
हमारे गृहप्रवेश में एक वीआईपी भी पधारे थे. उन्होंने बड़ी देर तक हमारे घर का मुआयना किया फिर एक हिकारत भरी नज़र हम पर डाल कर उन्होंने एक सवाल दाग दिया –
‘इसमें न तो लॉन है और न ही किचन गार्डन और बेडरूम्स तो सिर्फ़ तीन हैं. इतने छोटे मकान में तुम लोग मैनेज कैसे करते हो?’
हमने कुढ़ कर जवाब दिया –
‘बाक़ी तो मैनेज हो जाता है पर घर में स्विमिंग पूल और गोल्फ़ कोर्स न होने की वजह से बड़ी दिक्क़त होती है.’
हमारी विदेश यात्राओं के विवरण देने के साथ हम यह बताना भूल गए कि हमारे सभी भाई-बहन बरसों तक विदेशों में रहे हैं.
एक हज़ार से ऊपर कार वाले हमारे सेक्टर में हमारी आल्टो 800 जैसी छोटी कारें मुश्किल से पांच-छह होंगी.
अपने साइज़ से ट्रकों को और बसों को टक्कर देने वाली कारों के मालिकान हमको और हमारी कार को न जाने क्यूं मक्खी-मच्छर की केटेगरी में रखते हैं.
जुलाई के महीने में हमको इनकम टैक्स रिटर्न भरना था.
हमारे एक वीआईपी शुभचिंतक ने हमसे पूछा –
‘तुम्हारी एनुअल इनकम क्या है?’
हमने निसंकोच उन्हें अपनी वार्षिक आय बता दी.
हमारे द्वारा प्रदत्त सूचना पर उनकी इस टिप्पणी से हमारे तन-बदन में आग लग गयी –
‘अरे ! इस से ज़्यादा तो हमने इस साल इनकम टैक्स भरा है.’
टीवी पर हम सबने यह विज्ञापन हज़ारों बार देखा होगा –
‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद क्यों?’
छोटी सी पेंशन में, छोटे से मकान में, छोटी सी पुरानी कार, छोटे से फ्रिज, छोटे से टीवी, एकाद पुराने पड़ चुके एसी, साधारण से सोफ़े, सस्ते से कार्पेट के साथ, फाइव स्टार होटल्स-रेस्टोरेंट्स जाए बिना और बिना नौकर-चाकर के हुजूम के, हम आराम से जी तो सकते हैं लेकिन आइन्स्टीन का यह सापेक्षता का सिद्धांत बार-बार हमारे सुख-चैन के आड़े आ कर हमको यह याद दिला देता है कि हमारी कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद कमीज़ें हमारे निकटस्थ-दूरस्थ सम्बन्धियों, पड़ौसियों, दोस्तों और दुश्मनों की हैं.
किराए के टूटे-फूटे मकान में रहते हुए और कभी भी चुकाए न जाने वाले उधार की शराब पीते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब ने हमारे जैसे एहसास-ए-कमतरी (हीनता की भावना) में कहा है –
‘रहिए अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ कोई न हो.’
और अब हम कह रहे हैं –
'रहिए अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत लागू न हो.’

शनिवार, 19 जुलाई 2025

जिया बेक़रार है

 

आपके अपने घर में ही अगर आपका कोई प्रतिद्वंदी, कोई आपका राइवल, उठ खड़ा हो तो आपकी बादशाहत, आपकी हीरो ऑफ़ दि फॅमिली इमेज, इन दोनों को ख़तरा हो जाता है.

महाकवि दिनकर की अमर पंक्ति – सिंहासन खाली करो कि जनता आती है को कुछ बदल कर हमारे लिए परिवार से सन्देश आता है –

 

सिंहासन खाली करो कि वासू आता है

 

अब ये वासू कौन है?

कैसे यह हमारी आन-बान-शान को खुलेआम चुनौती दे रहा है?

16 सितम्बर, 2024 को जन्मा, गोलू-मोलू, गोरा-चिट्टा,, तीखे नाक-नक्श वाला, सेमी सुनहरे बालों वाला, काली-काली चमकती आँखों वाला , वासू उर्फ़ वात्सल्य, हमारी छोटी बेटी रागिनी का बेटा है अर्थात हमारा नाती है.

 

इस मार्च में एक शादी में सम्मिलित होने के लिए हम पति-पत्नी और हमारी दोनों बेटियों के परिवार, उज्जैन गए थे.

उज्जैन से लौट कर हम सब लोग ग्रेटर नॉएडा आ गए थे.

 

ग्रेटर नॉएडा के अपने 12 दिनों के प्रवास में मात्र 6 महीने का वासू परिवार के हर सदस्य के दिलो-दिमाग में पूरी तरह से छाया रहा.

74 + के उसके नानू बेचारे कब साइड लाइन में ढकेल दिए गए, यह उनको पता ही नहीं चला.

 

हमारी बड़ी बेटी गीतिका का बेटा अमेय, उसकी बेटी इरा और रागिनी की बेटी सारा उर्फ़ आसावरी, तो दिन-रात, सोते-जागते, वासू-मन्त्र का जाप करने में ही व्यस्त रहते थे.

अब आप ही बताइए !

6 महीने का पिद्दी सा छोरा जिसे तब तक ढंग से बैठना भी नहीं आता था, जो कि तब तक बिना दांत वाला यानी कि निहायत ही पोपला था, जो कि लिखने-पढ़ने से कोसों दूर था (और आज भी है), जो कि मम्मा. मम्मा के अलावा कुछ बोलना भी नहीं जानता था, जो कि अपने सारे नित्य-कर्म डायपर में ही करता था, जो कि अदब-शिष्टाचार आदि से सर्वथा अनभिज्ञ था, वो रोज़ाना 7 किलोमीटर टहलने वाले, सभ्य-सुसंस्कृत, निजी स्वच्छता में पूर्णतया आत्मनिर्भर, अच्छे खासे पढ़े-लिखे, 28 दांत वाले और केवल जनता की मांग पर ही अपना भाषण समाप्त करने वाले, अपने नानू के रहते, जुम्मा-जुम्मा चार दिन में ही, घर का हीरो कैसे बन गया?

 

बेचारे नानू ने अपने नाती-नातिन को बार-बार नानू-यशपुराण सुनाया लेकिन वासू-मन्त्र के शोर के आगे वह उनके कानों तक पहुंचा ही नहीं.

 

शम्मी कपूर पर फ़िल्माया गया फ़िल्म जानवर का गीत – तुम से अच्छा कौन है?’ हमको बहुत प्रिय है. इस गाने की तर्ज़ पर हम अमेय, इरा और आसावरी से सवाल करते थे –

 

सबसे अच्छा बच्चा कौन है?’

 

क़ायदे से तीनों बच्चों को गाते हुए जवाब देना चाहिए था –

 

सबसे अच्छे बच्चे नानू हैं

 

लेकिन इनका संगीतमय जवाब होता था –

 

सबसे अच्छा बच्चा वासू है.’

 

 

नानू की तरफ़ से एक घोषणा होती थी –

 

‘East or west, Nanu is the best.’

 

तीनों दुष्ट एक साथ कहते थे–

 

‘No ! East or west, Vasu is the best.’

 

वासू के स्वागत में उसकी नानी ने एक पारिवारिक आयोजन किया.

हमारे भाई-बहन के परिवार उसमें सम्मिलित हुए.

आगंतुकों में कोई वासू की पोपली हंसी पर फ़िदा था तो कोई उसके लेटे-लेटे अपने पैरों से साइकिल चलाने पर तो कोई उसकी मंद-मंद मुस्कान पर.

हमारे श्रीश भाई साहब ने वासू को जब गोद में लिया तो उसने अपने एक हाथ से उनका एक कान ज़ोर से उमेठ दिया.

वासू के इस गुनाहे-अज़ीम पर सब लोगों के साथ श्रीश भाई साहब भी ही-ही कर के हंस रहे थे.

अमेय, इरा और सारा तो वासू की इस अदा पर फ़िदा ही हो गए.

ये तीनों बच्चे, हम से बार-बार अनुरोध करते थे –

 

नानू ! आप वासू को अपनी गोदी में लीजिए. हम देखेंगे कि वो आपके कान पकड़ता है कि नहीं.’

 

वासू सहित रागिनी का परिवार बंगलुरु लौट गया.

गीतिका परिवार दुबई वापस चला गया.

अब ग्रेटर नॉएडा में रह गए हम पति-पत्नी.

बच्चों की अनुपस्थिति में अपने पातिव्रत धर्म का पालन करते हुए अब हमारी श्रीमती जी को हमारी जम कर खातिर-तवज्जो करनी चाहिए  लेकिन उनका अधिकतर वक़्त रागिनी द्वारा भेजे गए वासू-लीला के वीडियोज़ देखने में बीतता है.

रागिनी को जब भी अपने ऑफ़िस के काम से फ़ुर्सत मिलती है तो वो हमको वीडियो चैट के ज़रिए वासू का दीदार करा देती है.

वासू अब घुटनों के बल चलता है. वह बैठ कर अपनी बहन सारा के साथ बॉल से खेलता है. अब वह आठ दांत वाला हो गया है.

अब वह सहारा ले कर खड़ा हो जाता है और कुछ देर तक वह बिना किसी सहारे के भी खड़ा रहता है.

जल्द ही - ‘ठुमक चलत वासू चन्द्र गीत गाने का अवसर भी आने वाला है.

वासू की शब्दावली भी बढ़ती जा रही है, दिनों-दिन उसकी शरारती हरक़तें भी बढ़ती जा रही हैं.

वासू ने ये किया, वासू ने वो किया, अब वासू ये-ये करने वाला है.’

ये सब सुनते-सुनते हमारे कान पकते जा रहे हैं और इधर हम हम हैं कि दिन ब दिन परिवार की सुर्ख़ियों वाली ख़बरों की जगह हाशिये वाली ख़बरों तक से निकलते जा रहे हैं.

हमको हाशिये की ख़बरों तक से निकालने वाले इस नन्हे प्रतिद्वंदी की अभूतपूर्व लोकप्रियता से जलन तो होती है पर ख़ुद हम अपने दिल का क्या करें?

परिवार के अन्य सदस्यों के दिलों पर हुकूमत करने के साथ-साथ यह नटखट-उल-मुल्क, यह दिलखुश कीता, यह चितचोर. ख़ुद हमारे दिल पर भी धड़ल्ले से राज कर रहा है.

लोकप्रियता में हमको पटकनी देने वाले अपने इस नन्हे प्रतिद्वंदी को गोद में उठाने को, इसको ठुमक-ठुमक कर चलते हुए देखने को, इसकी नई-नई शरारतों का मज़ा लेने को, हमारा जिया न जाने क्यूं बेक़रार रहने लगा है.           

बुधवार, 2 जुलाई 2025

16 एम० एम० का रुपहला पर्दा

 आज के बच्चे 16 एम० एम० के स्क्रीन के बारे में कुछ भी नहीं जानते होंगे लेकिन हमारे छात्र जीवन में इसका महत्व किसी मन्दिर के प्रसाद से या किसी भंडारे में खाए गए भोज से कम नहीं हुआ करता था.

हम बच्चों के फ़िल्म देखने के महा-विरोधी हमारे पिताजी हमारी सैकड़ों खुशामदों और माँ की अनगिनत सिफ़ारिशों के बावजूद हमको साल में दो-तीन से ज़्यादा फ़िल्में दिखाने को कभी राज़ी नहीं होते थे.
कौन विश्वास करेगा कि हमको ‘मदर इंडिया’जैसी क्लासिक फ़िल्म नहीं देखने दी गयी थी.
‘चलती का नाम गाड़ी’फ़िल्म का तो नाम सुन कर ही पिताजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था.
इस फ़िल्म को बच्चों को दिखाए जाने से साफ़ इंकार करते हुए हमारे न्यायाधीश पिताजी ने माँ से कहा था –
‘बच्चों को चालू-बदमाश बनाने के लिए ये फ़िल्म दिखाने की क्या ज़रुरत है?
मैं उनको सीधे-सीधे पॉकेटमारी की ट्रेनिंग दिलवा देता हूँ. आए दिन मेरे कोर्ट में पॉकेटमार तो पकड़ कर लाए ही जाते हैं.’
भला हो 16 एम० एम० स्क्रीन पर मुफ़्त दिखाई जाने वाली सरकारी प्रचार वाली फ़िल्मों का जिनके विषय में पिताजी की राय इतनी ख़तरनाक नहीं होती थी.
सन साठ-सत्तर के दशकों में मद्य-निषेध, परिवार नियोजन, सांप्रदायिक एकता और देशभक्ति का सन्देश देने वाली फ़िल्में सरकार की तरफ़ से 16 एम० एम० के स्क्रीन पर मुफ़्त दिखाई जाती थीं.
ऐसे फ़िल्म शोज़ में हर दो रील के बाद एक छोटा सा ब्रेक हुआ करता था.
हिलती हुई और धुंधली तस्वीर की या फिर डांवाडोल साउंड की कोई शिकायत नहीं कर सकता था.
कभी-कभी फ़िल्म का अंत देखे बिना ही हमको – ‘लौट के बुद्धू घर को आए’वाली कहावत को चरितार्थ करना पड़ता था.
राष्ट्रीय एकता का सन्देश देने वाली ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म – ‘चार दिल चार राहें’और व्ही शांताराम की फ़िल्म – ‘तीन बत्ती चार रास्ता’ हमको कोई ख़ास पसंद नहीं आई थीं लेकिन – ‘मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है’ के उसूल पर अमल करते हुए हमने इन दोनों फ़िल्मों को आदि से अंत तक श्रद्धापूर्वक देखा था.
व्ही शांताराम की फ़िल्मों को 16 एम० एम० के पर्दे पर दिखाने मुफ़्त में दिखाने का सरकारी चलन हमको बहुत पसंद था.
सांप्रदायिक सौहार्द्र का सन्देश देने वाली उनकी फ़िल्म – ‘पड़ौसी’, बेमेल विवाह की त्रासदी पर बनी उनकी फ़िल्म – ‘दुनिया न माने’और क़ैदियों के पुनर्वास पर बनाई गयी उनकी अमर फ़िल्म – ‘दो आँखें बारह हाथ’, ये सब हमने गवर्नमेंट इंटर कॉलेज बाराबंकी के हॉल में देखी थीं.
परिवार नियोजन पर देवानंद की फ़िल्म – ‘एक के बाद एक’और जीतेंद्र की फ़िल्म – ‘परिवार’, ये दोनों फ़िल्में अच्छी खासी बोरिंग थीं लेकिन इन दोनों फ़िल्मों को 16 एम० एम० के रुपहले पर्दे पर हमने दो-दो बार देखा था.
मुफ़्त में दिखाई जाने वाली देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मों को देखने के लिए हमने गांधीजी की डांडी-मार्च की पद-यात्रा के रिकॉर्ड को बार-बार तोड़ा था क्योंकि हाई स्कूल तक हमको साइकिल चलाना नहीं आता था.
दिलीपकुमार-कामिनी कौशल की फ़िल्म – ‘शहीद’, अशोक कुमार- नलिनी जयवंत की फ़िल्म – ‘समाधि’और मनोज कुमार की फ़िल्में ‘शहीद’,तथा ‘उपकार’ देख कर हमारे खून में देशभक्ति की भावना का संचार होने लगा था.
1970 के दशक में 16 एम० एम० के पर्दे पर हमको मुफ़्त में शानदार फ़िल्में दिखाने का सबसे बड़ा काम मद्य-निषेध विभाग ने किया था.
दिलीपकुमार की दो फ़िल्में – ‘दाग’और ‘देवदास’हमने मद्य-निषेध विभाग के सौजन्य से ही देखी थीं.
हमको मालूम है कि शायरे-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब बड़े पियक्कड़ थे लेकिन हमारे यह समझ में नहीं आया कि शराबनोशी के खिलाफ़ एक भी बात न कहने वाली फ़िल्म – ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’मद्य-निषेध विभाग द्वारा जगह-जगह पर क्यों दिखाई गयी.
मद्य-निषेध विभाग की कृपा से ही हमने फ़िल्म – ‘साहिब बीबी और गुलाम’ देखी थी जिसके लिए हम आज भी उसके कृतज्ञ हैं.
लखनऊ महोत्सव में हमने सत्यजित रे की दो फ़िल्में – ‘पाथेर पांचाली’और – ‘चारुलता’ 16 एम० एम० के पर्दे पर देखी थीं.
बिना हिंदी या इंग्लिश सब-टाइटल्स वाली इन बांग्ला फ़िल्मों के संवाद तो हमारी समझ में नहीं आए लेकिन इन दोनों फ़िल्मों को देख कर हमको आनंद बहुत आया.
16 एम० एम० स्क्रीन पर हमने दर्जनों डाक्यूमेंट्री भी देखीं थीं और नील आर्मस्ट्रांग की चन्द्रमा पर पहली पद-यात्रा भी देखी थी.
जिस ज़माने में हमको स्टूडेंट क्लास में फ़िल्म देखने के लिए पूरे 1.75 (अगर आइडेंटिटी कार्ड दिखा दो तो सिर्फ़ 1.50) खर्च करने पड़ते थे और जब लखनऊ में टेलीविज़न एक सपना हुआ करता था तब ये मुफ़्त में दिखाई जाने वाली फ़िल्में हमारे लिए किसी बम्पर लाटरी से कम नहीं हुआ करती थीं.
इमानदारी से कहा जाए तो हम में देशभक्ति की और सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावना का विकास मुफ़्त में देखी हुई फ़िल्मों के सौजन्य से ही हुआ है.
बुढ़ापे तक मदिरा को कभी हाथ तक न लगाने की हमारी अटूट क़सम का पूरा श्रेय मद्य-निषेध विभाग द्वारा दिखाई गयी फ़िल्मों को जाता है.
हमारी दो ही संतान हैं.
हमको यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि अपने परिवार को सीमित रखने की प्रेरणा हमको फ़िल्म – ‘एक के बाद एक’ और फ़िल्म – ‘परिवार’को देख कर ही मिली थी.
इस कथा का सार यह है कि हम में जितने भी अच्छे गुणों-विचारों का विकास हुआ है, उन में अधिकाँश 16 एम० एम० के पर्दे पर दिखाई गयी फ़िल्मों को देखने के कारण ही हो सका है और वर्त्तमान में हमारी अपेक्षाकृत ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति के पीछे भी 16 एम० एम० स्क्रीन पर मुफ़्त में दिखाई गयी, हमारी जेब से हमारे 1.75 या 1.50 बचाती हुई, इन फ़िल्मों का बहुत बड़ा योगदान है.