रविवार, 10 मार्च 2013

प्रलय- 3

 
तेज़ बारिश में शंकर  की ट्रेन  गौरीद्वार पहुंची। सुबह के सात बज रहे थे पर इतना अंधेरा था कि लगता था कि अभी पौ भी नहीं फटी है।शंकर स्टेशन  से बाहर निकला तो टैक्सियां नदारद। सड़क जैसे भारी-भरकम पनाला बन गई थी। एक घण्टे के इंतज़ार  के बाद उसे शैलनगर जाने वाली एक टैक्सी मिली भी तो पर-सीट साढ़े तीन सौ रूपये के रेट पर। गरीब फ़ौजी  जवान शंकर के लिए डेड़ सौ के बदले साढ़े तीन सौ रूपये ज़्यादा तो थे पर उसे अपनी माँ  और अपनी नई-नवेली बीबी बिन्नो तक पहुंचने की इतनी बेताबी थी कि वो बिना कोई सौदेबाज़ी किए हुए टैक्सी में बैठ गया। ड्राईवर  को गाड़ी चलाने में बहुत दिक्कत हो रही थी। गाड़ी के वाइपर्स, शीशे पर पड़ने वाले पानी के थपेड़ों  को साफ़ करने में नाकाम साबित हो रहे थे। गाड़ी की लाइट ऑन  होने के बावजूद दस मीटर आगे तक देख पाना भी नामुमकिन हो रहा था पर सबको शैलनगर  पहुंचने की जल्दी थी। जैसे-तैसे तीन घण्टों में टैक्सी दो-तिहाई रास्ता पर कर राजाघाट तक पहुंची पर फिर ड्राईवर ने हाथ खड़े कर दिए। सामने पहाड़ से गिरे मलबे का दस फ़ीट ऊँचा  टीला बन चुका था। सड़क पर गिर रहे पत्थरों से बच-बचाकर निकल जाना नामुमकिन था, उस पर पानी का बहाव ऐसा था कि टैक्सी को भी अपने साथ बहा ले जाए और नीचे उफ़नती नदी में विसर्जित कर दे। शंकर के अलावा बाकी सब लोगों ने आगे बढ़ने का अपना  प्रोग्राम  कैंसिल कर दिया पर वो अकेला हिम्मत करके कार से उतर कर अपना सूटकेस अपने कंधे पर लाद कर और अपने सर पर छाता तान कर, शैलनगर के लिए पैदल चल पड़ा।
शंकर का छाता इस तेज़ बरसात में, पानी से तो उसका बचाव नहीं कर पा रहा था पर छोटे-मोटे कंकड़-पत्थरों से उसके सर की हिफाज़त  ज़रूर कर रहा था। वो पानी से तर-बतर ऊपर पहाड़ से लुढ़कते पत्थरों से खुद को बचाता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था पर किसी कछुए की स्पीड से। घबराया हुआ शंकर अपने भगवान को याद कर रहा था -
'हे भोलेनाथ ! कृपा करो ! इस तूफ़ानी  बरसात को रोक दो। इस भयानक बरसात में तीस किलोमीटर पैदल चलकर मैं कब बिशनपुर पहुंचूंगा?'
शंकर को अपनी पैंट की अन्दर की जेब में रखे दो हज़ार  रूपयों और पन्द्रह हज़ार  के ड्राफ़्ट  के भीगने का डर भी लगा था। कल रात से उसने कुछ खाया-पीया भी नहीं था पर घर पहुंचने की बेताबी में वो अपनी सारी परेशानियों को भूलकर आगे बढ़ता जा रहा था। शंकर दस किलोमीटर चलकर भवानीपुर पहुंचा। वहां चाय की बस एक दुकान खुली थी। चाय और बिस्किट  से अपनी भूख मिटाते हुए उसने वहां थोड़ा आराम किया और फिर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। चाय वाले ने उसे रोकने की गरज से कहा -
'भैया ! क्या बावले हुए हो? ऐसी बरसात में क्या कोई बाहर निकलता है?'
शंकर ने उसे अपने घर पहुंचने की अपनी बेताबी का सबब नहीं बताया। चाय वाले ने उससे फिर कहा -
'अब बरसात तो थमने से रही। ऐसा करो कि तुम रात मेरे घर ही रूक जाओ। कल सवेरे बरखा थम जाए तो शैलनगर चले जाना। तब तक शायद  रोड भी खुल जाएगी और तुम्हें शैलनगर के लिए कोई गाड़ी भी मिल जाएगी।'
शंकर ने उस भले आदमी की, अपने घर पर ठहरने की दावत कबूल नहीं की और उसे धन्यवाद देकर वो फिर अपनी मन्जि़ल की तरफ़ कदम बढ़ाने  लगा। रास्ते में टूटे पेड़ों  को लांघते हुए, सड़क पर पानी के तेज़ बहाव से खुद को बचाते हुए वो आगे बढ़ता रहा। अब उसने अपने कदम तेज़ कर दिए। रात से पहले वो अपने घर पहुंचना चाहता था। पिछले छह घण्टों से वो लगातार पैदल चला जा रहा था पर अभी उसकी मन्जि़ल सिर्फ़  आधी पार हुई थी। अब उसे कोई चाय की दुकान भी खुली नहीं दिखाई दे रही थी। पर भूख-प्यास और थकान से एक साथ लड़ना उसे आता था। शंकर  की मिलिट्री ट्रेनिंग  उसके काम आ रही थी। धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा पर उसने हिम्मत नहीं हारी। अंधेरे का सहारा उसकी टॉर्च बन गई थी। बिजली कड़कने और दूर कहीं बिजली गिरने की भयानक आवाज़ें भी उसको रोकने में नाकाम हो रही थीं। शंकर को अपनी छुट्टी का पूरा एक महीना अपनी माँ  और बिन्नो के साथ बिताना था और इसी दौरान उसे अपना मकान भी पक्का करवाना था। उसकी शादी के समय उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि मकान को पक्का करा सके पर अब दस महीने की बचत उसकी जेब में थी। अब तो मकान को टिपटॉप कराकर ही उसे दम लेना था।
चलते-चलते मानों एक युग बीत चुका था। अब तो सुबह होने वाली थी। पर अब बिशनपुर भी तो नज़दीक आ चुका था। थकान के बावजूद शंकर के कदम अब और तेज़ पड़ने लगे थे। अब तो उसे अम्मा के हाथों की गरम चाय पीकर अपनी थकान मिटानी थी और बिन्नो पर इतना प्यार बरसाना था कि ये घनघोर हो रही बरसात भी फीकी पड़ जाए।
बिशनपुर पहुंच कर शंकर को लगा कि वो कहीं और आ गया है। ये तो कोई उजड़ा हुआ मुर्दा गांव लग रहा था। लोग-बाग थे पर सबके चेहरे पर मुर्दानगी छाई थी। कई जगह तम्बू गड़े थे। शंकर के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है। ये तो साफ़ था कि बरसात से भयंकर तबाही हुई है। चारों तरफ़ उफ़नता हुआ पानी, तमाम मकान मलबे से ढके हुए, भानू पंडितजी  और ग्राम प्रधान ठाकुर जमनसिंह के मकान ही सही सलामत दिख रहे थे, बाकी सब मिट्टी में मिल गए थे। शंकर को अपना मकान ढूढ़े नहीं मिल रहा था, उसने पंडितजी के मकान से दिशाओं  का अन्दाज़ा लगा कर उसे जैसे-तैसे खोज लिया पर वहां पहुंच कर उसके हाथ-पैर फूल गए। उसका मकान मलबे में दबा हुआ था और मकान के सामने सफ़ेद कफ़न में एक लाश  बंधी हुई थी। शंकर को देखकर कुछ गांव वाले उसको ढाढस बंधाने के लिए आ पहुँचे । उसके पड़ोस  के दीवान दा उसका हाथ पकड़ कर उसे लाश  के पास ले गए और उससे रूंधे गले से कहने लगे -
'शंकर ! आखरी बार अपनी अम्मा के पैर छू ले। तेरा इन्तजार करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्यागे हैं।'
शंकर 'हाय अम्मा ! हाय अम्मा !' कहकर अपनी माँ  के पैरों में गिर पड़ा। भानू पंडितजी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा -
'बेटा शंकर ! तेरी अम्मा का अब संस्कार हो जाना चाहिए। पिछले चौबीस घण्टों से बस हम तेरा ही इंतज़ार  कर रहे थे। और हाँ बेटा ! तुझे कुछ दान-पुण्य भी करना होगा। मैं पूजा की सामग्री अपने साथ ले आया हू¡।'
शंकर ने अपनी आँखें  पोंछकर अपनी जेब से एक पाँच  सौ का एक भीगा हुआ नोट पंडितजी के सुपुर्द किया। पंडितजी  ने दो सौ रूपयों की और माँग  की तो वो भी उनको प्राप्त हो गए। अब इस तेज़ बरसात में उसे अम्मा को श्मशान घाट ले जाना था। शंकर की मुसीबत में उसका साथ देने वालों की कमी नहीं थी। उनमें से कई ऐसे भी थे जिन्होंने पिछले दिन ही अपने किसी आत्मीय का अंतिम संस्कार किया था। शंकर को बिन्नो की तलाश  थी पर बिन्नो उसे कहीं दिखाई नहीं दी। कहीं वो भी तो इस प्रलय के चपेटे में नहीं आ गई?
उसने दीवान दा से पूछा -
'दादा ! बिन्नो कहां है? वो भी क्या मुझको छोड़ कर चली गई?'
दीवान दा ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा -
'नहीं भैया ! अपनी मां और अपनी छोटी बहन को श्मशान  घाट के लिए उसी ने विदा किया है। और लछमिया चाची की अर्थी भी उसी ने तैयार कराई है। अपनी मां और अपनी बहन के लिए वो फूल चुनने गई होगी, जल्द आ जाएगी। अब तू उसकी फिकर छोड़ और चाची को श्मशानघाट पहुंचाने की तैयारी कर।' 
   श्मशानघाट जाने की जल्दी में शंकर को बिन्नो को ढूंढ़ने की फ़ुर्सत भी कहां थी? अब तो वहां से लौट कर ही वो उससे मिल सकता था।    
शंकर अपनी अम्मा की चिता को प्रज्जवलित करने के बाद मिट्टी की हांडी में उसकी अस्थियाँ  एकत्र करने तक मूर्ति बना खड़ा रहा। उसकी अस्थियों  की हांडी को लेकर जब शंकर  लौटने लगा तो उसके दोस्त बलबीर ने उससे पूछा -
शंकर तेरी गाड़ी का एक्सीडैन्ट तो  शैलनगर से बारह किलोमीटर दूर माधोपुर के पास हुआ था? तुझे ज़्यादा चोट तो नहीं आई? तू वहां से यहां कैसे पहुंचा?'
शंकर को बलबीर के सारे सवाल कुछ अटपटे से लगे। उसने बलबीर से कहा -
'मेरा एक्सीडैन्ट कहां हुआ? मैं तो रोड ब्लॉक हो जाने की वजह से राजाघाट से तीस किलोमीटर पैदल चलकर आ रहा हूँ .
बलबीर ने हैरान होकर पूछा - 'फिर कुलवन्त और चन्द्रभान ने बिन्नो से ये क्यों कहा कि माधोपुर के पास तेरा एक्सीडैन्ट हो गया है?'
ग्रामप्रधान ठाकुर जमनसिंह का बेटा कुलवन्त और भानू पंडितजी  का बेटा चन्द्रभान, दोनों ही इलाके के छटे हुए बदमाश थे। दोनों बिन्नो को भाभी के रिश्ते  का बहाना कर छेड़ते रहते थे। शंकर  ने बलबीर से घबराकर पूछा -
'बिन्नो क्या अपनी अम्मा और बहन के लिए फूल चुनने के लिए नहीं गई है?'
बलबीर ने जवाब दिया - 'वो तो उनको अंतिम संस्कार के लिए विदा करने के फ़ौरन  बाद ही कुलवन्त और चन्द्रभान के साथ तुझे देखने माधोपुर के लिए चल दी थी। उसके बाद से मैंने उसे देखा नहीं है।'
बिशनपुर गांव वापस पहुंचकर शंकर  ने अपनी अम्मा की अस्थियों को एक सुरक्षित स्थान पर रखकर बिन्नो की तलाश जारी कर दी पर वो उसे कहीं नहीं मिली। कुलवन्त और चन्द्रभान का अता-पता किसी को मालूम नहीं था। शंकर , पुलिस में बिन्नो की गुमशुदगी  या उसके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए जाने लगा तो ठाकुर जमन सिंह और भानू पंडितजी  ने उसे रोक दिया। पंडितजी  ने शंकर  को समझाते हुए कहा -
शंकर बेटा ! चन्द्रभान और कुलवन्त तो पिछले सात दिन से दिल्ली में है। भला ऐसे संस्कारी लड़के  किसी लड़की को बहकाकर अपने साथ ले जाने का पाप कर सकते हैं ? फिर बिन्नो तो इन लड़कों के लिए बहन जैसी है। मैंने तो बिना दान-पुण्य लिए बिन्नो की अम्मा भग्गो और उसकी बहन मुन्नी के क्रिया करम की सब पूजा की है। इस बलबीर के बच्चे का दिमाग खराब हो गया है। पता नहीं क्यों वो चन्द्रभान और कुलवन्त जैसे भोले-भाले लड़कों के बारे में अनाप-शनाप  बक रहा है। पर तू घबड़ा मत। बिन्नो हमको मिल जाएगी।'
ठाकुर जमनसिंह ने पंडितजी  की बात का समर्थन करते हुए शंकर को बताया -
पिछले छह-सात दिनों से दिल्ली से कुलवन्त और चन्द्रभान के रोज़ फ़ोन आ रहे हैं। जब से उन्होंने यहां की विपदा की खबर सुनी है तब से तो बेचारों को यहीं की फि़कर लगी रहती है। मेरा पूरा परिवार जनसेवा के लिए अपनी जान तक दे सकता है। मैंने तो श्मशान  में भग्गो और मुन्नी के क्रिया करम के खर्चे के लिए अपनी जेब से पाँच  सौ रूपये भी दिए हैं।'
शंकर को पुलिस में रिपोर्ट करने से ज़ोर -जबर्दस्ती रोक लिया गया। शंकर और उसके सब दोस्त बिन्नो की खोज में लग गए पर इसके लिए उन्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगाना पड़ा। बिशनपुर गांव से कुछ दूर एक नाले में, पेड़ की एक टूटी डाल में फंसी, उसकी फूली हुई लाश  मिल गई। ठाकुर जमनसिंह ने पागलों की तरह अपना सर पीट-पीट कर रोते हुए शंकर को दिलासा देते हुए कहा -
'बेटा शंकर ! पानी का बहाव तो इतना तेज़ था कि मकान के मकान बह गए। एक बेचारी लड़की की क्या बिसात थी? अपनी अम्मा और अपनी बहन की मौत के गम में बिचारी नाले के पास बैठकर रो रही होगी और फिर वहीं उसका पैर फिसला होगा और वो नाले में बह गई होगी। तू कुलवन्त और चन्द्रभान के बारे में कुछ उल्टा-सीधा मत सोचना। बेटा ! जल में रहकर मगरमच्छों से बैर लेकर तू कैसे टिक पाएगा?'
ठाकुर जमनसिंह ने बिन्नो की लाश  को उठवा कर चुपचाप शंकर के मकान के मलबे में दबवा दिया और फिर हो-हल्ला कर उसको मलबे में से बाहर भी निकलवा लिया। कई लोगों ने इस नाटक को देखा भी पर गांव के मगरमच्छों के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत कौन कर सकता था?
भानू पंडितजी  ने बिना दान-दक्षिणा लिए बिन्नो के अंतिम संस्कार से पहले होने वाली पूजा कर दी। ठाकुर जमनसिंह ने एक बार फिर अपनी उदारता का परिचय दिया। उन्होंने इस बात का पक्का इंतजाम  कर दिया कि शंकर को अपनी माँ  और अपनी पत्नी की मौत का पूरा-पूरा मुआवज़ा मिले। शंकर की ज़िद की परवाह न करते हुए उन्होने बिन्नो का पोस्टमार्टम नहीं होने दिया और अपने खर्चे पर चटपट उसका अंतिम संस्कार करा दिया।

 

2 टिप्‍पणियां: