राजीव गाँधी के
राज में धर्म-विकृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी. सवर्ण हिन्दू निर्लज्ज होकर
अपने दलित भाइयों की आहुति दे रहे थे. शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत
स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं. जैन समुदाय में
दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बनाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा
रहा था. उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था और धर्म के नाम और स्वतंत्र
खालिस्तान के नाम पर अन्य धर्मावालाबियों का खून बहाया जा रहा था. और हमारे ईसाई
धर्म-प्रचारक डॉलर आदि की थैलियाँ खर्च कर हज़ारों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा,
मानवता की सेवा कर रहे थे. इस कविता में मैंने यह प्रश्न उठाने का साहस किया है कि
धर्म-विकृति को ही हम कब तक अपना धर्म मानते रहेंगे. आज भी धर्म-विकृति को ही हम
धर्म के नाम पर अपना रहे हैं. एक जैन धर्मावलम्बी होने के नाते 13 वर्ष की अबोध
बालिका आराधना समदरिया की निर्मम आहुति दिए जाने से और उससे भी अधिक जैन समाज
द्वारा उसके क्रूर, स्वार्थी, प्रचार-प्रिय माता-पिता का, निर्लज्जता के साथ पक्ष
लेने के कारण मैं आहत हूँ, क्षुब्ध हूँ, लज्जित हूँ. और सच कहूँ तो मेरा मन ऐसे धर्म
का परित्याग कर नास्तिक होने का कर रहा है -
सर्व-धर्म
समानत्व
जहां धर्म में
दीन दलित की, निर्मम आहुति दी जाती है,
लेने में अवतार,
प्रभू की छाती, कांप-कांप जाती है।
जिस मज़हब में घर
की ज़ीनत, शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की
देख हुकूमत, आंख अचानक भर आती है।।
जहां पालने में
ही बाला, साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का
उच्चारण करने में, लज्जा आती है।
जिन गुरुओं की
बानी केवल, मिलकर रहना सिखलाती है,
वहां देश के
टुकड़े करके, बच्चों की बलि दी जाती है।।
बेबस मासूमों की
ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार
हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर।
यह धर्मों का देश,
धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
पर विकृत हो बोझ
बना है धर्म, आज खुद मानवता पर।।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. यह पीड़ा, यह कुंठा, यह आक्रोश, हम सबका है.
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