शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

पन्त दाज्यू



पन्त दाज्यू –
1971 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मैंने मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में एम. ए. में एडमिशन लिया था. बी. ए. तक लड़कियों से मित्रता करने की कल्पना से ही मेरी रूह कांपती थी. इस मामले में अपने डरपोक होने का आलम यह था कि अगर किसी लड़की ने अपनी तरफ़ से ही मुझसे बात करने की कोशिश की तो अचानक ही मेरे कान गरम हो जाया करते थे, ज़ुबान पर ताला सा लग जाता था और अगर आवाज़ निकलती भी थी तो लगता था कि मैं किसी कूएँ के अन्दर से बोल रहा हूँ. झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज से बी.. करने के दौरान दो तीन लड़कियों ने क्लास के हम सो कॉल्ड स्मार्ट लड़कों को दोस्ती करने का खुला आमंत्रण दिया भी था पर हम सब जान बचा कर भाग खड़े हुए थे.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में माँ की पुलिसिया नज़र नहीं थी, पिताजी की घूरती आँखों का खौफ़ नहीं था, इसलिए अब ऐसे निरापद वातावरण में लड़कियों से अपना ज़बरदस्ती का ओढ़ा हुआ मौन व्रत तोड़ा जा सकता था पर ऐसा करने की हिम्मत किस में थी? मज़े की बात ये थी कि हमारे क्लास में अधिकतर लड़के ऐसे ही थे जिनको कि अगर किसी लड़की से बात करने को भी कह दो तो उनकी घिग्घी बंध जाती थी.
हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर नागर अपने क्लास में विद्यार्थियों से सवाल बहुत पूछते थे और इस प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में मैं सबसे आगे रहता था. इस की वजह से मैं अपने क्लास के लड़के-लड़कियों की नज़र में कुछ ख़ास तो हो गया था पर इस से लड़कियों से मेरी बातचीत होने का मार्ग अभी भी प्रशस्त नहीं हुआ था.
हमारे क्लास में एक लड़की रश्मि पन्त हुआ करती थी. ठीक-ठाक शक्ल सूरत की, गोरी सी, छोटी सी, महीन सी और ख़ूब बातूनी. जहाँ मेरे जैसे और मेरे मित्र खान भाई जैसे शरीफ़ लड़के, लड़कियों को तिरछी चितवन से चोरी छुपे देखा करते थे वहां रश्मि पन्त हम लड़कों को अपनी आँखें तरेर कर देखा करती थी. एक दिन रश्मि पन्त धड़ल्ले से मेरे पास आई और मुझसे पूछने लगी –
गोपेश ! तुम नागर साहब के सवालों का जवाब तो बराबर देते हो पर हम लड़कियों से बात करने में तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम हो जाती है? फिर तुम हम लड़कियों को चोरी-छुपे देखते क्यों हो?
मेरी ज़ुबान मेरे तालू से चुपक गयी थी और मैं मन ही मन सीता मैया की भांति कामना कर रहा था कि धरती माता मुझे अपनी गोद में समा लें. पर इस सवाल का जवाब तो देना ही था –
मैंने हकलाते हुए जवाब दिया –
नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है. लड़कियों से बात करने में मेरी सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम होगी? देखिए मैं आप से बात कर तो रहा हूँ.’
रश्मि पन्त ने हँसते हुए कहा –
ये आप वाला चक्कर छोड़ो और हमसे दोस्ती का चक्कर चलाओ.’
अब जनता की बेहद मांग पर मुझको लड़कियों से बात न करने का अपना बरसों पुराना प्रण तोड़ना पड़ा. पर इस पुरातन व्रत को तोड़ने से मुझको ज़रा भी तकलीफ़ हुई हो या अफ़सोस हुआ हो, ऐसा तो मुझे याद नहीं पड़ता.
इस तरह भारतीय इतिहास में रश्मि पन्त पहली लड़की थी जो कि मेरी दोस्त बनी. लेकिन ये दोस्ती बड़े स्पेशल किस्म की थी. रश्मि की टॉम बॉय वाली प्रकृति कुछ ऐसी थी कि हम उस से बहुत बेतक़ल्लुफ़ी से दूसरी लड़कियों के बारे में भी बात कर लेते थे. वो हमारी सिर्फ़ दोस्त ही नहीं थी बल्कि हमारी हमराज़ भी थी. क्लास में हम लोग मिल कर धमा-चौकड़ी मचाते थे. मुझसे उम्र में साल डेड़ साल छोटी और मुझसे वज़न में आधी रश्मि मुझ पर और अपने चाचा समान खान भाई पर रुआब तो ऐसे झाड़ा करती थी जैसे कि वो हमारी दोस्त नहीं बल्कि हमारी नानी हो.
रश्मि पन्त नैनीताल की रहने वाली थी और लखनऊ में अपने दाज्यू (बड़े भाई) के परिवार के साथ रहती थी. मैं और खान भाई उसके रौब-दाब से डरकर उसे पन्त दाज्यू कहकर बुलाते थे और वो इसका बिलकुल भी बुरा नहीं मानती थी.  
पन्त दाज्यू मेरे जैसे और खान भाई जैसे हृष्ट-पुष्ट लोगों को ‘लहीम’ और ‘शहीम’ कह कर बुलाते थे. पन्त दाज्यू चूंकि अब हमारे बुज़ुर्ग बन चुके थे इसलिए उनके टिफ़िन से पकवान चुराने का हमको हक़ भी मिल गया था. मैं तो पढ़ाई के मामले में उनकी कुछ मदद करके पकवान की चोरी करने का खामियाज़ा दे देता था, इसलिए मुझे तो माफ़ कर दिया जाता था पर पढ़ाई में निहायत ही पैदल खान भाई की चोरी माफ़ नहीं की जाती थी और ऐसी हर चोरी पर उनकी पीठ पर पन्त दाज्यू दो-चार धौल तो ज़रूर ही लगा देते थे. ये बात और थी कि ऐसा करने पर खान भाई कहते थे –
ऐसा मत करो दाज्यू, गुदगुदी होती है.’  
पन्त दाज्यू से हमारी अक्सर बहस हो जाया करती थी पर उसका अंत हर बार एक जैसा ही होता था पन्त दाज्यू हमको पटक कर मारने की धमकी देते थे और हमारी पिटाई भी कर देते थे. हम बहस ख़त्म कर उनके सामने अपने हाथ जोड़ लिया करते थे.  
मैं और खान भाई, पन्त दाज्यू की सीट के ठीक पीछे बैठते थे. हमारे लिफ़ाफ़े जैसे पन्त दाज्यू सीलिंग फैन की हवा से उड़ न जायं, इस डर से खान भाई चोरी से हमारी डेस्क की एक कील से दाज्यू की चुटिया बाँध दिया करते थे. इस गुनाहे-अज़ीम के लिए खान भाई की कुटाई तो बनती थी पर अक्सर इसका फल मुझे भी भुगतना पड़ता था.
एक बार पन्त दाज्यू क्लास में बहुत उदास से बैठे थे. पूछने पर पता चला कि उन्हें काफ़ी बुखार है. फिर वो पंद्रह दिन तक क्लास में नहीं आए. हमने पता किया तो मालूम हुआ कि उन्हें जौंडिस हो गया है. जौंडिस से उबरने के बाद कमज़ोर से पन्त दाज्यू जब क्लास में वापस आए तो दैत्याकार खान भाई ने उन्हें चैलेंज दे डाला –
‘पन्त दाज्यू, हमसे पंजा लड़ा लो !’
एम ए, फ़ाइनल में हमारा वाइवा था. मुझको सबसे ज़्यादा अफ़सोस पन्त दाज्यू जैसे दोस्त से बिछड़ने का था. जाते-जाते पन्त दाज्यू ने मेरे और खान भाई के हाथों में एक-एक कार्ड थमा दिया. ये उनकी शादी का कार्ड था. पन्द्रह दिन बाद उनकी शादी थी. मैंने हैरत से पूछा –
‘दाज्यू, एक दम से शादी? आपने इसके बारे में पहले तो कुछ नहीं बताया.’
पन्त दाज्यू पहली बार शरमा कर बोले –
मेरी सगाई तो 6 महीने पहले ही हो गयी थी पर क्लास में मैंने किसी को बताया नहीं था.’
मैंने उन्हें बधाई दी और फिर उन से पूछा –
भाभी जी कहाँ हैं और क्या करती हैं?’
दाज्यू ने हैरानी से पूछा –
कौन भाभी जी?’
मैंने जवाब के बदले में एक सवाल दाग दिया –
हमारे दाज्यू से जो शादी करेगा उसे हम भाभी जी नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
पन्त दाज्यू के हाथों वह मेरी आखरी पिटाई थी पर इस बार न तो मेरी पिटाई करते हुए दाज्यू हंस रहे थे और न ही पिटते हुए मैं.
पन्त दाज्यू की शादी में हम बाक़ायदा शामिल हुए अच्छे व्यक्तित्व वाली और खुश मिजाज़ भाभी जी से मिलकर बड़ा अच्छा लगा.
पुराने ज़माने में न तो फ़ोन नंबर्स का आदान-प्रदान होता था और न ही किसी का फेसबुक अकाउंट होता था. पन्त दाज्यू आज कहाँ हैं और किस हाल में हैं, मुझे पता नहीं. लेकिन यह यकीन है कि वो जहाँ भी होंगे खुशियाँ बाँट रहे होंगे और अपने मित्रों की पीठ पर प्यार भरे धौल जमा रहे होंगे.        

12 टिप्‍पणियां:

  1. अल्मोड़े के दाज्यूओं के बारे में भी अपेक्षा है आप कुछ कहेंगे :)

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  2. अल्मोड़ा के कई दाज्यू इतने ही प्यारे थे पर बदकिस्मती से उनका वरद-हस्त हमको प्राप्त नहीं था. वैसे मैंने अल्मोड़ा के किंचित दाज्युओं पर लिखा भी है और आगे भी लिखूंगा.

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  3. आपका यह संस्मरण बहुत ही अच्छा लगा। शुरू से अंत तक बिना रुके पढ़ गई । मन अपने कॉलेज के दिनों में चला गया था....कुछ संस्मरण टाइममशीन से होते हैं !

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  4. धन्यवाद मीना जी. विद्यार्थी जीवन तो वाक़ई ज़िन्दगी का सुनहरा दौर होता है. जब तक यह चलता है तब हमें सेटल होने की जल्दी होती है पर सेटल होते ही हम अपनी बाकी की ज़िन्दगी बस यही गुनगुनाते रहते हैं - 'जाने कहाँ गए वो दिन --'

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  5. शरारतें हर युग में कम से कम स्कूल-कॉलेज के स्तर पर होती ही हैं और होती भी हैं लगभग समानता लिए. फिर जनरेशन गैप की बात क्यों होती है.आज तक नही समझ पाई. सदा की तरह रोचक और सुन्दर संस्मरण.

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  6. मीना जी, बुज़ुर्ग होते ही आदमी ज़िन्दादिली छोड़कर मनहूस हो जाय, यह मेरे कभी समझ में नहीं आता. वीर रस के ओजस्वी कवि दिनकर ने अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में जब 'उर्वशी' जैसे घोर श्रृंगारिक ग्रन्थ की रचना की थी तो बहुत लोगों को आपत्ति हुई थी. लेकिन हम तो वही लिखते रहेंगे जो हमारे मन में आएगा. बस, आप जैसे कद्रदान मिलते रहें.

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  7. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीनस गर्ल आज भी जीवित है दिलों में : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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    1. धन्यवाद राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' के माध्यम से सुधी पाठकों तक पहुंचना मेरे लिए सदैव गर्व का विषय होता है. मैं इस अंक का अवश्य आनंद प्राप्त करूंगा.

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  8. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीय माड़भूषि रंगराज अयंगर जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

    अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य"

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    1. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. "लोकतंत्र" संवाद मंच से जुड़ना मेरे लिए गर्व का विषय है. मैं इस अंक का आद्योपांत अध्ययन करूंगा.

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  9. उत्तर
    1. धन्यवाद रश्मि जी. यदि आप लोगों का स्नेह यूँ ही बना रहेगा तो मेरी कलम भी यूँ ही चलती रहेगी.

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