शनिवार, 21 सितंबर 2019

बहुत नाइंसाफ़ी है


बहुत नाइंसाफी है -
स्वामी चिल्मयानंद ('चिन्मयानन्द' नाम में उतना दम नहीं लगता) के साथ बहुत अन्याय हुआ है. भगवान श्री कृष्ण ने शिशुपाल के 100 अपराध क्षमा करने के बाद उसके 101 वें अपराध पर अपना सुदर्शन चक्र उस पर चलाया था जब कि एसआईटी ने उनकी 43 क्लिप्स वायरल होते ही उनको जेल में डाल दिया.
एक आध्यात्मिक संत ज़रा सा लौकिक क्या हुआ, लोगों ने तो हंगामा ही खड़ा कर दिया.
और फिर अगर कुछ जगह प्रधानमंत्री की अपील -
'बेटियां पढ़ाओ, बेटियां बचाओ'
को गलतफहमी में -
'बेटियां पढ़ाओ लेकिन उनको क़तई मत बचाओ'
समझ लिया गया तो उस पर इतनी हाय-तौबा मचाने की क्या ज़रुरत है?
चाचा मुलायम के अंदाज़ में हम कहेंगे -
जोशीले नेता हैं, इस जोश में कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो क्या उन्हें फांसी पर चढ़ा दोगे?
रास-लीला रचाने वाले हमारे संत का दर्द कोई तो समझे. स्वर्ग की सुख-सुविधा से उन्हें दूर रखना तो उनके लिए सज़ाए-मौत से भी बदतर है -
मेनका रक्से-हुनर, अपना न दिखलाएगी,
और जापान की, गीशा भी नहीं आएगी,
शहर-ए-बैंकॉक की, सुविधा जो न मिल पाएगी,
जेल में जान तो, फिर, पल में, चली जाएगी.
हमको विश्वास है कि उनकी इस व्यथा को सुनकर, उसे पढ़कर, उसे अपने दिल से महसूस कर, जेल के अधिकारी जेल का माहौल ज़रूर बदलेंगे और उसे रंगीन ज़रूर बनाएँगे.

15 टिप्‍पणियां:

  1. सारे फर्जी फर्ज समझा रहे हैं
    फर्जियों की फौज है
    फर्जी के गुन गा रहे हैंं
    होना कुछ नहीं है
    कुछ पागल हैं
    दिल की कुछ स्याही
    कुछ कलम की जला रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. फ़र्जी खोजन मैं चला, फ़र्जी मिला न कोय,
      फ़र्जी कहाँ से पाऊंगा, जब विटनेस बचा न कोय.

      हटाएं
  2. लौकिक लोगों के लिए जेल जेल नही होती
    पांच तारा होटल होती है।
    शारीरिक सुख हो सकता है ना मिल पाए लेकिन जी हजूरी वैसी ही होगी जैसी बाहर होती है।
    उम्दा लेखन।
    पधारें अंदाजे-बयाँ कोई और

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद रोहतास घोरेला जी.
      विश्वामित्र-मेनका प्रसंग में तो ऋषि विश्वामित्र को जेल नहीं हुई थी. इस कलयुग में ऋषि-मुनियों के साथ बहुत ज़्यादती हो रही है.
      जेल-अधिकारियों को हमारे संत को पांच-सितारा सुविधाएँ तो देनी ही चाहिए आखिर वहीं से तो धर्म का और देश की राजनीति का मार्ग-दर्शन करेंगे.
      आपके ब्लॉग 'अंदाज़े बयाँ कोई और' का आनंद अवश्य उठाऊँगा.

      हटाएं
    2. आपका मेरे ब्लॉग पर ििइंतजार रहेगा ।
      आजकल ऋषि प्रजाति है ही कहाँ
      आज कल तो बाबा बने फिर रहे है लोग।
      जिनके पास न तप है न ही तपस्या कोई।

      हटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-09-2019) को    "आलस में सब चूर"   (चर्चा अंक- 3467)   पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरे व्यंग्यात्मक आलेख को 'चर्च अंक - 3467' में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.

      हटाएं
  4. करारा व्यंग्य लिखे है सर।
    ... इन धार्मिक लाइसेंसी दुराचारियों को प्रश्रय देने के जिम्मेदार हमसब है।
    क्यों नहीं समझ आता है हमें कि धार्मिक आडंबर,धर्मांधता का फायदा उठाने वाले इन छद्म भेड़ियों की बात में न आकर अपने सद्कर्म, विवेक और तर्क के चक्षुओं का इस्तेमाल करना ही हमें जीवन के सही मूल्यों से परिचित करवायेगा। इन दुष्ट ढ़ोगियों,भ्रम फैलाकर अस्मिता से खेलने वाले बाबाओ को तो सरेआम चौराहों पर पत्थरों से तबतक मारने की सज़ा देनी चाहिये जब तक इनको अपनी गलती का पश्चाताप न हो।

    जवाब देंहटाएं
  5. श्वेता, मेरा मन तो तुम्हारी तरह ही इन पापाचारियों को सार्वजनिक रूप से दण्डित करने का कर रहा है पर क्या करूं, इनके अनुयायियों में तो अनेक मठाधीश और नेता-अफ़सर मौजूद हैं.
    मजबूरन हम कलम से ही अपनी भड़ास निकाल लेते हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर इनका व्यभिचार रोकें.

    जवाब देंहटाएं
  6. गोपेश भाई,बहुत सटिक और करारा व्यंग लिखा हैं आपने। पर मुझे लगता हैं कि ये बाबा लोग तो गलत हैं ही लेकिन इन लोगों को बाबा बनाने वाली आम जनता भी उतनी ही दोषी हैं। क्यों हम इन लोगों के बहकावे में आते हैं?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ज्योति जी, पापी, दुराचारी तो अदि काल से होते आ रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे. मेरी दृष्टि में पापियों की असलियत न समझ पाना और उनकी असलियत जानकर भी उन्हें बर्दाश्त करना सबसे बड़ा पाप है, अपराध है.
      इस पाप के लिए हम दोषी हैं, समाज दोषी है, हमारे धर्म के ठेकेदार दोषी हैं और हमारे नेता, हमारी सरकार दोषी है.

      हटाएं
  7. जनता की झुठी आस्था के दम पर, धर्म के दलाल अपना धंधा चलाने अपना सिट्टा सेंकने के लिए ऐसे बाबा पैदा करते हैं फिर स्वार्थीयों का एक गुट इनका पोषण करता है और जनता कि झुठी आस्था के दम पर सालों तक उन्हें उल्लू बनाता है ये एक गिरी मानसिकता का गिरा हुवा बिजनेस है । बहुत शानदार व्यंग तीखा प्रहार करता ।पर कितना असर होता है अंधभक्ति पर बस लेखक अपना दायित्व निभाया रहे करता पता कुछ लोगों पर असर हो ही जाए।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. किसी अहल्या के 'मन की वीणा' के तार तो तभी झंकृत होंगे जब वह अपने उद्धार के लिए अनंत काल तक किसी राम की चरण-धूलि की प्रतीक्षा करने के स्थान पर स्वयं अपना उद्धार करेगी और उसके जीवन को एक चिरंतन अभिशाप बनाने वालों का स्वयं दमन भी करेगी.
      आज भारत को -
      'आचल में है दूध और आँखों में पानी'
      वाली अबला नहीं, बल्कि आततायियों के लिए -
      'हाथों में है अस्त्र और आँखों में अग्नी'
      वाली रणचंडी चाहिए.

      हटाएं