फ़िल्मों के प्रति माँ की और मेरी दीवानगी देख कर पिताजी कहा करते थे कि हम दोनों का जन्म घर में या किसी अस्पताल में नहीं, बल्कि किसी सिनेमा हॉल में होना चाहिए था.
हमारी ननिहाल एटा में थी जहाँ कि पुराने ज़माने में कोई सिनेमा हॉल नहीं था लेकिन हमारी माँ ने अपने बचपन में नुमाइशों और मेलों में टेंट लगा कर काम चलाऊ मोबाइल सिनेमा में फ़िल्में देखने का लुत्फ़ खूब उठाया था.
माँ ने पहली फ़िल्म – ‘राजा भरथरी’ (भर्तहरि) देखी थी.
किस तरह अपनी रानी पिंगला को बेहद प्यार करने वाले, उसे अमृत फल देने वाले, राजा भरथरी उसके प्यार में धोखा खा कर राज-पाट छोड़ कर साधू हो जाते हैं और एक दिन रानी पिंगला के महल के द्वार पर खड़े होकर गा-गा कर उस से भिक्षा मांगते हैं और पश्चाताप की आग में जल रही रानी पिंगला उन्हें भिक्षा देकर किस प्रकार अपने प्राण त्याग देती है, इसका ऐसा वर्णन हमारी माँ करती थीं कि उस फ़िल्म का हर एक दृश्य हमारी आँखों के सामने सजीव हो जाता था.
माँ की एक और मन-पसंद फ़िल्म ‘सत्य हरिश्चंद्र’ हुआ करती थी. इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स था –
श्मशान घाट के डोम बने राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या से अपने पुत्र रोहिताश्व के शव का अंतिम संस्कार करने के लिए उस से कर मांगते हैं और कर के रूप में रानी अपनी साड़ी का एक हिस्सा फाड़ कर उन्हें देती है.
इस दृश्य का वर्णन हमारी रोती-बिसूरती माँ ऐसे करती थीं कि हम श्रोता भी उनके साथ आंसू बहाने लगते थे.
माँ की कमेंट्री सुन कर मुझको यकीन हो गया था कि हमारी ननिहाल के आदि-पुरुष महाभारत फ़ेम के संजय ही रहे होंगे.
1947 में जुडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में पिताजी की पहली पोस्टिंग आगरा में हुई थी.
धन्य हो शहर-ए-आगरा ! इसलिए नहीं कि वहां ताजमहल था, बल्कि इसलिए कि वहां कई सिनेमा हॉल्स थे. लेकिन परेशानी ये थी कि माँ फ़िल्मों की जैसी दीवानी थीं, पिताजी फ़िल्मों से उतना ही चिढ़ते थे.
फ़िल्मों से पिताजी की एलर्जी का एक किस्सा यहाँ ज़रूरी है –
हर थाने के पुलिसकर्मियों को अपनी कर्मठता दिखाने के लिए महीने में कम से कम एक-दो दर्जन मुल्ज़िमों को पकड़ कर मजिस्ट्रेट के सामने लाना ज़रूरी हुआ करता था.
रंगे-हाथ मुल्ज़िम पकड़ने के अधिकतर मामले फर्ज़ी हुआ करते थे और इन में दफ़ा 109 (सेंध लगा कर चोरी करने जैसी किसी आपराधिक गतिविधि की तैयारी कर रहे किसी व्यक्ति को अपराध होने से पहले ही पकड़ना) के मामलों का बाहुल्य होता था. इन पकड़े गए मुल्ज़िमों के पास से बरामद सामान की जो लिस्ट मजिस्ट्रेट के सामने पेश की जाती थी, वो हमेशा एक ही जैसी होती थी –
1. एक आलानक़ब (दीवार में सेंध लगाने के लिए लोहे का एक उपकरण)
2. एक बटुआ, जिसमें थोड़ी सी रेजगारी
3. एक बीड़ी का बंडल जिसमें थोड़ी सी बीड़ियाँ
4. एक माचिस की डिब्बी जिसमें कुछ तीलियाँ
5. सुरैया का एक फ़ोटो
संदिग्ध अपराधी से बरामद हुए सामान की इस फ़ेहरिस्त में पिताजी को पहले चार सामानों पर कोई ऐतराज़ नहीं था लेकिन उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था कि हर मुल्ज़िम के पास फ़िल्म स्टार सुरैया का ही फ़ोटो बरामद हो. आखिर नर्गिस, मुमताज़ शांति, बेगम पारा, नूरजहाँ, नसीम बानो वगैरा टॉप हीरोइन्स से इन उठाईगीरों की कौन सी दुश्मनी थी?
मुल्ज़िम से बरामद सामान की फ़ेहरिस्त में सुरैया के फ़ोटो का ज़िक्र देख कर पिताजी आमतौर पर उस केस को ख़ारिज ही कर दिया करते थे.
फ़िल्म देखने की माँ की ज़िद से और पिताजी के आदतन इंकार करने से, हमारे घर में बार-बार गाँधी जी का कोई आन्दोलन उठ खड़ा होता था.
कभी असहयोग आन्दोलन, कभी सत्याग्रह तो कभी सिर्फ़ अनशन. और तो और, कभी-कभी भारत छोड़ो की तर्ज़ पर आगरा छोड़ो (और अपने मायके एटा प्रस्थान करो) आन्दोलन भी हो जाया करता था.
इन गांधीवादी आन्दोलनों से त्रस्त होकर पिताजी साल में एकाद फ़िल्म माँ को दिखा ही देते थे.
माँ को फ़िल्म दिखाना पिताजी के लिए उतनी दुखदायी घटना नहीं हुआ करती थी जितनी कि फ़िल्मोपरांत उस पर होने वाली लम्बी चर्चा !
माँ के हिसाब से उनके चालीस-पचास भाई-बहनों (सगे और फ़र्स्ट, सेकंड कज़िन्स मिलाकर) में से अधिकतर किसी न किसी हीरो या किसी न किसी हीरोइन की कॉपी हुआ करते थे और हमारे पिताजी थे कि वो अपने इन सुदर्शन साले-सालियों में बहुत से मुकरी, धूमल, के. एन सिंह, टुनटुन और ललिता पवार खोज लिया करते थे.
फ़िल्मी आकाश में अमिताभ बच्चन रूपी तारे के जगमगाने से पहले माँ दिलीप कुमार की ज़बर्दस्त फ़ैन हुआ करती थीं.
दिलीप कुमार ने ‘अंदाज़’, ‘इंसानियत’, ‘देवदास’ और ‘गंगा जमुना’ जैसी दुखांत फ़िल्मों में उन्हें ख़ूब रुलाया था तो ‘कोहिनूर’ और ‘राम और श्याम’ में ख़ूब हंसाया था.
माँ को दिलीप कुमार और मधुबाला की जोड़ी बहुत पसंद थी. जब यह जोड़ी मधुबाला के लालची बाप की दखलंदाज़ी की वजह से टूट गयी तो माँ को बहुत दुःख हुआ था.
न तो माँ ने मधुबाला और जोकर किशोर कुमार की शादी को स्वीकार किया और न ही उन्होंने 44 साल के अधेड़ दिलीप कुमार और 22 साल की नवयुवती सायरा बानो की शादी को.
पिताजी ने माँ को आश्वस्त किया कि माँ कोई अच्छा सा वकील कर के 22 साल की सायरा बानो को अगर 11 साल की नाबालिग साबित करवा दें तो पिताजी न सिर्फ़ इस बेमेल शादी को रद्द करवा देंगे, बल्कि दिलीप कुमार को जेल भी भिजवा देंगे.
मेरे बड़े हो जाने पर और ख़ासकर मेरे कमाऊ हो जाने पर, माँ को फ़िल्म दिखाने की ज़िम्मेदारी मेरी हो गयी लेकिन माँ फिर भी पिताजी के साथ फ़िल्म देखने की ज़िद करती रहती थीं.
किसी ख़ास फ़िल्म की मुझ से तारीफ़ सुन कर कभी-कभी पिताजी माँ को ऑबलाइज करने के लिए तैयार भी हो जाते थे.
1978 की बात है. मेरी संस्तुति पर पिताजी ने राजकपूर की एवरग्रीन फ़िल्म ‘आवारा’ देखने की हामी भर दी.
माँ-पिताजी दोनों को फ़िल्म पसंद आई लेकिन इतिहास में कमज़ोर हमारी माँ के यह समझ में नहीं आया कि इस फ़िल्म में शम्मी कपूर, हीरो का यानी कि राज कपूर का बाप क्यों बना है ! (इस फ़िल्म में राज कपूर के पिता की भूमिका पृथ्वीराज कपूर ने निभाई थी जो कि 1952 में 1978 के शम्मी कपूर के जैसे दिखते होंगे)
अपने दांत पीसते हुए पिताजी ने माँ को करेक्ट करते हुए बताया कि ‘आवारा’ में राज कपूर के बाप की भूमिका उन के छोटे भाई शम्मी कपूर ने नहीं, बल्कि उनके बेटे ऋषि कपूर ने निभाई थी.
1978 में हमारे घर में टीवी आ गया. माँ रविवार को आने वाली फ़िल्म का बेसब्री से इंतज़ार करती थीं और पिताजी न जाने क्यों, फ़िल्म के दौरान ही आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही अपनी नींद पूरी किया करते थे.
फ़िल्म के दौरान सोने वाले पिताजी का सजग होकर न्यूज़ देखना और क्रिकेट मैच के प्रसारण का भरपूर आनंद उठाते हुए देखना, माँ को क़तई बर्दाश्त नहीं होता था.
1993 में पिताजी के निधन के बाद माँ ने सिनेमा हॉल में जाकर फिर कोई फ़िल्म नहीं देखी.
अब टीवी ही उनके फ़िल्मी मनोरंजन का साधन रह गया था.
1994 से सबके घरों में केबल टीवी आ जाने से घर-घर थिएटर खुल गए थे. हमारी माँ के लिए तो एक एक्सक्लूसिव टीवी हुआ करता था जिस पर दिन में और रात में कोई न कोई फ़िल्म ही चला करती थी.
हमारे घर में मेरी दोनों बेटियां अपनी अम्मा के साथ बैठ कर ख़ूब फ़िल्में देखा करती थीं. फ़िल्म देखते समय अम्मा के कमेंट्स भी चलते रहते थे.
सन 2000 के करीब की बात होगी. टीवी पर 1965 की फ़िल्म – ‘गुमनाम’ का गाना – ‘इस दुनिया में जीना हो तो सुन लो मेरी बात’ चल रहा था जिसमें थिरकती हुई हेलेन माँ को बड़ी अच्छी लग रही थी.
1965 और 2000 में घालमेल करते हुए माँ ने इतिहास की धज्जियाँ उड़ाते हुए टिप्पणी की –
‘ये मुई हेलेन बूढ़ी हो गयी लेकिन आज भी कितना अच्छा नाचती है’
अपने एक संस्मरण में मैं विस्तार से लिख चुका हूँ कि किस तरह अमिताभ बच्चन माँ के सबसे बड़े बेटे और हमारे बड़े भैया घोषित हो गए थे.
टीवी पर जैसे ही अमिताभ बच्चन दिखाई देते थे, मेरी बेटियां दौड़कर अपनी अम्मा को सूचित कर देती थीं कि बड़े ताउजी आ गए हैं.
सन 2000 में ही ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का प्रसारण शुरू हुआ था. माँ अपने सबसे बड़े बेटे के अथाह ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा करती थीं और यह मानने को क़तई तैयार नहीं होती थीं कि इस कार्यक्रम के पीछे किसी सिद्धार्थ बासु का हाथ है.
आज पिताजी और माँ हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी फ़िल्मी पसंद-नापसंद की यादें अब भी मेरा मनोरंजन करती हैं.
‘मुगले आज़म’ के बागी और बदतमीज़ सलीम को दो बेंत लगाने की हसरत रखने वाले पिताजी और अपनी देखरेख में सलीम-अनारकली की शादी करवाने की तमन्ना रखने वाली माँ की नोंक-झोंक को मैं आज भी मिस करता हूँ.
इस पर एक पूरी फ़िलम बन सकती है। नमन पिताजी और मां जी को।
जवाब देंहटाएंकिस्सागोई और फ़िल्म-प्रेम तो मुझे माँ से ही विरासत में मिला है लेकिन पिताजी की धीरता-गम्भीरता से मैं कोसो दूर हूँ.
हटाएंउफ़्फ़ ये यादें।
जवाब देंहटाएंमिस तो होगा ही सब कुछ।
सही बात है रोहतास !
हटाएंअपने बुढ़ापे ये यादें ही अब जीने का सहारा हैं.