बुधवार, 29 जून 2022

ऐसी आस्था से तो हम नास्तिक भले और ऐसी अक़ीदत से तो हम मुल्हिद भले

 इन दिनों धर्म-मज़हब और आस्था-अक़ीदत के नाम पर जिस पागलपन का वातावरण बन रहा है और उसके कारण जैसी-जैसी जाहिलाना- वहशियाना वारदातें हो रही हैं, उस से बहुत से समझदार लोगों के मन में धर्म-मज़हब के प्रति वितृष्णा का भाव विकसित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

कल उदयपुर में हुई एक जघन्य हत्या इस दुखद स्थिति का स्पष्ट संकेत है कि हम अपनी आस्था-अक़ीदत को ठेस पहुँचाने वाले को सबक़ सिखाने के लिए दरिन्दगी की कैसी-कैसी हदें पार कर सकते हैं.
आज धर्म-मज़हब के नाम पर ढोंग और पाखण्ड होता है, इसके नाम पर नफ़रत फैला कर वोट बटोरे जाते हैं और इसकी दुहाई दे कर सरकारें बनाई या फिर गिराई जाती हैं.
हनुमान चालीसा की रचना करते समय भक्ति-भाव में आकंठ निमग्न गोस्वामी तुलसीदास जी ने क्या कभी कल्पना की होगी कि इक्कीसवीं सदी में उनकी हनुमान-भक्ति परंपरा के प्रसार-प्रचार का दायित्व गिरगिटी प्रकृति की एक माननीया संभालेंगी?
क्या उदयपुर के ये भाड़े के क़ातिल सच्चे अर्थों में इस्लाम की ख़िदमत कर रहे हैं?
पांच सौ साल से भी ज़्यादा वक़्त हो गया है जब कि कबीर ने कहा था –
‘अरे इन दोउन राह न पाई’
आज सच्ची राह दिखाने वाले तो हमें कहीं दिखाई नहीं देते लेकिन हमको नेकी की और भाईचारे की राह से भटकाने वाले गली-कूचे में ही क्या, तमाम जनप्रतिनिधि सभाओं में भी बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.
सांप्रदायिक सद्भाव को अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य मानने वाले महात्मा गांधी ने देशवासियों को सच्ची राह दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की थी लेकिन उस कोशिश का अंजाम क्या हुआ, यह हम सबको पता है.
आज भी कई भक्तगण गांधी जी अनुपस्थिति में उनकी फ़ोटो पर गोली चला कर धर्म की सेवा कर रहे हैं.
इस्लाम की ख़िदमत के नाम पर न जाने कितने दहशतगर्द मासूमों का खून बहा रहे हैं.
सबसे ज़्यादा दुःख की बात यह है कि हर तरह की धर्मान्धता को राजनीतिक संरक्षण मिलता है.
हेट स्पीचेज़ अब इतनी आम हो गईं हैं कि जिस दिन ऐसा कोई भी आग-लगावा वक्तव्य जारी न हो उस दिन को कैलेंडर से ही हटा दिए जाने की व्यवस्था की जा सकती है.
प्रतिशोध-बदले की आग, घृणा-नफ़रत का ज़हर और साम्प्रदायिकता-फ़िरक़ापरस्ती के पागलपन को बढ़ावा देने वाले धर्म-मज़हब को तो त्यागना ही बेहतर है.
सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण हुए भारत-विभाजन की भारी कीमत चुका कर भी हमको समझ नहीं आई है.
आज कांकर-पाथर जोड़ के मन्दिर-मस्जिद तो हम बना लेंगे पर अगर हम उनमें बैठ कर लोगों के आपस में सर ही फुटवाते रहे तो क्या हम धर्म की सेवा करेंगे और क्या हम दीन की ख़िदमत करेंगे?
धर्म-मज़हब के इस विकृत रूप को अपनाने से तो बेहतर होगा कि हम नास्तिक हो जाएं.

23 टिप्‍पणियां:

  1. अदृश्य नकेल से नचाने वाले नास्तिक को भी वोट में बदलने का जुगाड बैठा लेंगे

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    1. हमारा वोट उन्हें नहीं मिल पाएगा. हम ख़ुद को नाबालिग घोषित कर देंगे.

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  2. सही है, धर्म के वास्तविक रूप को न जानकर इसके विकृत रूप को आज बढ़ावा दिया जा रहा है, इससे समाज पिछड़ता ही जा रहा है

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    1. अनिता जी, जाहिलों में कट्टरता हो तो बात समझ में आती है पर जब पढ़े-लिखे भी अपने दिमागों को ताक पर रख कर धर्म-मज़हब के नाम पर एक-दूसरे का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं तो हैरत होती है और दुःख भी होता है.

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  3. सबसे ज़्यादा दुःख की बात यह है कि हर तरह की धर्मान्धता को राजनीतिक संरक्षण मिलता है ।
    सही कहा आपने सर !....सामयिक हालातों पर सटीक व्यंग के साथ विचारणीय लेख ।

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    1. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी.
      फ़ॉर ए चेंज मेरे इस आलेख में व्यंग्य नहीं है बल्कि मेरा आक्रोश है.

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  4. विडम्बना तो यही है गोपेश भाई की कोई भी धर्म आपस में लड़ाई करने को नहीं कहता और धर्म के नाम पर ही ज्यादा लड़ाइयां होती है।
    बहुत सटीक व्यंग।

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    1. ज्योति, सुधा जी को भी मैं बता चुका हूँ कि इस आलेख में व्यंग्य नहीं है बल्कि मेरी कुंठा है, मेरा आक्रोश है.

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  5. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 30 जून 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. 'पांच लिंकों का आनंद' के दिनांक 30-06-2022 के अंक में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  6. आस्था और धर्मांध दरिंदगी दोनों दो बातें हैं। आस्था में समर्पण और विनय का भाव होता है।धर्मांध दरिंदगी में पशुता और वहशीपन का कुरूप चेहरा होता है।

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    1. मित्र, आस्था के और अक़ीदत के नाम पर अन्धविश्वास भी पनपता है, पाखण्ड भी होता है, नफ़रत भी भड़काई जाती है और खून-खराबा भी कराया जाता है.
      आस्था का शुद्ध रूप हम-तुम आकाश से तोड़ कर थोड़ी लाएंगे?
      ये महंत, ये इमाम आदि हमको धर्मान्धता और दरिंदगी ही तो सिखाते हैं.
      तुम बताओ कि आज आस्था के नाम पर हमको कौन भाईचारा और सहिष्णुता सिखा रहा है?

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  7. आदरणीय ,एक -एक शब्द से आपका आक्रोश टपक रहा है । ऐसी घटनाएं मानवता के नाम पर धब्बा है ....।सच्ची राह दिखाने वाले हैं कहाँ ....।

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    1. शुभा जी, हमको राह दिखाने वाले ये समाज के, धर्म के और देश के ठेकेदार, ज़्यादातर अक्ल के अंधे हैं या फिर महा-धूर्त हैं. हमको इन से हमेशा लम्बी दूरी बनाए रखनी चाहिए.

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  8. धर्म की आड़ में होती राजनीति और दरिंदगी देख हर आम इंसान के मन में आक्रोश ही पनपेगा। आपकी बात भी सही है ऐसी आस्था से हम नास्तिक भले।सटीक लेख।

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    1. अनुराधा जी, इन कपटी-ढोंगी-पाखंडी धर्मात्माओं से तो हम नास्तिक भले !

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  9. बहुत ही संवेदनशील विषय पर दर्द और आक्रोश भरा ये आलेख आज के माहौल में बहुत प्रासंगिक है, किस तरह अनैतिक धर्मांधता हमारे समाज को तोड़ने मे लगी है औ हम मूक दर्शक की तरह तमाशा देख रहे हैं ।

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    1. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा. तुमने - 'अनैतिक धर्मान्धता' का ज़िक्र किया है. धर्मान्धता तो हमेशा अनैतिक ही होती है, उसके साथ ही साथ इसमें छोटी-ओछी सोच, जहालत, नफ़रत और वहिशियाना असहिष्णुता भी होती है.

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  10. हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । धर्म की बात अलग है , लेकिन धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है वो चिंतनीय है । हनुमान चालीसा की बात तो सही है कि तुलसीदास जी ने ऐसा नहीं सोचा होगा और मुझे लगता है कि पैगम्बर मोहम्मद ने भी नहीं सोचा होगा कि मदरसों में ऐसा पाठ पढ़ाया जाएगा । रही गांधी जी की बात तो उस पर छुओ ही रहा जाए तो बेहतर , क्यों कि इस बात से सहमत नहीं हो पाऊँगी ।

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    1. संगीता जी, सच्चे धर्म को जला दिया गया है और सच्चे मज़हब को दफ़ना दिया गया है. धर्म-मज़हब, संस्कृति-तहज़ीब और शिक्षा-तालीम आदि की विकृति ने इन्सान को हैवान बना दिया है.
      गांधी जी की कई बातों से मैं असहमत हूँ पर मैं यह मानता हूँ कि उन्होंने सच्चे मन से सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने का प्रयास (भले ही वह असफल रहा) किया था.

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  11. संवेदनशील हृदयस्पर्शी सृजन

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