डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी का क्लीनिक मेरठ का सबसे मशहूर क्लीनिक माना जाता था.
डॉक्टर त्यागी अपनी इकलौती संतान, अपनी बिटिया आभा को अपनी तरह से डॉक्टर बना कर उसे अपने भावी मल्टी-स्पेशलिटी हॉस्पिटल का सर्वेसर्वा बनाना चाहते थे लेकिन उसने डॉक्टर वाला सफ़ेद कोट पहनने के बजाय वकील वाला काला कोट पहनने का फ़ैसला कर लिया था.
अपनी बेटी के वक़ील बनने पर निराश डॉक्टर त्यागी ने अब यह तय किया कि वो अपनी बिटिया के लिए एक ऐसा डॉक्टर वर खोजेंगे जो कि उनके क्लीनिक को एक बड़े अस्पताल में तब्दील करवाने में उनका भरपूर साथ दे और आगे चल कर फिर उनका त्तराधिकारी भी बन सके.
बेचारे डॉक्टर त्यागी ने अपनी कन्या के लिए सुयोग्य वर तलाश करने में चार साल लगा दिए पर कभी ख़ुद डॉक्टर साहब को लड़का नहीं जमता था तो कभी आभा को और अगर उन दोनों को लड़का पसंद आ जाता था तो उस लड़के को या तो नकचढ़ी आभा एक आँख नहीं भाती थी या फिर उसका ओवर डोमिनेटिंग बाप बर्दाश्त नहीं हो पाता था.
एक बार दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में डॉक्टर त्यागी की भेंट एक सुदर्शन नवयुवक डॉक्टर मधुकर पांडे से हुई.
डॉक्टर मधुकर पांडे दिल्ली के एम्स में हाल ही में नियुक्त हुआ था.
यह नौजवान कानपुर मेडिकल कॉलेज का टॉपर था और अपनी कम्युनिटी का मोस्ट एलिजिबिल बैचलर डॉक्टर माना जा सकता था.
पहली मुलाक़ात के दो घंटे अंदर ही डॉक्टर त्यागी के पास डॉक्टर मधुकर पांडे की पूरी जन्मकुंडली आ चुकी थी.
तीन दिन की सेमिनार के दौरान स्मार्ट डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी ने डॉक्टर मधुकर पांडे से आभा की न सिर्फ़ मुलाक़ात करवा दी बल्कि उनका एक एक्सक्लूसिवली प्राइवेट कैंडल लाइट डिनर भी करवा दिया.
मधुकर पांडे इटावा निवासी सुदामा पांडे मास्साब का बेटा था.
पांडे मास्साब के पास मधुकर को डाक्टरी पढ़ाने के लिए पैसा नहीं था.
हमारे गुदड़ी के लाल मधुकर पांडे ने अपने स्कॉलरशिप्स से और ट्यूशन कर-कर के अपनी इस महंगी पढ़ाई का जुगाड़ किया था.
इधर बेचारे पांडे मास्साब को अपनी एकमात्र बेटी की शादी एक इंजिनियर से करने में और अपने समधी जी की डिमांड पूरी करने में न सिर्फ़ अपना सारा प्रोविडेंड फ़ण्ड खर्च करना पड़ा था बल्कि अपना जर्जर पुश्तैनी मकान तक गिरवी रखना पड़ा था.
डॉक्टर त्यागी और डॉक्टर पांडे के प्रथम मिलन के तीन दिन बाद ही डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी कुल 51 तोहफ़ों के साथ सुदामा पांडे मास्साब के गिरवी पड़े मकान की खंडहरनुमा बैठक में एक डगमगाती पौने चार टांग की कुर्सी पर बहुत संभलकर बैठे हुए थे.
हमने पढ़ा है कि द्वापर युग में गरीब सुदामा पांडे अपनी कुटिया से निकल कर भगवान श्री कृष्ण के यहाँ उनके द्वारिका स्थित महल में पहुंचे थे पर कलयुग की इस स्टोरी में थोड़ा चेंज आ गया था.
इस बार श्री कृष्ण स्वयं सुदामा पांडे की कुटिया में याचक बन कर अपनी बेटी के लिए उन से उनका पुत्र मांगने आए थे.
पांडे मास्साब को मधुकर नाम की लाटरी खुलने की उम्मीद तो थी पर यह नहीं पता था कि यह लाटरी इतनी बम्पर होगी और वो ख़ुद चल कर उनकी कुटिया में आएगी.
पांडे मास्साब ने, उनकी श्रीमती जी ने और मधुकर ने तुरंत डॉक्टर त्यागी का शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.
एडवोकेट आभा त्यागी हमारे डॉक्टर मधुकर की तुलना में कुछ ज़्यादा तंदुरुस्त थी और उस से उम्र में साल-दो साल बड़ी थी तो क्या हुआ?
‘बड़ी बहू, बड़े भाग !’ वाली मिसल क्या बड़े-बूढ़ों ने यूँ ही कही थी?
होने वाले समधियों के बीच लेन-देन की ऊपरी बातें तो मधुकर के और उसकी माँ के, सामने ही हो गईं पर इस मामले में कुछ ज़रूरी अंदरूनी बातें होना अभी बाक़ी थीं.
रिश्ता तय करने के लिए सुदामा पांडे मास्साब के समक्ष डॉक्टर श्री कृष्ण त्यागी ने एकांत में अपनी कुल तीन शर्तें रक्खी थीं –
पहली शर्त यह थी कि मधुकर पांडे को एम्स की अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ कर अपने होने वाले ससुर का क्लीनिक जॉइन करना होगा.
दूसरी शर्त थी कि मधुकर को घर-जमाई बन कर रहना होगा.
पहली शर्त का सौदा पांडे जी के गिरवी रखे मकान को छुड़वाने के ऑफ़र में पट गया और दूसरी शर्त का सौदा पांडे जी के इसी मकान के जीर्णोद्धार, और श्रीमती पांडे के लिए चार-पांच भारी-भारी गहनों के बनवाने में तय हो गया.
लेकिन डॉक्टर त्यागी की तीसरी शर्त बड़ी घातक थी.
तीसरी शर्त थी कि मधुकर पांडे अपनी शादी के बाद न तो अपने दरिद्र-लालची माँ-बाप से या अपनी बहन से कोई सम्बन्ध रक्खेगा और न ही उनकी बिटिया आभा अपने सास-ससुर को या अपनी ननद को कभी अपने घर फटकने देगी.
सुदामा पांडे मास्साब को डॉक्टर त्यागी की यह घोर अपमानजनक तीसरी शर्त क़तई मंज़ूर नहीं थी.
उन्होंने आवाज़ दे कर मधुकर को बैठक में बुला लिया और उसे डॉक्टर त्यागी की नाक़ाबिले-बर्दाश्त शर्त के बारे में बता कर उस से कहा कि वह इस रिश्ते की बात को हमेशा के लिए भूल जाए.
अपनी ज़िंदगी में अपने बाप के सामने कभी भी मुंह न खोलने वाले सपूत ने पहली बार अपना मुंह खोल कर उनसे बा-आवाज़े बुलंद कहा –
‘बाबूजी, यह शर्त पापा (यानी डॉक्टर त्यागी) की नहीं है बल्कि ख़ुद आभा की है और मैं इसे हौज़ ख़ास में साढ़े तीन सौ मीटर के प्लाट की एवज़ में मान भी चुका हूँ.
आपको भी इस शर्त को मानने के लिए जितनी भी मोटी रकम चाहिए वो आप मुंह खोल कर पापा से मांग लीजिए.’
अंत में इस विवाद की एंडिंग हैप्पी ही हुई !
इस तीसरी शर्त को मानने के लिए सुदामा पांडे के नाम फिक्स्ड डिपाज़िट की इतनी बड़ी राशि रख दी गयी कि उसके मासिक ब्याज के सामने पांडे जी की सरकारी पेंशन बौनी नज़र आए.
इस प्रसंग के दो महीने बाद के एक शुभ मुहूर्त में वरमाला और फिर सात फेरों के बाद चिरंजीव डॉक्टर मधुकर पांडे अब सदा-सदा के लिए आयुष्मती आभा त्यागी के हुए.
अंत में कन्यादान की वेला आई.
शुभ विवाह संपन्न कराने वाले पंडित जी को मोटी दक्षिणा प्राप्त करने का आख़िरी मौक़ा मिल रहा था.
पंडित जी ने आवाज़ लगाई –
‘कन्यादान के लिए कन्या के माता-पिता आगे आएं !’
तभी शादी के नेगों में साले-सलहज द्वारा बहुत सस्ते में टरका दिए जाने से ख़फ़ा और बेहद सुलगे हुए मधुकर पांडे के फूफाजी ने पंडित जी को टोकते हुए कहा –
‘पंडित जी, इस विवाह में कन्यादान नहीं होगा.
हमारे समधी साहब और समधी साहिबा ने अपने लिए जमाई और हमारी बहूरानी ने अपने लिए वर खरीदा है फिर काहे को उनसे कन्यादान की रस्म करवाई जाए?
आप तो हमारे साले साहब से और हमारी सल्हज साहिबा से पुत्र-विक्रय की रस्म करवाइए.’
क़ायदे से तो अपनी जग-हंसाई पर और जग-थुकाई पर, सुदामा पांडे मास्साब को चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए था लेकिन तीन लोक का राज मिल जाने की ख़ुशी में, अपनी खींसें निपोरते हुए, वो बेशर्मी से, अपने ऊपर ठहाका लगाने वालों का खुल कर साथ दे रहे थे.