रविवार, 10 नवंबर 2024

प्रभुजी, तुम चन्दन, हम पानी

 जहाँ भी तुम क़दम रख दो

वहीं पर राजधानी है
न ही इज्ज़त की है चिंता
न ही आँखों में पानी है
इशारों पर हिलाना दुम
ये पेशा खानदानी है
तुम्हारे फेंके टुकड़ों से
क्षुधा अपनी मिटानी है
चरण-रज नित्य श्रद्धा से
हमें मस्तक लगानी है
कहो दिन को अगर तुम रात
तो लोरी सुनानी है
तुम्हारी धमकियाँ-गाली
हमारी बेद-बानी है
तुम्हारे झापडों की मार भी
लगती सुहानी है
क्यों हम कबिरा सा सच बोलें
मुसीबत क्या बुलानी है
तुम्हारे वास्ते है बेच दी हमने अकल अपनी
तुम्हारे नाम पर ये आत्मा गिरवी रखानी है
मुसाहिब हैं हमारा काम हाँ में हाँ मिलाना है
तुम्हारी हर जहालत पर हमें ताली बजानी है
न ओहदा है न रुतबा है भला इसकी शिक़ायत क्यों
हमें जूती उठाने दीं तुम्हारी मेहरबानी है

4 टिप्‍पणियां:

  1. जब समाज सुविधाभोगी बन जाता है, ऐसे चरित्र बढ़ने लगते हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनिता जी, जो शख्स अपनी इज्ज़त, आबरू, ज़मीर और आत्मा को बेमोल बेच कर भी किसी जाहिल की जूतियाँ उठा रहा हो, वह तो सुविधाभोगी नहीं बल्कि महा-त्यागी कहलाना चाहिए.

      हटाएं
  2. उत्तर
    1. मेरी गुस्ताख़ रचना की तारीफ़ के लिए शुक्रिया दिग्विजय अग्रवाल जी. सप्रेम नमस्कार !

      हटाएं