नवम्बर, 1980 में मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा कांसटीच्युयेंट कॉलेज के इतिहास विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यभार सम्हाला था. अपने अकडू स्वभाव के कारण मैंने हेड ऑफ़ दि इंस्टीट्यूशन (एचओआई) के घर जा कर उनको सजदा करने की ज़रुरत ही नहीं समझी थी.
कॉलेज ज्वाइन करने के सात
दिन बाद ही एचओआई महोदय का चपरासी मेरे पास
उनका बुलावा ले कर आ गया.
जब मैं हुज़ूरेवाला के
दौलतखाने पर पहुंचा तो वहां वो मेरी तरह के ही चार नव-नियुक्त प्रवक्ताओं के समक्ष
आत्मश्लाघा पुराण बांच रहे थे.
मुझे भी आत्मश्लाघा-पुराण
बांचने की उस पीड़ा को उन चार निरीह प्राणियों के साथ सहन करना पड़ा.
खैर, पुराण बांचने का कार्यक्रम समाप्त हुआ और उन चारों शिकारों
ने हुज़ूरेवाला को फ़र्शी सलाम कर के उन से विदा ली.
अब दरबार में बचा अकेला मैं
!
हुज़ूरेवाला ने मुझे घूरते हुए
मुझसे पूछा –
‘क्यों जनाब ! आपके पांवों में क्या मेहंदी लगी हुई थी कि आप
कहीं आने जाने क़ाबिल नहीं रह गए थे?’
मैंने विनयपूर्वक उत्तर दिया
–
‘सर, आपने जैसे ही अपना क़ासिद
भेजा, मैं दौड़ा-दौड़ा चला आया हूँ.
फिर भला मेरे पांवों में मेहंदी कैसे लगी हो सकती थी?’
हुज़ूरेवाला ने मेरी यह दलील
सुन कर भी मुझे माफ़ नहीं किया.
अगले आधे घंटे तक मुझे
समझाया गया कि एचओआई ही हम बेबस
मुदर्रिसों का माई-बाप होता है
और अपने वर्तमान को सुरक्षित रखने तथा अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए उसकी
सेवा-सुश्रूसा-मुसाहिबी करना हमारे जैसों के लिए सांस लेने के जितना ही ज़रूरी होता
है.
आदरणीय के धमकी भरे इस प्रवचन
के बीच ही हमारे कॉलेज की चपरासी यूनियन के अध्यक्ष का आगमन हुआ.
आदरणीय ने चपरासी-नेता का
गर्मजोशी से स्वागत किया, उसे प्यार से सोफ़े पर
बिठाया, उसके लिए तुरंत चाय मंगवाई (मुझ बेचारे को उन्होंने पानी तक के लिए नहीं पूछा था) लेकिन उस नेता ने उन्हें निकम्मा, वादा-खिलाफू और कॉलेज-कलंक के तीन ख़िताब एक साथ दे डाले.
मेरे सामने शेर बन कर गरजने
वाले आदरणीय अब उस चपरासी-नेता के सामने भीगी बिल्ली बने म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए
अपनी सफ़ाई देने की नाकाम कोशिश में लगे हुए थे.
आदरणीय की यह दुर्दशा देख कर
उनसे विदा लेते समय मेरा खौफ़-एचओआई पूरी तरह से ख़त्म हो गया था.
मेरे खुराफ़ाती दिमाग ने कबीर
के एक दोहे को उलट कर तुरंत एक नया दोहा कहने के लिए मजबूर कर दिया -
‘दुर्बल ही को सताइए, बिना सींग की गाय,
अगर प्रबल
हो सामने, तुरतहिं सीस नवाय.’
हमारे आदरणीय इन चपरासी
नेताओं से दस गुना ज़्यादा खौफ़ छात्र नेताओं से खाते थे.
छात्र नेतागण मंच से
चिल्ला-चिल्ला कर उन पर मनगढ़ंत आरोप लगाते समय एक से एक हिंसक अपशब्दों का प्रयोग
करते थे.
हमारे आदरणीय छात्रों की
गालियां और तोहमतें ऐसा रस ले कर सुनते थे,
जैसे सेंचुरी लगाते हुए
सुनील गावस्कर के करिश्माई खेल की कमेंट्री हो रही हो.
हमारी चौथी मुलाक़ात में
आदरणीय को पता चला कि मैं उनके अल्मा मैटर लखनऊ विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ा
चुका हूँ. इस ख़बर से उनके दिल में मेरी इज्ज़त आने-दो आने बढ़ गयी थी.
लेकिन फिर कमाल हो गया.
हमारी अगली मुलाक़ात में आदरणीय
को यह भी पता चला कि मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल आई०ए०एस० में सेलेक्ट
होने से पहले दो साल लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में लेक्चरर रह
चुके थे.
अपने छात्र-जीवन में आदरणीय
के लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में कई मित्र थे. हमारे कमल भाई साहब
से भी उनकी थोड़ी-बहुत जान-पहचान थी लेकिन भाई साहब के आई०ए०एस० में सेलेक्ट होने
के बाद हमारे आदरणीय उन्हें अपना अभिन्न मित्र मानने लगे थे.
मेरे इस नए परिचय के बाद आदरणीय
की दृष्टि में मेरा स्टेटस काफ़ी ख़ास हो गया था. उन्होंने मुझ से कहा –
‘तुम अगर हमारे अज़ीज़ दोस्त के० के० जैसवाल के छोटे भाई हो तो
आज से हमारे भी छोटे भाई हो.’
मैंने कहा –
‘मेरा बड़ा भाई बनने से पहले आप यह जान लीजिए कि कमल भाई साहब
न तो आपकी तरह मुझे धौंसियाते हैं और न ही वो मुझ पर अपने ओहदे का कोई रौब गांठते हैं.’
आदरणीय ने ‘ही ही ही’ करते हुए
कहा –
‘अपनी किस्मत में अगर एक गुस्ताख़ छोटा भाई लिखा है तो हमको
वो भी कुबूल है.’
अब इस गुस्ताख़ छोटे भाई ने
अपने ऊपर थोपे गए बड़े भाई की भीगी बिल्ली जैसी डरपोक हरक़तों की उनके मुंह पर ही
आलोचना कर के और एक से एक भर्त्सनापूर्ण सवाल दाग-दाग कर, उनका जीना हराम कर दिया.
मसलन –
1.
‘उस गुंडे स्टूडेंट लीडर की
गालियाँ खा कर भी आपने उसको चाय क्यों पिलाई?
2.
एस० पी०, डी० एस० पी० की तो छोड़िए. आप तो सब-इंस्पेक्टर तक को ‘सर’ कहते हैं. क्या आपका ओहदा
हेड कांस्टेबल के बराबर का है?
3.
नक़ल करते
हुए स्टूडेंट्स को देख कर भी आप उन्हें अनदेखा क्यों करते हैं?’
4.
रोज़ाना
गालियाँ खा-खा कर भी आप एचओआई की पोस्ट से रिज़ाइन करने की क्यों नहीं सोचते?’
आदरणीय के पास मेरे ऐसे सभी सवालों
का हमेशा एक ही जवाब होता था –
‘इसको चाणक्य-नीति कहते हैं नादान बालक !’
कॉलेज में जिस किसी की
तोला-माशा-रत्ती भर भी न्यूसेन्स वैल्यू होती थी, उसके सामने नतमस्तक होने में हमारे आदरणीय ज़रा भी तक़ल्लुफ़
नहीं करते थे.
दुर्बल को सताने वाली और
प्रबल के सामने दुम हिलाने वाली अपनी चाणक्य-नीति का पालन करते हुए भी आदरणीय
मात्र तीन साल में एचओआई के पद से हटा दिए गए और उन से उनका बंगला-ए-ख़ास भी छीन कर
उन्हें एक घुचकुल्ली सा फ्लैट उपलब्ध करा दिया गया.
मैंने इसे मुगलिया इतिहास के
शहज़ादों की तर्ज़ पर उनका तख़्त से तख्ते तक का सफ़र (तख़्त यानी कि सिंहासन से ले कर फांसी के तख्ते तक का सफ़र) कहा.
आदरणीय के इस डिमोशन के वक़्त
उनके हमदर्दों में केवल उनकी श्रीमती जी थीं और पूरे कॉलेज में सिर्फ़ एक मैं था जिनके
कि कंधे पर वो बारी-बारी से अपना सर रख कर धाड़ मार-मार कर रो सकते थे.
मुझे उम्मीद थी कि अब आदरणीय
अपनी कुर्सी छिनने के डर से आज़ाद
होने के बाद निर्भीक शेर बन जाएंगे
फिर वो सब दबंगों-हेकड़ीबाज़ों पर दहाड़ेंगे और दुर्बलों के सहायक बन कर उभरेंगे.
लेकिन हुआ इसका उल्टा.
इस डिमोशन के बाद भी हमारे आदरणीय
कुलपति की चाकरी करने से और अफ़सरान की खुशामद करने से बाज़ नहीं आए.
वो अब भी किसी लठैत, किसी मुस्टंडे, के सामने भीगी बिल्ली बन जाते थे और किसी बकरी जैसे निरीह
प्राणी पर शेर बन कर टूट पड़ते थे.
वाह
जवाब देंहटाएं'वाह' के लिए शुक्रिया दोस्त !
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