शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

शाश्वत प्रश्न ???

पिघले कोलतार की चिपचिप से उक्ताई,
गर्म हवा के  क्रूर थपेड़ों  से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त, सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती , धुआँ  उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा।
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे।

स्थिति  का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, साँसें भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं ?

कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया।
उठा लिया उसको गोदी में,
हँसते -हँसते  उससे बोला -
'होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है ।'
यूँ  बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह ।

काँधे  से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं?'


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