रविवार, 9 अगस्त 2015

कलम आज उनकी जय बोल


9 अगस्त, 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लगभग सौ क्रांतिकारियों ने पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में सरकारी खज़ाना ले जा रही ट्रेन को काकोरी में लूटा था. इस ट्रेन डकैती में सरकारी खज़ाना लूटने के सिवा, खून-खराबा करने का क्रांतिकारियों का कोई इरादा नहीं था पर इसमें एक यात्री उनकी गोली से मारा गया था. क्रांतिकारियों के हाथ केवल 8000 रुपये लगे थे पर इस छोटी सी रकम का भी वो सदुपयोग नहीं कर सके और इस कांड से जुड़े हुए अधिकांश शीघ्र ही पकडे गए. इसमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां, राजेन्द्र लाहिरी और ठाकुर रौशन सिंह को फांसी, शचीन्द्रनाथ सान्याल व शचीन्द्रनाथ बक्शी को काला पानी तथा मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी थी. आज हम काकोरी कांड के 4 शहीदों की चर्चा करेंगे.

1. क्रान्तिकारी और प्रसिद्द शायर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ‘सरफरोशी की तमन्ना’ से हर जागरूक भारतीय परिचित है. बिस्मिल ने असहयोग आन्दोलन में उत्साहपूर्वक भाग लिया था. स्वदेशी में उनके प्राण बसते थे –

‘तन में बसन स्वदेशी, मन में लगन स्वदेशी, फिर से भवन-भवन में, विस्तार हो स्वदेशी.
सब हों स्वजन स्वदेशी, होवे चलन स्वदेशी, मरते समय कफ़न भी दरकार हो स्वदेशी.’


परन्तु चौराचौरी कांड के बाद असहयोग आन्दोलन का स्थगन उन जैसे नवयुवकों को स्वीकार्य नहीं था. अंततः इन नवयुवकों ने दमनकारी उपनिवेशवाद का प्रतिकार करने के लिए जवाबी हिंसा का रास्ता अपना लिया. अब बिस्मिल आज़ादी के पौधे को सदा हरा-भरा रखने के लिए उसे अपने खून से सींचने को तैयार थे -

‘दिल फ़िदा करते हैं, कुर्बान जिगर करते हैं, पास जो कुछ भी है, माता की नज़र करते हैं.
सूख जाये न कहीं, पौधा ये आज़ादी का, खून से अपने इसे, इसलिए तर करते हैं.’


खुद को और अपने तीन साथियों को फांसी की सजा सुनाये जाने का स्वागत करते हुए बिस्मिल ने यह आशा की थी कि उनके बलिदान से उनके जैसे सैकड़ों क्रांतिकारी और पैदा होंगे –

‘मरते बिस्मिल, रौशन, लहरी, अशफाक, अत्याचार से,
होंगे पैदा सैकड़ों, इनके रुधिर की धार से.’



2. अशफाक़उल्ला खां भी अपने अज़ीज़ दोस्त बिस्मिल की तरह एक शायर थे और उन्हीं की तरह वो सिर्फ अपने वतन के लिए जीना और मरना चाहते थे-

‘जुनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है, लहू में फिर ये रवानी, रहे, रहे न रहे.
वतन हमारा रहे, शाद-काम और आज़ाद, हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे.’


(जुनूने हुब्बे वतन – देशभक्ति का पागलपन, शबाब – जवानी, रवानी – प्रवाह, शाद-काम और आजाद – खुश हाल और स्वतंत्र)


3. क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य राजेन्द्र लाहिरी ने दक्षिणेश्वर बम कांड में भी भाग लिया था. वो एक सफल पत्रकार भी थे. अपनी शहादत से पूर्व राजेन्द्र लाहिरी ने कहा था –‘मैं मरने नहीं जा रहा हूँ बल्कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ.’


4. ठाकुर रौशन सिंह काकोरी कांड से सम्बद्ध नहीं थे किन्तु 1924 में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए आवश्यक धन जुटाने के लिए लूट करते समय उनसे एक व्यक्ति की हत्या हो गयी थी इसलिए काकोरी कांड के अभियुक्तों के साथ ही उन पर मुक़दमा चलाया गया था. जज ने उन्हें एक अन्य आरोप में पहले 5 साल की सजा सुनाई फिर हत्या के आरोप में फांसी की. अंग्रेजी कम जानने वाले रौशन सिंह यह समझ कर कि उन्हें सिर्फ 5 साल की सजा मिली है, बहुत निराश हुए पर उनके कान में किसी ने बताया कि उन्हें भी फांसी की सजा ही मिली है तो उन्होंने खुश होकर बिस्मिल को संबोधित करते हुए कहा – ‘क्यों पंडित! अकेले-अकेले फांसी पर चढ़ने की सोच रहे थे? अब मैं भी तुम्हारी तरह फांसी पर चढूंगा.’ रौशन सिंह को फांसी दिए जाने के बाद उनके परिवार को आर्थिक कठिनाई के साथ-साथ सामाजिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा. कोई भी उनकी बेटी को अपने घर की बहू बनाने को तैयार नहीं था. श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के विशेष प्रयासों से ही उनकी बेटी की शादी संपन्न हो सकी थी.

काकोरी के अमर शहीदों को इतिहास में वो मान-सम्मान नहीं मिला है जिसके कि वो हकदार थे. क्रांतिकारियों में अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने की पर्याप्त क्षमता नहीं थी इसीलिये अपने अभियान में उन्हें कभी प्रत्यक्ष सफलता नहीं मिली पर उन्होंने अपनी कुर्बानियों से देशवासियों के दिल में देशभक्ति की ऐसी चिंगारी सुलगा दी थी जिसे आज़ादी का दावानल बनने में देर नहीं लगी. भारत के इन बहादुर किन्तु उपेक्षित सपूतों के निस्वार्थ त्याग और बलिदान के लिए मेरी कलम भी कवि दिनकर की वाणी दोहराती है – ‘जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर बिना लिए गर्दन का मोल, कलम आज उनकी जय बोल.’


3 टिप्‍पणियां:

  1. सच में कुछ तो है कहीं जहाँ जय बोलते हुऐ ये महसूस नहीं होता है कि हम झूठ बोल रहे हैं :)

    बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

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    1. कभी-कभी दिमाग से ज्यादा, दिल से लिखने में ज्यादा सुकून मिलता है. कोई तो हो जो दिल्ली के अधिपतियों के भव्य स्मारकों और उनकी समाधियों की जगह इन शहीदों की टूटी -फूटी समाधियों या क़ब्रों पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ा दे.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन में काकोरी के शहीदों को मेरी श्रद्धांजलि सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद.

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