मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

यह तो मेरा धर्म नहीं है

यह तो मेरा धर्म नहीं है –
हमारे जैन धर्म में सत्य, अहिंसा अस्तेय अपरिग्रह आदि पर बहुत बल दिया जाता है हमारे चौबीसों तीर्थंकर राज-परिवार से सम्बद्ध थे किन्तु उन्होंने वैभव सुख-सुविधाओं आदि का परित्याग कर त्याग मानव-कल्याण हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया था पर आज हम उनके अनुयायी क्या कर रहे हैं?
सिकंदराबाद के एक धनाढ्य जैन परिवार ने अपनी 13 वर्षीय बेटी आराधना समदरिया को 68 दिनों के निराहार व्रत के लिए ‘प्रेरित किया’. यहाँ मैं जान बूझकर ‘विवश किया’ शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ. कहा जा रहा है कि बालिका आराधना ने स्वयं ही इस तथाकथित तपस्या का निर्णय लिया था. पिछले साल उसने 34 दिनों का निराहार व्रत का अनुष्ठान सफलतापूर्वक संपन्न किया था. बालिका आराधना ने अपना 68 दिनों का निराहार व्रत संपन्न किया किन्तु इसके दो दिनों बाद ही 3 अक्टूबर, 2016 को दिल का दौरा पड़ने से उसकी मृत्यु हो गयी.
प्रश्न उठता है कि क्या किसी को भी, विशेषकर किसी अल्प-वयस्क को, ऐसा आत्मघाती निर्णय लेने का अधिकार है? बच्चों के अधिकारों से जुड़े अनेक संगठन इस दिल दहलाने वाली मानव-निर्मित अमानवीय त्रासदी के विरुद्ध लामबंद हो गए हैं. पुलिस में बच्ची के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज किया गया है. आराधना के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज होते ही हैदराबाद के जैन समाज ने हैदराबाद में कोटी में एक सभा आयोजित की और फिर जैन गुरु श्री मांगीलाल भंडारी ने यह घोषणा की –
‘किसी को भी हमारे धर्म का पालन करने के मार्ग में, बाधा पहुँचाने का अथवा हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है. आराधना के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज करना, जैन समुदाय के आध्यात्मिक विषय में हस्तक्षेप है.’
आम तौर पर (भले ही अप्रत्यक्ष रूप से) हत्या कहा जाने वाला एक कुकर्म, कैसे जैन समाज का आध्यात्मिक विषय हो गया? यह कैसा धर्म है जो किसी अबोध बालिका के खून में रंगा हुआ है? सबसे दुःख की, शर्म की बात यह है कि न केवल सिकंदराबाद का जैन समुदाय दिवंगत आराधना के माता-पिता के पक्ष में आगे आया है अपितु अन्य क्षेत्रों से भी हमारे जैनी भाई-बंधु समदरिया दंपत्ति के समर्थन में एकजुट हो गए हैं. कहीं से भी जैन समाज द्वारा, विशेषकर हमारे जैन आचार्यों-साध्वियों द्वारा इस घोर अमानवीय एवं पाखंडी धार्मिक अनुष्ठान की भर्त्सना नहीं की गयी है.
कुछ समय पूर्व एक नवयुवती ने जैन साध्वी (अर्जिका) की दीक्षा ली थी किन्तु उसने अपने साथ अपनी डेड़ साल की दुधमुंही बच्ची को भी साध्वी बनवा दिया था. और हमारा जैन समाज ऐसे अनाचार को रोकने के स्थान पर – ‘धन्य हो, धन्य हो’ के नारे लगाता रहा.
जैन समाज में शिक्षा का प्रचलन बहुत अधिक है परन्तु धर्म के नाम पर पाखण्ड तथा धन-प्रदर्शन (वल्गर डिस्प्ले ऑफ़ मनी) उससे भी अधिक है. हम अपने त्यागी भगवानों की मणियों की. स्वर्ण की, अष्टधातु की मूर्तियाँ बनवाते हैं. हम ऐसे स्थानों पर कई और भव्य मंदिरों का निर्माण करवा देते हैं जहाँ पहले से ही पचासों क्या, सैकड़ों मंदिर विद्यमान हैं. अब हमारे भगवानों की मूर्तियाँ इस उद्देश्य से बनाई जाती हैं कि अपनी विशालता और अपनी भव्यता के कारण उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ड रिकॉर्ड्स में आ सके. हेलीकॉप्टरों से हमारे पंच-कल्याणकों में पुष्प-वृष्टि की जाती है. सत्ताधारियों के साथ हमारे मुनि तथा अर्जिकाओं की सैकड़ों तस्वीरें हमारे मंदिरों की शोभा बढ़ाती हैं. हमारे मुनिगण अब जन-प्रतिनिधि सभाओं में जाकर उपदेश भी देने लगे हैं और चौबीसों घंटे टीवी चैनलों पर छा रहे हैं.   
जैन समाज में औषधि-दान, शिक्षा-प्रचार आदि जन-सेवा के सैकड़ों कार्य होते हैं पर हमारे अति-धनाढ्य समुदाय में लोक-कल्याण के इससे कहीं अधिक कार्य करने की क्षमता है.   
आज जैन समाज को एक साहसी राजा राममोहन रॉय की आवश्यकता है. कोई तो आगे आकर ग़लत को ग़लत कहने का साहस करे. कोई तो हो जो कबीर बनकर भटके हुओं को राह दिखा सके. कोई यह कह सके कि काले धन की कमाई से, हवाला से, किसी जैन डायरी से, तुम धर्म-लाभ प्राप्त नहीं कर सकते.
हो सकता है कि मुझे अपने विचारों के लिए विरोध का सामना करना पड़े, हो सकता है कि जैन समाज इसे किसी पागल की बकवास समझकर इसकी नितांत उपेक्षा करे किन्तु यदि मेरी बात जैन समाज की युवा पीढ़ी को उचित लगती है, विचारणीय लगती है तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी.

हमको आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम जैन समुदाय के लोग एक ऐसा दिन देखेंगे जब हम आध्यात्मिक उन्नति, आडम्बर हीन निश्छल भक्ति, मानव-कल्याण, परोपकार, सच्चाई, विनम्रता, सादगी और त्याग में ही धर्म को खोजेंगे.                                                           

2 टिप्‍पणियां:

  1. शिक्षित एवं समर्थवान समुदाय में ऐसा अमानवीय कृत्य? शर्म से मेरी गर्दन तो झुकी जा रही है.

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