लागा चदरिया में
दाग -
घृणा, पाप की काली
चादर,
पर इक उजला दाग
लगा था,
सत्य, अहिंसा और
प्रेम का,
सबकी आँखों में वो लेकिन,
खटक रहा था.
सबकी आँखों में वो लेकिन,
खटक रहा था.
राष्ट्र-प्रभू
बेहद चिंतित थे,
‘कैसे
इस से पिंड छुड़ाऊं?’
राष्ट्र-प्रतिष्ठा
का सवाल था.
एक बीरबल आगे
आया,
प्रभू-कान में
कुछ बतलाया,
प्रभु मुस्काए, शाबाशी
दी,
फिर वो गरजे -
‘बैर,
फूट का साबुन लाओ
इस कलंक को अभी
मिटाओ’
और दाग वह तुरत
मिट गया,
तस्वीरों से कोई
हट गया,
नया आ गया.
सूरज के बिन हुआ
सवेरा,
और छा गया घना
अँधेरा.
नैतिकता पर पड़ी
खाक है,
पर बाक़ी सब,
ठीक-ठाक है.
पुण्य-पाप की
ख़तम जंग है,
पूरी चादर
एक-रंग है, पूरी चादर एक रंग है.
मेरी कविता को 'पांच लिंकों का आनंद' से लिंक करने के लिए धन्यवाद कुलदीप ठाकुर जी. मैं तो नियमित रूप से इस प्रतिष्ठित पत्रिका को देखता हूँ और अनेक रचनाओं पर अपने विचार भी व्यक्त करता हूँ. 17-1-17 के इसके अंक को भी मैं अवश्य देखूँगा.
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिगंबर नसवा जी.
जवाब देंहटाएंनैतिकता पर पड़ी खाक है,
जवाब देंहटाएंपर बाक़ी सब, ठीक-ठाक है.
सत्य वचन
सुन्दर शब्द रचना
http://savanxxx.blogspot.in
धन्यवाद सावन कुमार जी. आपकी रचनाएँ पढ़ीं. अच्छी लगीं. एक बेबाक राय भी दी है, देखिएगा.
जवाब देंहटाएंआपका बात कहने का तरीका अनूठा है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी. देश के भाग्य-विधाताओं द्वारा गाँधी जी को हाशिये पर डालने पर दुःख होता है, कुंठा होती है और क्रोध आता है तो ऐसे विचार स्वतः जन्म ले लेते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. थोड़ी और छोटी टिप्पणी देते तो हमारी और आपकी ऊर्जा कुछ कम खर्च होती.
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