रविवार, 30 जुलाई 2017

रजिस्ट्रार गुरु जी

रजिस्ट्रार गुरु जी –
रजिस्ट्रार गुरु जी से मेरा आशय उन गुरुजन से नहीं है जो कि अध्यापक और रजिस्ट्रार का दायित्व एक साथ सम्हालते हैं बल्कि उन विभूतियों से है जो कि क्लास में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति दर्ज करने के लिए अपना अटेंडेंस रजिस्टर खोलते हैं या फिर पढ़ाते समय अपने नोट्स वाले रजिस्टर से उनको इमला लिखाते रहते हैं. इस प्रकार रजिस्टर, अनेक गुरुजन के लिए जीवन-दायिनी ऑक्सीजन के समान है. मैं ऐसी विभूतियों को रजिस्ट्रार गुरु जी कहता हूँ. जो विद्वान कक्षा में अपने रजिस्टर अथवा अपनी फाइलों से नोट्स लिखाने के स्थान पर छोटे-मोटे लेक्चर भी दे लेते हैं पर हमेशा अपने सामने पॉइंट्स लिखी हुई पुर्चियाँ सामने रखते हैं, उन्हें मैं डिप्टी रजिस्ट्रार कहता हूँ. 
अपने छात्र जीवन में मुझे कई रजिस्ट्रार गुरुजन से ज्ञान (?) प्राप्त हुआ है. गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा में मैं कक्षा 6 में पढ़ता था. हमारे साइंस के मास्साब को ज़बर्दस्ती हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी दे दी गयी. मास्साब को संस्कृत का ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ भी नहीं आता था. वो बेचारे संस्कृत गद्य का पाठ भी गाकर करते थे और उसका अर्थ बिना किसी झिझक के, कुंजी से उतारे हुए नोट्स देख कर हमको लिखवाते थे. इस प्रकार बचपन में ही मुझे एक रजिस्ट्रार गुरु जी मिल गए थे. 
अब मैं कक्षा छह से सीधे अपने बी. ए. के दिनों में आता हूँ. झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज में इतिहास के हमारे विभागाध्यक्ष डॉक्टर बी. डी. गुप्ता प्रसिद्द विद्वान थे. उनके पढ़ाने के अंदाज़ का मैंने आजीवन अनुकरण किया है पर हमारी बदकिस्मती से बी. ए. फाइनल में उनकी जगह कोई गोलमटोल काली माई नहीं, बल्कि ताड़का जैसी कोई मिस तिवारी हमको यूरोप का इतिहास पढ़ाने आ गईं. मिस तिवारी बहन मायावती की तरह हमेशा बोलते समय रजिस्टर अपने सामने रखती थीं और हमको लेक्चर देने के बजाय सिर्फ़ नोट्स लिखाती रहती थीं. सबसे दुखदायी बात यह थी कि उनके नोट्स '’राजहंस प्रकाशन’ की एक मेड इज़ी की हूबहू कॉपी हुआ करते थे. हम लोग रोते हुए डॉक्टर गुप्ता के पास गए पर उन्होंने हमको डांट कर भगा दिया और साथ में हमको ये चेतावनी भी दे डाली कि अगर हमने मैडम के क्लास में कोई हंगामा किया तो वो हमारे खिलाफ़ एक्शन भी लेंगे. हम बेचारे खून का घूँट पीकर मिस गोलमटोल तिवारी द्वारा बोली गयी इमला को लिखने को मजबूर हो गए. 
कुछ समय पहले मैंने आलम और उनकी रंगरेजन प्रेमिका द्वारा रचित प्रश्नोत्तरनुमा यह दोहा पढ़ा था –
‘कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन,
कटि को कंचन काटि के, कुचन मध्य, धर दीन.’
ताड़का रूपी मिस तिवारी के ज़बर्दस्ती नोट्स लिखाने के अत्याचार के फलस्वरुप मेरे अन्दर का सोया हुआ कवि जाग उठा और मैंने आलम-रंगरेजन के दोहे की तर्ज़ पर एक दोहा लिख मारा –
‘लौह घड़ा सी बाम्हनी, काहे को मति हीन,
मेड इज़ी से नोट्स दे, चैन ले गयी छीन.’
इस दोहे की भनक पता नहीं कैसे हमारे डॉक्टर बी. डी. गुप्ता तक पहुँच गयी. उन्होंने मिस तिवारी की उपस्थिति में अपने कक्ष में मुझे बुलाकर मुझसे मेरा दोहा सुना, फिर मुझे कस कर डांटा पर पता नहीं क्यों उनकी खुद की हंसी फूट पड़ी. ‘खी, खी, खी’ करते हुए उन्होंने मुझसे भाग जाने को कहा तो फिर मैं वहां से मिल्खा सिंह की स्पीड से अपनी जान बचाकर भाग आया.
लखनऊ विश्ववियालय में मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में एम. ए. करते समय भी एक रजिस्ट्रार गुरु जी ने हमको बहुत दुखी किया था. हम लोगों ने आन्दोलन कर के उनके नोट्स लिखवाने की आदत पर अंकुश लगवा दिया था. यह बात दूसरी है कि हमारे ये गुरु जी बिना नोट्स देखे जब बोलते थे तो न तो वो बहादुर शाह प्रथम और बहादुर शाह द्वितीय में कोई फ़र्क करते थे और न ही बाजी राव प्रथम और बाजी राव द्वितीय में. एक बार तो उन्होंने अकबर और रानी दुर्गावती के बीच हुई लड़ाई को अकबर और अहल्या बाई के बीच लड़ाई में बदल दिया था.
लखनऊ विश्वविद्यालय और कुमाऊँ विश्वविद्यालय में कुल 36 साल पढ़ाते समय मैंने खुद कभी रजिस्टर या नोट्स का सहारा नहीं लिया. इस बात में कोई ख़ास कमाल नहीं है. इतिहास जैसे विषय को समझकर पढ़ना-पढ़ाना चाहिए न कि उसे रट कर. और अगर आप उसको समझने का प्रयास करते हैं तो पढ़ाते समय नोट्स वाला रजिस्टर आपके लिए सिर्फ एक अनावश्यक बोझ है और कुछ नहीं. 
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में जब मेरी नियुक्ति हुई तो मैंने अपने साथियों से उनकी रजिस्ट्रार-प्रवृत्ति का परित्याग करने का अनुरोध किया. चंद सहकर्मियों ने तो मेरे प्रस्ताव का स्वागत करते हुए उस पर अमल करना भी शुरू कर दिया पर प्रतिष्ठित रजिस्ट्रार महोदयों ने मेरे खिलाफ़ जिहाद छेड़ दिया. 
मेरे एक सहयोगी थे, अगर वो भूल से अपना पढ़ने वाला चश्मा घर ही छोड़ आते थे तो उनके अनुरोध पर या तो मुझे उनकी जगह क्लास लेना पड़ता था या फिर वो विद्यार्थियों के बीच उस दिन फ़िल्मी अन्त्याक्षरी करवा देते थे. उनके रजिस्टर प्रेम की एक कथा बड़ी प्रसिद्द है. एक दिन वो अपने रजिस्टर से हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में विद्यार्थियों को लिखवा रहे थे पर कथा उस दिन पूरी नहीं हुई. अगले दिन वो गलती से यूरोपियन हिस्ट्री वाला रजिस्टर ले आए और उन्होंने वॉटरलू के मैदान में राणा प्रताप को हरवा दिया. 
मुझे आजीवन अपने रजिस्ट्रार गुरुजन के कोप का भाजन होना पड़ा है पर मैं अपनी मोटी चमड़ी का क्या करूं? लाख प्रताड़ना के बाद भी रजिस्ट्रार गुरुजन को मैं काहिल, जाहिल और गुरु के नाम पर कलंक मानने से बाज़ नहीं आया. 
मेरे अवकाश-प्राप्ति पर मेरे साथियों ने मुझे औपचारिक विदाई भी नहीं दी और न ही मेरे ऊपर कोई माला चढ़ाई. खैर फिर भी रजिस्ट्रार गुरुजन के खिलाफ़ मेरी मुहिम, मेरी जंग आज भी जारी है. यह बात और है कि अब यह जंग फेसबुक और मेरे ब्लॉग तक सीमित रह गयी है.
Show More React

4 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सुशील बाबू, हमारे-तुम्हारे दोस्त ही तो हैं जिनको यह आलेख समर्पित किया गया है.

      हटाएं
  2. कमाल का आलेख ! हँसते हँसते भी कभी कभी आँखें छ्लक उठती हैं ना, बिल्कुल वैसा ! रजिस्ट्रार गुरुजन के खिलाफ जंग जारी अवश्य रखें । सादर ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी, रिटायर हुए छह साल से ऊपर हो गए हैं पर अभी भी कलम के माध्यम से रजिस्ट्रार गुरुजन के विरुद्ध मेरा अभियान जारी है. अपने छात्र-जीवन में और 36 वर्ष से अधिक काल की मुदर्रिसी में तो मेरी यह जंग अनवरत ही चलती रहती थी. ऐसे गुरुजन सदैव मेरे लिए उपहास के और भर्त्सना के पात्र रहे हैं. आप लोग भी अपने स्तर पर ऐसे गुरुजन की बखिया उधेड़ सकते हैं. इस से आपका मनोरंजन तो होगा ही, साथ ही साथ आपके प्रयासों से माँ सरस्वती को धोखा देने वालों का बुरा हशर भी होगा.मेरा ब्लॉग देखती रहिए, शायद आपको मनोरंजक सामग्री मिल जाए.

      हटाएं