मंगलवार, 7 नवंबर 2017

मकबरो ऐ

मकबरो ऐ -
ये किस्सा मेरे जन्म से पहले का है. हमारी एक चाची ताजमहल के निकट ताजगंज की रहने वाली थीं. जब चाचाजी और चाची का रिश्ता तय हुआ तब पिताजी की पोस्टिंग आगरा में ही थी.
एक बार माँ, पिताजी, मेरे भाइयों और बहन के साथ चाची के मायके ताजगंज गए. नानी जी अर्थात चाची की माताजी ने अतिथियों का भव्य स्वागत किया. बातचीत के दौरान माँ ने उनसे पूछा -
'मौसी, आपके घर से तो ताजमहल साफ़ दिखाई देता है. आपलोग तो रोज़ाना घूमते-घूमते ताजमहल चले जाते होंगे?'
नानीजी ने जवाब दिया -
'जे ताजमहल मरो इत्तो ऊँचो ऐ कि जा पे नजर तो पड़ई जात ऐ.'
(ये कमबख्त ताजमहल इतना ऊंचा है कि इसपर नज़र तो पड़ ही जाती है.)
माँ ने नानी से पूछा - 'आप कितनी बार ताजमहल गयी हैं?'
नानी ने जवाब दिया - 'ए लली, जे तो मकबरो ऐ, बा में जाय के कौन अपबित्तर होय?'
(बिटिया, ये तो मकबरा है, उसमें जाकर कौन अपवित्र हो?)
फिर नानी ने माँ-पिताजी से पूछा -
तुम लोग का मंदिरजी होयके आय रए ओ?
(तुम लोग क्या मंदिर जी होकर आ रहे हो?)
पिताजी ने जवाब दिया -'नहीं मंदिरजी होकर नहीं, हम तो ताजमहल घूमकर आ रहे हैं.'
नानी जी ने माँ-पिताजी का लिहाज़ किए बिना दहाड़ कर अपनी बहू को आवाज़ लगाई - 'बऊ ! महरी ते कै कि मेहमानन के बर्तन आग में डाल के मांजे'
(बहू, मेहरी से कह कि मेहमानों के बर्तन आग में डाल कर मांजे)

इतना कहकर नानी जी भनभनाती हुई दुबारा स्नान करने को चली गईं.
काश कि नानी जी ने पी. एन. ओक साहब और आज के देशभक्तों के विचारों को पढ़ा होता तो फिर वो ताजमहल को मकबरा नहीं, बल्कि मंदिर मानतीं और माँ-पिताजी पर वो इतना गुस्सा भी नहीं करतीं.

6 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बुजुर्ग दम्पति, डाक्टर की राय और स्वर्ग की सुविधाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना का शामिल किया जाना मेरे लिए हमेशा एक सुखद समाचार होता है. धन्यवाद !

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  3. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.

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