तेरे मुर्दे
मेरे मुर्दे
गड़े हुए या उखड़े मुर्दे
देसी या परदेसी मुर्दे
लोकसभा में उछले मुर्दे
राज्यसभा में मचले मुर्दे
राजनीति के मोहरे मुर्दे
वोट बैंक के चेहरे मुर्दे
झूठे दावे
झूठे वादे
धोखे में
उन्तालिस मुर्दे
अपनी सदगति को ये तरसें
बेबस औ लावारिस मुर्दे
रहम करो इन पर थोड़ा सा
इन्हें बक्श दो अब थोड़ा सा
कफ़न ओढ़कर सो जाने दो.
इन्हें दुबारा मर जाने दो.
मेरे मुर्दे
गड़े हुए या उखड़े मुर्दे
देसी या परदेसी मुर्दे
लोकसभा में उछले मुर्दे
राज्यसभा में मचले मुर्दे
राजनीति के मोहरे मुर्दे
वोट बैंक के चेहरे मुर्दे
झूठे दावे
झूठे वादे
धोखे में
उन्तालिस मुर्दे
अपनी सदगति को ये तरसें
बेबस औ लावारिस मुर्दे
रहम करो इन पर थोड़ा सा
इन्हें बक्श दो अब थोड़ा सा
कफ़न ओढ़कर सो जाने दो.
इन्हें दुबारा मर जाने दो.
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जवाब देंहटाएंसच का आईना दिखाती हुई आपकी लिखी पंक्तियाँ आदरणीय...बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्वेता जी. मेरी यह कविता मेरी कुंठा, मेरे आक्रोश और मेरी पीड़ा की अभिव्यक्ति है.
हटाएंमन की पीड़ा उजागर करती करूण अभिव्यक्ति....,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीनाजी !
जवाब देंहटाएंअब नहीं सियासत हो कोई,
बस, उन्हें चैन से सोने दो.
हम भी मुर्दे ही हैं गिनती करते समय जोड़ लिया कीजिये।
जवाब देंहटाएंहम वो मुर्दे हैं जो खुद ही, कफ़न ओढ़ सो जाते हैं,
हटाएंसुबह हुई तो लाश को अपनी दफ़्तर तक ले जाते हैं.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हमेशा परफॉरमेंस देखी जाती है पोज़िशन नहीं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ! 'ब्लॉग बुलेटिन' से जुड़कर मैं सदैव गर्व का अनुभव करता हूँ. इससे जुड़कर मेरी सृजनात्मक प्रतिभा जाग उठती है.
जवाब देंहटाएंअपनी सदगति को ये तरसें
जवाब देंहटाएंबेबस औ लावारिस मुर्दे
हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है
धन्यवाद संजय भास्कर जी. मुर्दों की सियासत और मुर्दों की तिजारत करने वाले ये नेता लोग हमारा, आपका और मृतकों के परिवारजन का दर्द क्या समझेंगे?
हटाएंआदरणीय गोपेश जी -- सच लिखा आपने | जो व्यक्ति अन्याय का प्रतिकार नहीं कर सकता वह मुर्दे के समान है | और शायद ये सियासत का सबसे पतित रूप है जो उन बातों पे सियासत होती है जहाँ जीवन की सीमाएं खत्म हो जाती हैं | कवि का आक्रांत स्वर ------------
जवाब देंहटाएंरहम करो इन पर थोड़ा सा
इन्हें बक्श दो अब थोड़ा सा
कफ़न ओढ़कर सो जाने दो.
इन्हें दुबारा मर जाने दो.--
करारा मर्मान्तक व्यंग !!!!!!!!!!!सादर --
धन्यवाद रेनू जी. इस रचना में व्यंग्य से अधिक मेरे अपने मन की कुंठा और आक्रोश है. श्मशान घाट का चांडाल भी मुर्दों पर सियासत नहीं करता पर इन नेताओं का क्या किया जाय? बद से बदतर तो क्या, ये तो हमारी कल्पना में बुरे से बुरे से भी बदतर हैं.
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