मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

अरे इन कोउन राह न पाई

 कबीरदास ने आपस में लड़ने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए कहा है -
‘अरे इन दोउन राह न पाई’ 
लेकिन धर्म के नाम पर लड़ने का पागलपन हमारे देश के हर समुदाय में किसी न किसी रूप में पाया जाता है और इसलिए कबीरदास की बानी में ‘दोउन’ की जगह मैंने ‘कोउन’ कर दिया है ताकि किसी भी समुदाय को यह शिक़ायत न हो कि धर्म के नाम पर लड़ने वाले सूरमाओं में, मासूमों का खून बहाने वाले धर्मात्माओं में, किसी का घर जलाकर उसके पास बैठकर हाथ तापने वाले देवी-देवताओं में, हमारा नाम क्यों नहीं शामिल किया गया. 
ठीक 34 साल, 1 महीने और 15-16 दिन बाद, 1984 के दंगों के महानायक सज्जन कुमार को उनके कारनामों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास दिया गया है. मुझे अब इस उक्ति – ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं है.’ पर विश्वास नहीं रह गया है. इंसाफ़ में इतनी देर, अगर अंधेर नहीं है तो फिर अंधेर और क्या है? और अभी तो यह मामला सुप्रीमकोर्ट जाएगा, जहाँ फ़ैसला आने से पहले ही सज्जन कुमार संभवतः इस दुनिया से अपना टिकट कटा चुके होंगे.
भीष्म साहनी ने भारत विभाजन से पहले 1946 में रावलपिंडी में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों की पृष्ठभूमि में अपना अमर उपन्यास ‘तमस’ लिखा था. किसको पता था कि ‘तमस’ की कहानी को 1984 में सिख हत्याकांड के रूप में फिर से दोहराया जाएगा. 1984 के इस दंगे की यह खासियत है कि इसमें सिर्फ़ एक समुदाय के हज़ारों लोग मारे गए, इसलिए इसको दंगा कहना अनुचित होगा. यह तो नृशंस हत्याकांड था जो कि हमको नादिरशाह के हुक्म से दिल्ली के क़त्लेआम की याद दिलाता है. 
1984 के इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि में पंजाब में मुख्यतः खेती से जुड़े हुए सिक्खों तथा मुख्यतः व्यापार से जुड़े हिन्दुओं के बीच प्रभुत्व स्थापित करने की लड़ाई थी. नेहरु-गाँधी परिवार की सिख-विरोधी नीतियों का पुरज़ोर विरोध करने वाले अकाली दल ने हिन्दू-सिख वैमनस्य को और बढ़ा दिया था. अकाली दल के प्रभाव को कम करने के लिए कांग्रेस द्वारा भिंडरवाला का जिन्न खड़ा किया गया लेकिन यह पासा उल्टा पड़ गया. अब ‘खालिस्तान आन्दोलन’ ज़ोर पकड़ने लगा और जगह-जगह पर निरीह हिन्दू मारे जाने लगे. इस समय बहुत कम सिख ऐसे होंगे जिन्होंने ऐसे नृशंस हत्याकांडों की निंदा की होगी. अपने धार्मिक केन्द्रों को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किए जाने पर भी सिख समुदाय आम तौर पर चुप रहा. 
जून, 1984 में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ ने इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा इमरजेंसी लगाए जाने की क्रूरता को भी फीका कर दिया. और फिर 31, अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी के दो सिख अंग रक्षकों ने उनको गोलियों से भून दिया. 
फिर क्या हुआ? क्या यह किसी को बताने की ज़रुरत है? 
34 साल से ऊपर हो गए हैं इतिहास के इस बेहद शर्मनाक अध्याय को, लेकिन उस से भी शर्मनाक है इस काण्ड से जुड़े हुए हत्यारों को अदालत द्वारा सज़ा न मिलना. हमारे राजनीतिक दलों ने इस त्रासदी को अपनी-अपनी सुविधा से भुनाया है. एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगाने वाले ये राजनीतिक दल आज भी किसी न किसी रूप में सामुदायिक सद्भाव मिटाने पर तुले हुए हैं. 
हिन्दू-सिख दंगा फिर से नहीं भी होगा तो क्या हुआ? वो हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो करा ही सकते हैं. 
अब इस फ़ैसले को आधार बनाकर कांग्रेस के वोट काटने की अपील की जाएगी. लेकिन ऐसी अपील करने वाला दल ख़ुद साम्प्रदायिकता की आग भड़काता रहता है. रोना तो यह है कि सभी कुओं में भांग पड़ी है. 
हिन्दू-सिख दंगा फिर से नहीं भी होगा तो क्या हुआ? वो हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो करा ही सकते हैं. गोधरा और मुज़फ्फ़रनगर के दंगों को क्या भुलाया जा सकता है? 
अदम गोंडवी का सवाल है - 
'गलतियाँ बाबर ने कीं, जुम्मन का घर फिर क्यूँ जले?' 
आज ये सवाल सिर्फ़ अदम गोंडवी का नहीं, बल्कि इन दंगाइयों से हम सब जागरूक लोगों का है. .

धर्म-मज़हब-पंथ-रिलीजन के नाम पर सामुदायिक कटुता फैलाने वाले हर शख्स को, हर राजनीतिक नेता को, हर साधु को, हर मौलवी को, हर पादरी को, हर ग्रंथी को, हमको नकारना होगा. हमको अपना धार्मिक शोषण करने वालों को ऐसा सबक सिखाना होगा कि आगे वो हमको आपस में बांटने की, हमको गुमराह करने की, हिम्मत न करें. धर्म-मज़हब के नाम पर वोट मांगने वालों को हमको एक सिरे से खारिज करना होगा. पर सवाल उठता है कि इस खतरनाक बिल्ली के गले में कौन चूहा घंटी बांधेगा? 
यह बहादुर चूहा मैं भी हो सकता हूँ, आप भी हो सकते हैं, या कोई और भी हो सकता है. लेकिन अब वक़्त आ गया है कि हम में से बहुतों को इस बहादुर चूहे की भूमिका निभानी होगी. 
नीरज कहते हैं -
‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.’ 
लेकिन इस शुभ कार्य के लिए किसी नीरज को या किसी कबीर को बुलाने की कोई ज़रुरत नहीं है. इसके लिए हमको खुद आगे आना होगा और जिस दिन हमने इस काम को करने का बीड़ा उठा लिया तो यकीन मानिए, ये साम्प्रदायिकता का ज़हर उगलने वाले किस्म-किस्म के सांप, अपने-अपने बिलों में घुस जाएंगे और ता-क़यामत हमारे सामने आने की हिम्मत नहीं करेंगे.

16 टिप्‍पणियां:

  1. सर आपको इस सुंदर और व्यापक विचारशील लेख के लिए धन्यवाद। काश कि आप जैसे निष्पक्ष और संवेदनशील लोग सत्ता पर होते तो तस्वीर.कुछ और होती।
    कुछ पंक्तियाँ आपकी रचना पर मेरी क़लम से
    लफ़्जों की लकीर खींच
    न नफरतों के कहर ढाओ
    मार कर विष टहनियों को
    सौहार्द्र का एक घर बनाओ

    मज़हब़ी पिंज़रों से उड़कर
    मानवता का गीत गाओ
    दिल से दिल को जोड़कर
    राष्ट्रधर्म का संकल्प उठाओ


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    1. श्वेता जी, इस से ख़ूबसूरत और इस से संवेदनशील प्रतिक्रिया और क्या हो सकती है? पर धर्म-मज़हब की चादर में अपनी असलियत छुपाए हुए इन दरिंदों की असलियत बताने के लिए हम सब जागरूक लोगों को आगे आना होगा. और आपके सन्देश को समझ कर कोई ठोस क़दम उठाना होगा.

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    2. वाह !प्रिय श्वेता -- तुम्हारी लेखनी का जवाब नहीं ! शुभकामना |

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  2. बहुत ही अच्छा लेख आदरणीय,बहुत अच्छा लगा आप का लेख पढ़ कर ,क़लम में कल्पना से ज्यादा सचाई..... बहुत ख़ूब 👌
    भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं है.’
    पर विश्वास नहीं रह गया है. इंसाफ़ में इतनी देर...
    एक दम सटीक
    श्वेता जी की बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ एकता का पाठ पढ़ाती हुई
    सादर

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    1. धन्यवाद अनिता जी. हम सब लोगों की दिली ख्वाहिश है कि धर्म की रक्षा के नाम पर, समुदाय के हितों के नाम पर ही क्या, देश के गौरव के नाम पर भी किसी का खून न बहाया जाए. इंसानियत का सबक़ सीखने के लिए महात्मा होना नहीं, बल्कि महज़ इंसान बनना ज़रूरी है. और जिस दिन हम अपने स्वार्थ के लिए भाई को भाई से, पड़ौसी को पड़ौसी से लड़ाने वाले की हम असलियत जान जाएंगे, उस दिन हम किसी के बहकावे में आकर किसी का खून नहीं बहायेंगे.

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    2. गया जरूर..
      याददाश्त को टटोला..
      फिर से पढ़ा..तो
      बचपन का सिक्खों का नर संहार याद आया
      सादर..

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    3. अग्रवाल साहब, उस शर्मनाक हादसे को भूल पाना बहुत मुश्किल है, उसके लिए खुद पत्थर-दिल होना पड़ता है.

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  3. आपका आलेख तो चला गया ऊपर से.
    पर हमारी छुटकी परी की आठ पंक्तियाँ
    उतर गई अन्तर्मन में...
    सादर..

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    1. दिग्विजय अग्रवाल जी, श्वेता जी की रचनाएँ तो दिल में उतर ही जाती हैं. पर मेरे आलेख में ऐसा क्या था जो ऊपर से चला गया?

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    2. गया जरूर..
      याददाश्त को टटोला..
      फिर से पढ़ा..तो
      बचपन का सिक्खों का नर संहार याद आया
      सादर..

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  4. लिखते रहें। लिखना बहुत जरूरी है।

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    1. सुशील बाबू, तुम ऐसे ही पढ़ते रहो तो हम ऐसे ही लिखते रहेंगे.

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  5. आदरणीय गोपेश जी -- देश की गंगा -जमनी तहजीब में जहर घोलने वाली राजनीति के सभी अपराध अक्षम्य हैं | दुखद है कि हमारे जैसे आम लोगों को इस साम्प्रदायिक सोच से कोई सरोकार ना था और ना ही अब है पर राजनीति ने जो कसर छोडी उसके बाद रही सही कसर सोशल मीडिया के भ्रामक संदेश पूरी कर देते हैं | कैसे राजनीती अपने पैर मजबूत करने के लिए जाति- धर्म का दांव खेलती है और उसका खामियाजा आम लोग भुगतते हैं ये जानना बहुत जरूरी है | मुझे याद है 1984 में -- जब मैं स्कूल मेंथी -- सिख दंगों की शुरुआत पर हमारे गाँव और उसके आसपास कितना भयावहता का माहौल था | मेरा गाँव पंजाब के बॉर्डर पर हरियाणा का आखिरी गाँव है जिसके कुछ दूरी पर निहंगों का गाँव है | मुझे ज्यादा याद नहीं पर थोड़ा सा ध्यान आता है कि हमें कोई निहंग दिख जाता था तो डर के मारे रास्ता बदल लेते थे | हालाँकि उस गाँव से उससे पहले और बाद में कोई अप्रिय बात नहीं सुनी गयी | हमेशा से निहंग समुदाय के सज्जन लोग हमारे गाँव में खरीदारी करने आते रहे है | मेरे गाँव में बहुत अधिक संख्या मे केशधारी सिख रहते हैं | उनकी दो -तीन लडकियाँ हमारे साथ पढती थी| उनके जरिये हमें पता चलता था कि कैसे उनके घरवालों ने डर के मारे अपनी जान के लिए अपने केशों की बलि दे दी , पर आम लोगों में मुझे नहीं याद आता कि गाँव में आपस में कोई ऐसी वैमनस्य की भावना रही हो | आप के लेख से बहुत बातें स्मरण हो आई | हमारे देश में न्यायपालिका को गलत कहने की परम्परा नहीं है पर न्यायपालिका को भी तो इन्सान ही संचालित करते हैं | न्याय में देरी न्याय ना मिलने के बराबर है |इस बीच भुगतभोगियों पर जो गुजरती होगी ये वही जानते होंगे या ईश्वर | आजादी के इतने सालों बाद भी देश की कौन सी समस्या है जो पुर्णतः सुलझी है | चारों तरफ सीमा विवाद है असम , कश्मीर या केरल सबकी अपनी समस्याएं हैं फिर भी राजनैतिक दल आपस में ही लड़ते रहते है |सचमुच ये सवाल कितना महत्वपूर्ण है |

    'गलतियाँ बाबर ने कीं, जुम्मन का घर फिर क्यूँ जले?'

    इतिहास की गलतियों के लिए आज बदला लेना अनैतिक और जघन्य अपराध है | पाखंडी धर्म गुरुओं से बचकर रहने का आह्वान बहुत सार्थक है | सारगर्भित, सराहनीय और ज्वलंत विषयात्मक लेख के लिए आपको हार्दिक शुभकामनायें | सादर --

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    1. इतनी विशद और विश्लेषणात्मक टिप्पणी के लिए धन्यवाद रेनू जी. किस तरह से दो समुदायों के मध्य आर्थिक और राजनीतिक स्पर्धा , शहरी समाज और ग्रामीण समाज के मध्य असामंजस्य, सांप्रदायिक तनाव का कुत्सित रूप ले लेता है, यह हमने 1984 के हत्याकांड में देखा था. हर कोई इस चिंगारी को अपने-अपने तरीक़े से हवा दे रहा था. आज भी पारस्परिक अविश्वास इन मौक़ापरस्त नेताओं को और धर्म-मज़हब-पंथ के ठेकेदारों को लोगों को आपस में - 'लड़ मूए' की स्थिति में डाल रहा है.
      हमको इन मक्कारों के भड़कावे में नहीं आना चाहिए लेकिन हमारे अन्दर भी कहीं न कहीं कोई वहशी जानवर सोया रहता है जो इनके उकसाने पर जग उठता है.
      हमको खुद को मज़बूत करना होगा और इन पापियों को इनकी औक़ात दिखानी होगी नहीं तो और कितने पाकिस्तान बन जाएंगे.

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  6. आदरणीय गोपेश सर, उस दिन इस लेख की शुुरूआत की कुछ पंक्तियाँ ही पढ़ीं थीं और समझ में आ गया था कि यह एक गंभीर लेख है। ऐसे लेखों को पढ़ने के लिए मुझे बहुत एकाग्रता और शांत दिमाग की जरूरत पड़ती है।
    1984 के दंगों के समय मैं शायद सातवीं या आठवीं में पढ़ती थी फिर भी इतना तो याद है कि मेरी सहेली परमजीत कौर कुछ दिन स्कूल नहीं आई थी और बताया था कि उसकी दादी और चाचा, चाची की मृत्यु हो गई है। कैसे,ये नहीं बताया। घर में दबी दबी आवाजों में बातें होती थीं। बाद में मुंबई में दंगे, गोधरा कांड, ये सब मन पर गहरे घाव छोड़ गए। हर फसाद में मरता तो इंसान ही ना!!! बहुत ही हिम्मत का कार्य है बिल्ली के गले में घंटी बाँधना.... नजरिया बदलना होगा, सोच बदलनी होगी। आपने जो संदेश दिया है वह भी धर्म के ठेकेदारों से दुश्मनी मोल लेने के लिए काफी है आज के दौर में। मेरा नमन आपको और आपकी लेखनी को।

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  7. मेरा आलेख इतनी बारीक़ी से पढने के लिए धन्यवाद मीना जी.
    अल्मोड़ा जैसे शांत शहर में मैंने 2 नवम्बर, 1984 को सरदारों के घर और दुकानें जलती हुई देखीं हैं. एक अफ़वाह उड़ी कि पंजाब के एक पब्लिक स्कूल के हॉस्टल में रहने वाले हिन्दू बच्चों की लाशों से भरी एक बस हल्द्वानी आई है. खबर गलत निकली लेकिन उस पर लिया जाने वाला प्रतिशोध सच्चा था.
    मुझे लगता है कि चूहा-खोर बिल्ली के गले में जल्द ही हम जैसा कोई चूहा घंटी बाँध देगा. बिल्ली के चेहरे पर हवाइयां उड़ते तो अब सभी देख रहे हैं.
    इन मुस्टंडे साधुओं को देश-संचालन का अवसर देकर सरकार बहुत गलत कर रही है.छली-कपटी मुल्ले भी जनता को बेवकूफ़ बनाकर मलाई खा रहे हैं.
    अब इन धूर्तों के दिन लड़ने वाले हैं पर मेरी चिंता यह है कि इनकी जगह जो नया आका आएगा, वह भी चोर या गिरहकट तो होगा ही.

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