शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

एक पवित्र और एक अपवित्र कथा

आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की वाल से उधार ली गयी महात्मा बुद्ध और उनके शिष्य ‘पूर्ण’ की एक प्रेरक कथा –
बुद्ध का शिष्य था - पूर्ण !
बहुत दिनों तक उनके पास रहा, जब शिक्षा पूरी हो गयी तो बुद्ध ने कहा –
‘शिष्य ! अब तुम मेरे प्रेम और अहिंसा के संदेश को हिंसक लोगों के बीच ले जाओ!’
पूर्ण अपने गंतव्य की ओर जाने को तत्पर हुआ तो बुद्ध ने कहा –
‘वहाँ के लोग तो बहुत उग्र हैं ! वे तुम्हें गाली देंगे तुम्हारा अपमान करेंगे !’
पूर्ण बोला – ‘ कोई बात नहीं , मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे गाली ही तो देंगे, अपमान ही तो करेंगे, पत्थर तो नहीं मारेंगे !’
बुद्ध बोले - ‘पूर्ण, वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
पूर्ण बोला - ‘कोई बात नहीं, मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे पत्त्थर ही तो मारेंगे, जान से नहीं मार डालेंगे !’
बुद्ध बोले – ‘पूर्ण, पर वे तो जान से भी मार सकते हैं !’
पूर्ण ने उत्तर दिया – ‘तब तो वे सचमुच ही दयालु हैं कि मुझे इस जीवन से मुक्त कर देंगे, जिसमें मैं भटक भी सकता हूँ !’
तब बुद्ध ने कहा – ‘वत्स ! अब तुम जाओ , तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
इस पवित्र कथा पर आधारित किन्तु मेरे द्वारा संशोधित,गुरुघंटाल और उसके महा-घाघ शिष्य की एक अपवित्र कथा –
ढपोलशंख की वाक्पटुता, मदारी का मजमा इकठ्ठा करने का हुनर, ख़ुद को दूध पिलाने वाले को डसने वाले सांप के गुण और इन्सान को समूचा निगलने के बाद भी डकार न लेने की विद्या सिखाने के बाद गुरु-घंटाल ने अपने शिष्य महा-घाघ से कहा –
‘महा-घाघ! मुझे जो-जो तिकड़म आती थीं वो मैंने तुझे सिखा दीं हैं. अब तू अंधेर-नगरी में राजनीति के रण-क्षेत्र में कूद पड़.’
शिष्य महा-घाघ अंधेर-नगरी में अपनी राजनीति का चक्कर चलाने के लिए तत्पर हुआ.
गुरु-घंटाल ने उसे सावधान किया –
‘अंधेर-नगरी के लोग बड़े खूंख्वार हैं. हर नेता का स्वागत करने के लिए उनके ऊपर जूते बरसाने को वो हमेशा तैयार रहते हैं.
महा-घाघ ने कहा – ‘कोई बात नहीं , मैं पुराने जूतों की एक दूकान खोल लूँगा. वैसे ऐसे लोगों को मैं दयालु ही मानता हूँ कि वे जूते ही तो बरसाएंगे, पत्थर तो नहीं मारेंगे !’
गुरुघंटाल बोले - ‘शिष्य ! वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
महा-घाघ बोला - ‘कोई बात नहीं, मैं हेल्मेट और छाती पर पैड वगैरा लगा कर जाऊंगा. वे पत्थर ही तो मारेंगे, जान से तो नहीं मार डालेंगे !’
गुरुघंटाल बोले – ‘शिष्य ! वे तो तुझे जान से भी मार सकते हैं !’
महा-घाघ ने उत्तर दिया – ‘उनसे निपटने के लिए मेरे साथ क्या किराए के गुंडे नहीं होंगे?’ वैसे भी मेरी ए. के. छप्पन के सामने वो कितनी देर टिक पाएंगे?
तब गुरुघंटाल ने कहा – ‘वत्स ! अब तू जा, तेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
महा-घाघ ने अपने हाथ जोड़ कर गुरुघंटाल से कहा – ‘गुरु जी ! आपकी चरण-धूलि तो ले लूं और यह भी सुनिश्चित कर लूं कि यह महा-घाघ विद्या आप किसी और को न दे पाएं !’
इतना कहकर महा-घाघ ने गुरुघंटाल को उनके पैर से उठाकर, उन्हें पटक दिया और फिर उनका गला दबा, उनको अपना अंतिम प्रणाम कर, वह अंधेर-नगरी जीतने के लिए चल पड़ा.

11 टिप्‍पणियां:

  1. थोड़ा आ इसमें नमक ज्यादा हो गया :) कम करके लिखा जाये तो :‌-

    और गुरुघंटाल कुलपति बना दिया गया। महाघाघ पंक्ति में लगे अगले गुरुघंटाल के लिये झंडा उठा कर काम पर लग लिया।

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    1. सुशील बाबू, हमारी अनीति-कथा में अगर महा-घाघ अपने गुरुघंटाल की पीठ में छुरा नहीं भोंकेगा तो उसका मज़ा किरकिरा हो जाएगा. तुम गुरुघंटाल को कुलपति बना दो किन्तु उनके पतन में महा-घाघ की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होनी चाहिए.

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  2. आदरणीय सर, प्रगतिशील विचारों की इस यात्रा में हम आपके सहयात्री हैं। आपके संशोधनों का इंतजार रहता है। पेटेंट करा लें, चोरी का डर है।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी. हमको भी आपकी रचनाओं का इंतज़ार रहता है. मेरी रचना की अगर चोरी हो तो मुझको रायल्टी और नाम भले न मिले पर यह संतोष तो मिलेगा ही कि किसी को मेरी रचना चोरी करने लायक़ लगी.

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  3. 'माता के नवरात्र' (चर्चा अंक - 3298) में मेरे पोस्ट ओ सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता जी.
    नव-संवत्सर की आप सबको हार्दिक बधाई !

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  4. आपको शत् शत नमन है। बिल्कुल सही व्यंग और सही जगह। उत्कृष्ठ ।

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    1. धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी. आज के गुरु-शिष्य - 'नेकी कर कूएँ में डाल' की उक्ति को नए सांचे में ढाल रहे हैं - 'जो तुम्हारे साथ नेकी करे, उसे कूएँ में डाल दो.'

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  5. आदरणीय गोपेश जी -- यूँ तो समय समय की बात है पर बहुत डरावनी है ये हकीकत

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    1. रेणु जी,
      गुरुदक्षिणा में गुरु का गला दबा देना या उसे मार्ग-दर्शक बनाकर राजनीतिक महत्ता के डस्टबिन में डाल देना, एक ही बात है.

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