शनिवार, 20 अप्रैल 2019

राजनीतिक विकृति

जोश मलिहाबादी का एक शेर है -
सब्र की ताक़त जो कुछ दिल में है, खो देता हूँ मैं,
जब कोई हमदर्द मिलता है तो, रो देता हूँ मैं.
भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में मैंने इस शेर का पुनर्निर्माण कुछ इस तरह किया है -
सब्र की ताक़त जो कुछ दिल में है, खो देता हूँ मैं,
वो इसे जनतंत्र कहते हैं तो, रो देता हूँ मैं.
लेकिन बात मज़ाक़ की नहीं है. आज सवाल यह है कि हमारे देश की राजनीति - गटर-पॉलिटिक्स क्यों बन गयी है. आज राजनीतिक प्रदूषण हमारे औद्योगिक प्रदूषण से भी अधिक विषाक्त क्यों हो गया है? आज हम किसी भी राजनीतिज्ञ की बात पर भरोसा क्यों नहीं कर पाते हैं और किसी भी राजनीतिक दल के मैनिफ़ैस्टो को हम चुनावी-जुमला मानने के लिए क्यों विवश हैं?
आज समस्त विश्व के राजनीतिक पटल पर उच्च से उच्च राजनीतिक आदर्शों की अंत्येष्टि की जा रही है. मत्स्य-न्याय, 'सर्वाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट' समरथ को नहिं दोस गुसाईं' के सामने समाजवाद, साम्यवाद, लोक-तंत्र, 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' आदि के सिद्धांत फीके पड़ गए हैं.
समृद्ध पाश्चात्य देशो में भी लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा बेमानी होती जा रही है. उन देशों में कोई भूखा नहीं मरता लेकिन वहां भी गरीब हैं और दूसरे देशों के गरीबों को कम पैसे देकर दास-कार्य का दायित्व भी दिया जाता है. वहां भी अपराध माफ़िया का सियासत में दबदबा चलता है.
रूस, चीन ही क्या, सभी साम्यवादी देशों में साम्यवादी विचारधारा की धज्जियाँ उड़ चुकी हैं.
मुस्लिम देशों में मुस्लिम विश्व-बंधुत्व की अथवा समानता की भावना कब की तिरोहित हो चुकी है.
भारत भी शीघ्र ही लोकतंत्र की कब्रगाह बनने वाला है. धर्म निरपेक्षता की नीति तो पहले ही आंखरी साँसें ले चुकी है. नफ़रत की भीषण आग को सद्भाव के अंजुरी भर शीतल जल से बुझाया नहीं जा सकता.
बीजेपी तो कम से कम खुले आम दक्षिण-पंथी और अनुदारवादी दल है, तथाकथित उदारवादी, समाजवादी, बहुजन समाजवादी और प्रगतिशील दल भी अन्दर से खोखले हो चुके है.और उनका भी किसी सिद्धांत से लेना-देना नहीं है. वंशवाद सब दलों में है, बंदर-बाट सब जगह है, काला धन सब दल लेते हैं, सब दलों में प्रभावशाली अपराधियों का और विभीषणों का स्वागत होता है. राजनीति में स्त्रियों की सहभागिता मुख्य रूप से ग्लैमर बढ़ाने के लिए अथवा वंशवाद की परंपरा का निर्वाह करने के लिए होती है.
लोकतंत्र के इस विकृत वातावरण में हम आम लोग, द्रोपदी के समान बेबस होकर अपने सपनों का चीर हरण होते देखते हैं और हमारे सपनों की लाज बचाने के लिए कोई कान्हा भी कभी नहीं आता. भविष्य में राजनीति का और भी अधिक पतन होगा. हमारी आशाओं पर, हमारी आकाँक्षाओं पर, और भी कुठाराघात होगा. राजनीति का और भी अधिक अपराधीकरण होगा.
हमारी बेबसी, हमारी कुंठा और हमारे नपुंसक आक्रोश (impotent rage) के निवारण के लिए यह ज़रूरी है कि हमको इस बनावटी लोकतंत्र के स्वरुप में आमूल परिवर्तन करने के लिए एक देश-व्यापी आन्दोलन करना होगा और झूठे-मक्कारों को किसी भी मूल्य पर अपना प्रतिनिधि स्वीकार नहीं करना होगा. हमको स्पॉन्सर्ड जन-सभाओं का बहिष्कार करना होगा. हमको नेताओं का जाप करने वालों का विरोध करना होगा, उनका चालीसा लिखने वालों और उन चालीसाओं का पाठ करने वालों का उपहास उड़ाना होगा.
हम अब भी नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी. हमारे लोकतंत्र का महल तो खंडहर हो ही चुका है, फिर तो उसकी नीव भी खोखली हो जाएगी और वह हमारे देखते-देखते भरभराकर धराशायी भी हो जाएगा.
केला तबहिं न चेतिया, जब ढिंग लागी बेर,
अब चेते ते का भया, काँटा लीन्हें घेर.

12 टिप्‍पणियां:

  1. महत्वाकाँक्षाओं के राक्षसों से दबे हुऐ खुद नहीं सोच पा रहे हैं कि वो अपनी अपनी सीढ़ी बनाने के चक्कर में लोकतंत्र की कबर खोदने जा रहे हैं। सटीक ।

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    1. सुशील बाबू,
      6 साल की उम्र में 1957 के आम चुनाव से लेकर बुढ़ापे में 2019 के चुनाव तक मैंने राजनीति का निरंतर पतन होते हुए देखा है किन्तु अब इस पतन की तीव्र गति असह्य हो गयी है. लोकतंत्र का ऐसा विकृत रूप किसी भी जागरूक व्यक्ति को सहन नहीं हो सकता है.

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-04-2019)"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312) को पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    - अनीता सैनी

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    1. 'सज गईं अमराइयाँ' (चर्चा अंक- 3312) के 21-4-19 के अंक में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता जी.

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  3. गोपेश जी, आज हमारे लोकतंत्र की हालत बहुत ही दयनीय हैं। सटीक विश्लेषण।

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    1. ज्योति जी, अब समय आ गया है कि अपनी बेबसी पर रोने के स्थान पर हम आम लोग अपने प्रयासों से राजनीतिक प्रदूषण का जड़-मूल से उन्मूलन करें.

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  4. सटीक विश्लेषण ... पर आज समाज इतना ज्यादा बंटा हुआ है धर्म जाती के नाम पर की किसी एक बात पर सहमत होना न-मुमकिन सा है ... गर्मी बढ़ रही है समाज में दुनिया में ... विनाश की प्रक्रिया ही निरंतर रहने वाली है ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर नासवा जी. समाज को धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर नफ़रत फैलाने वालों में नेता, धर्म-मज़हब के ठेकेदार और मीडिया, सभी दोषी हैं और मूर्ख जनता इनकी शिकार है.

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  5. सही में, कांटों से चुभी इस लोकतांत्रिक काया के अंग अंग से रक्त को रिसाव होने लगा है। दुखद हक़ीक़त पर नजर फेरती एक जरूरी रचना।

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    1. धन्यवाद विश्वमोहन जी.
      हम, आप और न जाने कितने जागरूक लोग दिवा-स्वप्न दिखाने वाले इन नेताओं की हक़ीक़त जग-ज़ाहिर करते रहते हैं लेकिन जनता पर इसका कोई असर ही नहीं होता. फिर भी कोशिश जारी रहनी चाहिए.

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  6. आपने सटीक लिखा आदरणीय गोपेश जी | पर इतनी जागरूकता एक आम इंसान में नहीं |

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    1. रेणु जी,
      वो सुबह कभी तो आएगी.
      और उस सुबह को लाने की ज़िम्मेदारी जागरूक वर्ग की है.

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