शुक्रवार, 10 मई 2019

पयाम-ए-आज़ादी

‘पयाम-ए-आज़ादी’ -
1857 के विद्रोह में शायद अंतिम बार धार्मिक और क्षेत्रीय संकीर्णता से परे, हमारे देश में, देशभक्ति की निर्मल धारा बही थी. इस विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करने में दिल्ली के लीथो प्रेस से फ़रवरी, 1857 से मुग़ल शाही घराने के मिर्ज़ा बीदर बख्त द्वारा उर्दू-हिंदी, दोनों ही भाषाओँ में प्रकाशित पत्र - ‘पयामे आज़ादी’ ने महत्वपूर्ण निभाई थी. सितम्बर, 1857 से इस पत्र का मराठी संस्करण झांसी से भी प्रकाशित किया जाने लगा था. इस पत्र में ही अज़ीमुल्ला खान रचित बाग़ी सैनिकों का यह क़ौमी गीत प्रकाशित हुआ था-
‘हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,
पाक (पवित्र) वतन है क़ौम का, जन्नत से भी प्यारा.
ये है हमारी मिल्कियत (सम्पत्ति), हिन्दुस्तान हमारा,
इसकी रूहानी से (आत्मिक प्रकाश) , रौशन है जग सारा.
कितना क़दीम (पुरातन) कितना नईम (दिव्योपहार) , सब दुनिया से न्यारा,
करती है ज़रखेज़ (सिंचित) जिसे, गंग-जमन की धारा.
ऊपर बर्फ़ीला पर्वत, पहरेदार हमारा,
नीचे साहिल (किनारा) पर बजता, सागर का नक्कारा.
इसकी खानें उगल रहीं, सोना, हीरा, पारा,
इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा.
आया फिरंगी दूर से, ऐसा मन्तर मारा,
लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा.
आज शहीदों ने है तुमको, अहले-वतन (देशवासी) ललकारा,
तोड़ो गुलामी की ज़न्जीरें, बरसाओ अंगारा.
हिन्दु-मुसल्मां, सिक्ख हमारा, भाई प्यारा-प्यारा,
यह है आज़ादी का झण्डा, इसे सलाम हमारा.’
यह गीत बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के 'वंदेमातरम्' देश-गान से लगभग दो दशक पहले लिखा गया था. राष्ट्र-प्रेम, जातीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देने के साथ-साथ इसमें स्वदेशी व स्वराज्य की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. इसे ब्रिटिशकालीन भारत का पहला क़ौमी तराना कहा जा सकता है. ऐसा कहा जाता है कि 1857 के विद्रोह के बाद जिन-जिन घरों में 'पयाम-ए-आज़ादी' की प्रतियां मिलीं थीं, उन घरों के सभी मर्दों को सार्वजनिक फांसी दे दी गई थी.

11 टिप्‍पणियां:

  1. फाँसी अब भी दी जा रही हैं। बस तरीके बदल गये हैं। मारे नहीं जा रहे हैं बस सोच के गले घोटे जा रहे हैं।

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    1. सुशील बाबू,
      एक और 'पयाम-ए-आज़ादी' निकालने की ज़रुरत है. दुष्यंत कुमार की -
      'मेरी कोशिश है कि ये, सूरत बदलनी चाहिए'
      की इच्छा-पूर्ति का अब सही समय आ चुका है.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/05/2019 की बुलेटिन, " प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १६२ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. 'ब्लॉग बुलेटिन' की 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की १६२ वीं वर्षगाँठ - 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरा आलेख सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी.

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  3. सुशील जी ने बहुत सही कहा ,देश भक्ति से ओत प्रोत रचना है आपकी ,सुन्दर वर्णन ,जय हिंद

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    1. ज्योति जी, यह कौमी तराना तो अज़ीमुल्ला खान की रचना है जिन्होंने कि देश-विदेश में अंग्रेज़ों के विरुद्ध क्रान्ति की मशाल जलाई थी. मैंने तो बस, इस रचना को किंचित व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया है.

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  4. ये सूरात काश बदल सके ... संघर्ष को की देखना नहीं चाहता अब ...
    हर कोई अपने संघर्षों के बदले कुछ चाहता है आज ... टुकड़े हो रहे हैं देश के और पता नहीं कहाँ जाने वाला है ...

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    1. दिगंबर नासवा जी, सूरत बदलने की तमन्ना तो दुष्यंत कुमार ने भी की थी और सूरत बदली भी लेकिन ऐसी कि ख़ूबसूरती गायब ही हो गयी.
      देश के जितने टुकड़े होंगे, उतने अलग-अलग शहंशाह बनेंगे. 1947 में हमारे माँ-बाप ने हम यह देखा था और क्या मालूम हमको या हमारे आने वाली पीढ़ियों को यह फिर से न देखना पड़ जाए.

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  5. वाह! मेरे लिए बिलकुल नयी जानकारी के साथ एक नया (हकीक़त में सबसे पुराना) कौमी तराना. वाकई ऐसे कदीम और नईम तराने हमारी उस साझी विरासत की मिलकियत हैं जब वोट बैंक की राजनीति नहीं थी. बधाई और आभार!!!!

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    1. विश्वमोहन जी, 1857 के विद्रोह में सबसे ज़्यादा मुसलमान शहीद हुए थे. इस बात को आज के स्व-घोषित देशभक्त कहाँ हज़म कर पाएंगे? वहाबियों ने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया था. आज का बदनाम देवबंद, राष्ट्रीय आन्दोलन का एक प्रमुख केंद्र था. हमको तो अब नया इतिहास पढ़ाया जा रहा है जिसमें कि भारत केवल हिन्दुओं का था, केवल हिन्दुओं का है और केवल हिन्दुओं का ही रहेगा.

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    2. गोपेश मोहन जैसवाल जी वर्तमान दौर को देखते हुए आपकी सोच को सलाम ओर मुझे खुशी हुई कि समाज मे आप जैसे जिंदादिल लोग अभी भी है🙏🙏

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