गुरुवार, 6 जून 2019

सांस लेते हुए मुर्दे

उसूलों पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िंदा हो, तो फिर ज़िंदा नज़र आना, ज़रूरी है.
वसीम बरेलवी
मुर्दा-दिल क्या खाक़ जिया करते हैं -
जो हिम्मत कर के लब खोले, तो जाना, मैं भी ज़िन्दा हूँ,
मैं वरना, सांस लेते, एक मुर्दे के, सिवा क्या था.
एक गुस्ताख़ी और -
दाल-रोटी, चंद कपड़े और सर पर एक छत,
ग़र यही, जीने का मक़सद, फिर तो मैं, मुर्दा भला !  

11 टिप्‍पणियां:

  1. सबूत-ए-जिन्दगी कहाँ जरूरी है मुर्दों के लिये
    मुर्दों के लिये मुर्दा हो लेना हजूर क्या कम नहीं?

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    1. सुशील बाबू, किसी के मुर्दा रहने पर हमें कहाँ ऐतराज़ है पर मुश्किल तो तब आती है जब मुर्दे खुद कुर्सी पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं और फिर मुर्दों की तादाद बढ़ाकर उन्हें बेचने का धंधा शुरू कर देते हैं.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. 'चर्चा अंक-3360' में मेरी रचना को सम्मिलित करने लिए धन्यवाद शास्त्री जी.

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  3. लिबास पहन मानव का,
    ढो रहा साँसों को,खो रहा पहचान
    उसूलों में मिली पहचान -ए -जिंदगी
    पल -पल तोड़ रही दम, हर पल तलाश रही पहचान |




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    1. अनीता जी, सांस लेते मुर्दों की पहचान भी होती है लेकिन यह पहचान उनके बैंक-बैलेंस से होती है.

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  4. बढ़िया, गोपेश सर की खास स्टाइल में....

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    1. धन्यवाद मीना जी. मेरा जैसा आम आदमी जब भी सर उठाने की हिम्मत करता है तो बात ख़ास हो जाती है.

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  5. बहुत खूब ...
    दिल को छेद जाता है शेर .. जिन्दा हो तो सबूत जरूरी है ...

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  6. दिगंबर नासवा जी, पहाड़ से टकराकर मरने पर संतोष मिलता है. केंचुए की लिजलिजी ज़िंदगी जीना तो मरने से भी बदतर है.

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