बुधवार, 26 जून 2019

इमरजेंसी


लखनऊ यूनिवर्सिटी से जब मैं मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास में एम. ए. (1971-73) कर रहा था और तब जब कि मैं वहां शोध छात्र था, लखनऊ विश्वविद्यालय और उसके तथाकथित नंबर एक बॉयज़ हॉस्टल, हमारे लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल का बहुत बुरा हाल था. हर जगह गुंडा-राज था. 
हमारे लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल में हॉस्टल रेज़िडेंट्स के साथ तमाम गुंडे और दादा किस्म के लड़के गैर-क़ानूनी ढंग से रहते थे. अपनी हेकड़ी से ये लोग हॉस्टल मेस में खाना भी मुफ़्त में खाया करते थे और इनका बोझ हम नियमित रूप से पैसा देकर खाना खाने वाले उठाया करते थे. इनकी आतंकी गतिविधियों की वजह से आए दिन मेस बंद होते रहते थे और हम बेचारे लड़कों को बाहर बाज़ार के किसी ढाबे में जाकर अपना काफ़ी वक़्त जाया कर के और अपनी जेब कुछ अतिरिक्त ढीली कर के अपनी भूख मिटानी पड़ती थी.
रोज़ रात को इनकी महफ़िलें सजती थीं जिसमें कि जुआ खेलने और शराब पीने और फिर पी कर गालियाँ देने को सबसे शालीन कृत्यों में गिना जाता था. हॉस्टल के सीधे-सादे लड़कों से महीना-वसूली और अगर ज़रुरत पड़े तो हफ़्ता-वसूली का कोई भी मौक़ा ये लोग कभी छोड़ते नहीं थे. मुझ से पैसे उगाहने की तो इनकी कभी हिम्मत नहीं होती थी लेकिन जब से मुझे यू. जी. सी. फ़ेलोशिप मिलने लगी थी तो ये राक्षस मुझ से भी चाय समौसे के बहाने एकाद रुपया प्राप्त कर ही लेते थे. इनको पता था कि मैं शराब या क़बाब के लिए तो इन्हें पैसा देने से रहा.
सरदार और मौलाना (इन के नामों का मैं उल्लेख नहीं करूंगा) हमारे हॉस्टल रूपी तालाब के सबसे भयानक मगरमच्छ थे. हॉस्टल के कम-उम्र शक्ल-सूरत के अच्छे लड़कों पर इनकी हमेशा बुरी नज़र रहती थी. आए दिन कोई न कोई लड़का इनका शिकार हुआ करता था और सबसे दुखद बात यह थी कि हमारे हॉस्टल के बहुत कम लड़कों की सहानुभूति इन शिकार हुए लड़कों के साथ हुआ करती थी. हॉस्टल के एकाद लड़कों को तो इन राक्षसों की बेजा हरक़तों की वजह से हमारा हॉस्टल छोड़कर अपने रहने की कोई और व्यवस्था तक करनी पड़ी थी.
सरदार और मौलाना को देखते ही मेरे तन-बदन में आग लग जाती थी लेकिन मन मसोस कर मुझे उनके अभिवादन का जवाब भी देना पड़ता था और उनका कोई न कोई बेहूदा किस्सा भी सुनना पड़ता था.
मैं हमेशा दुआ करता था कि इन पापियों के नीचे की धरती फटे और इन्हें अपने में समा ले या फिर आसमान की बिजली इनके ऊपर गिरकर इन्हें राख में तब्दील कर दे पर मेरी न्यायोचित दुआओं का ऊपर वाले पर कोई असर नहीं हो रहा था. हमारे हॉस्टल में इन की सल्तनत बदस्तूर क़ायम रही.
जनवरी, 1975 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में नियुक्त हुआ. अपने हॉस्टल का मैं पहला लड़का था जो कि अपने ही विश्विद्यालय में लेक्चरर बना था. मित्रों ने मुझ से दावतें मांगीं तो मुझे कई बार खुशी-खुशी अपनी जेब ढीली करनी पड़ी.
एक रात सरदार और मौलाना मिठाई का डिब्बा लेकर मेरे कमरे में आए. दोनों ही शराब के नशे में झूम रहे थे. मैंने उन्हें इस हालत में देख कर उन्हें अपने कमरे से धक्का देकर निकालने की कोशिश की तो सरदार बोला
गोपू दादा ! हम दोनों तो तुम्हारे लेक्चरर होने पर सारे हॉस्टल में मिठाई बांटते फिर रहे हैं और तुम हो कि हमको धक्का मारकर अपने कमरे में से निकाल रहे हो?’
मैंने कहा
तुम दोनों को पता है कि मैं शराब से और शराबियों से कितनी नफ़रत करता हूँ. फिर तुम लोग शराब पीकर मेरे कमरे में क्यों आए? और मेरे लेक्चरर होने की खुशी में तुम लोग मिठाई क्यों बाँट रहे हो? अब असली मुद्दे पर आओ, तुम लोग मुझसे क्या चाहते हो?’
ना मांगू सोना-चांदी, ना मांगू बंगला-गाड़ीनगमे के अंदाज़ में कमबख्त मौलाना बोला
गोपू, तुम बस, हिस्ट्री डिपार्टमेंट की लड़कियों से हमारी दोस्ती करा देना.
मौलाना की इस डिमांड को सुनकर मेरे तो पाँव तले ज़मीन खिसक गयी. मैंने उन दोनों के हाथ जोड़ कर आज़िज़ी से कहा
भाई लोगों ! मेरी नौकरी लगे जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए हैं और तुम उसे खाने के लिए अभी से आ गए?’
भाई लोग मुस्कुराकर समवेत स्वर बोले
डिपार्टमेंट में तो हम तुम्हारे ज़रूर आएँगे और तुमको हमारा ये काम भी ज़रूर करना पड़ेगा.
मैंने उन दुष्टों को लाख समझाया बार-बार मिन्नतें कीं पर वो अपनी इस नापाक डिमांड से टस से मस नहीं हुए. आख़िरकार मैंने उन से जान-बक्शी की कीमत जाननी चाही. उनकी वैकल्पिक डिमांड पूरी करना मेरी जेब के बस में नहीं था. मान-मनौअल के बाद वो लोग मुझसे उस सस्ते ज़माने में 150 रूपये झटक कर और मुझे हिस्ट्री डिपार्टमेंट में कभी न आने का अभयदान देकर, दारू और मुर्गे की पार्टी करने के लिए चलते बने.
मेरी कमाई से पहली और आख़िरी बार दारू और मुर्गे की पार्टी हो रही थी. मेरे दिल में आग लगी हुई थी और चुनिन्दा से चुनिन्दा बददुआएं उनके लिए निकल रही थीं. लेकिन न तो वो पापी धरती में समाए, न उन पर बिजली गिरी और न ही उन्हें हार्ट-अटैक आया.
मुझे समाज से बड़ी शिकायत है. क्यों वह सरदार और मौलाना जैसे पापियों को पनपने देता है? फिर हमारे प्रशासक क्या सिर्फ़ सुविधा भोगने के लिए हैं? और हमारी पुलिस क्या सिर्फ़ हफ़्ता वसूलने के लिए है?
सरदार और मौलाना के ज़ुल्म और बढ़ते जा रहे थे लेकिन हमारे छात्रावास में उन्हें निकालने के लिए कोई भी कार्रवाई नहीं हो रही थी. मैंने मन ही मन तय कर लिया था कि अगर सरदार और मौलाना जैसे गुंडों को हॉस्टल से नहीं निकाला गया तो मैं अपने रहने का इंतजाम कहीं और कर लूँगा.
और फिर 25 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी.
आप पूछेंगे
सरदार-मौलाना आतंक-प्रसंग में इमरजेंसी का ज़िक्र क्यों आ गया?’
इस सवाल का जवाब हाज़िर है -
सरदार और मौलाना की हवस का शिकार होकर एक लड़का हॉस्टल छोड़कर चला गया था. उसकी पढ़ाई का एक साल भी मारा गया था. उस लड़के के पापा की इंदिरा गाँधी के दरबार में प्रविष्टि हो गयी और फिर सरदार-मौलाना आतंक के दुर्दिन शुरू हो गए. एक सुबह मारपीट और गाली-गलौज का शोर सुनकर मेरी आँख खुल गयी. मैं अपने कमरे से बाहर निकला तो देखा कि हमारे हॉस्टल में पुलिस की पलटन सरदार और मौलाना को घसीटते हुए ले जा रही है साथ में लाठी पर लाठी की मार और गाली पर गाली का उपहार. हॉस्टल का कोई भी लड़का इन दुष्टों की दुर्दशा देखकर दुखी नहीं था.
और मैं मन ही मन – ‘सच हुए सपने तेरेजैसा कोई गीत गाता हुआ इंदिरा गाँधी को इमरजेंसी लगाने के लिए धन्यवाद दे रहा था.
इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के दौरान आतंक का राज क़ायम हुआ, नए गुंडे पनपे, हमारी ज़ुबान पर लगाम लगाई गयी, हमारी कलम पर ताले लगे, हज़ारों बे-गुनाह जेल में भरे गए, लेकिन एक बढ़िया बात यह हुई कि उस दौर के शुरू होने के कुछ ही दिन बाद मेरी ज़िंदगी के दो बड़े खलनायकों का एक ही झटके में इतने शानदार तरीके से खात्मा हो गया.

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28-06-2019) को "बाँट रहे ताबीज" (चर्चा अंक- 3380) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. 'चर्चा अंक-3380' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'! ईश्वर से प्रार्थना है कि आप लोगों का स्नेह सदैव यूँ ही बना रहे.

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  3. यह भी एक मजेदार किस्सा। ऐसे खलनायक आज भी हैं। वे सरदार और मौलाना से भी ज्यादा खतरनाक हैं।

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    1. मीना जी, आज के रावण और कंस की बेजा हरक़तें देखकर ही तो मुझे इन पुराने खलनायकों की याद आई थी.

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  4. बढ़िया। कापी पेस्ट में फॉट छोटे होने से थोड़ा पढ़ने में परेशानी होती है सीधे ब्लॉग पर पेस्ट नहीं हो पाता है क्या?

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    1. इस बार बंगलौर जाकर बिटिया से सही ढंग से पोस्ट करना सीख लूँगा.

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  5. कई कार्य हुए इस इमरजेंसी के दौरान ... अच्छे बुरे ... पर ऐसे खलनायक हर समय अपने अंत तक पहुंचे तो आनंद अत है ...

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    1. दिगंबर नासवा जी,
      हमारे यहाँ खलनायक तो इतने हैं कि अगर उन सबका वध कर दिया जाय तो साल में कम से कम 100 बार दशहरा मनाना पड़ेगा.

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