नेहा की मज़ेदार ज़िन्दगी देखकर उसकी दोनों बेटियों नीतू और प्रीतू को खूब जलन हुआ करती थी. न स्कूल जाने का झंझट, न होम-वर्क का सरदर्द, न एक्ज़ाम्स में कम-ज़्यादा नम्बर्स आने की चिन्ता, न बड़ों की डांट-फटकार का डर. वाह ! क्या चैन की लाइफ़ थी. इधर बच्चियों को अपने पॉकेटमनी में ज़रा सा भी इन्क्रीमेन्ट लगवाना हो तो उन्हें घण्टों मम्मी-पापा की खुशामद करनी पड़ती थी और उधर उनकी मम्मी के खर्चों का हिसाब ही नहीं था. डॉक्टर मेहता का दावा था कि शॉपिंग के लिए तो नेहा हफ़्ते में कम से कम सात बार तो मार्केट जाती ही थी. बेचारे पतिदेव को अपनी श्रीमतीजी की शॉपिंग का हिसाब करने के लिए कैलकुलेटर की मदद लेनी पड़ती थी. नीतू और प्रीतू की तरह उनके पापा भी नेहा की आरामदायक ज़िन्दगी और अपने व्यस्त जीवन की तुलना कर के आहें भरा करते थे. जब डॉक्टर मेहता यूनीवर्सिटी जाने की तैयारी किया करते थे तो नेहा उन्हें चाय-नाश्ता देते वक़्त मज़े से एफ. एम. रेडियो पर बज रहे पुराने गानों के साथ गुनगुनाया करती थी और जब वो क्लास में अपने स्टूडेन्ट्स को साहित्य की बारीकियां सिखा रहे होते थे तो चाय पीने के बाद नेहा की दोपहर, बिस्तर पर लेटकर आराम करने में बीता करती थी. रात के खाने के बाद उसके पतिदेव जब अगले दिन का लेक्चर देने की तैयारी के लिए मोटी-मोटी किताबों में अपना सर खपाया करते थे तब वह या तो टीवी पर अपनी पसन्द का कोई सीरियल देखती थी या फ़ोन पर अपनी फ्रेंड्स के साथ गप्पें मारा करती थी.
परिवार के तीनों दुखीजन को नेहा का यह डायलौग बहुत बुरा लगता था - ‘ मुझे तो घर के कामकाज की वजह से दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती.’ प्रीतू जब छोटी थी तो वो कहा करती थी कि वो बड़ी होकर मम्मी बनेगी ताकि वो दिन भर आराम करती रहे. नीतू को भी मम्मी की साड़ियां, उनकी ज्वेलरी और कास्मेटिक्स्स के सामान देखकर बड़ी जलन होती थी. नेहा को गिफ़्ट्स भी खूब मिला करते थे. उसके पतिदेव जब मूड में होते थे तो बच्चों को मिला करती थी चाकलेट और उसे मिलती थी साड़ी. हर छोटे-बड़े गृह-युद्ध के बाद रूठी हुई नेहा को मनाने के लिए उसके पतिदेव की तरफ़ से जब शान्ति प्रस्ताव आता था तो उसके साथ उसके के लिए तोहफ़ा ज़रूर हुआ करता था.
नेहा जब घर के काम का रोना रोती थी तो उसके पतिदेव का प्रवचन शुरू हो जाता था -
‘ घर का काम होता ही कितना है? आजकल तो घर का हर काम मशीनें करती हैं. तुम तो गैस पर खाना बनाती हो, मिक्सी पर दाल-मसाले पीसती हो, ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन से कपड़े धोती हो.’
‘ घर का काम होता ही कितना है? आजकल तो घर का हर काम मशीनें करती हैं. तुम तो गैस पर खाना बनाती हो, मिक्सी पर दाल-मसाले पीसती हो, ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन से कपड़े धोती हो.’
अपने पापा की इस दलील में बच्चों को भी बहुत दम नज़र आता था. घर में बर्तन-झाड़ू करने के लिए एक आमा आती थीं. नेहा अक्सर उन्हें अपनी पुरानी साड़ियां, उनकी बेटियों के लिए बच्चियों के पुराने कपड़े दे दिया करती थी और वो खुश होकर घर के काम में उसका हाथ बटा दिया करती थीं.
बच्चे दिन-रात पढ़ाई में जुटे रहते थे पर अगर वो मौज-मस्ती के नाम पर कभी-कभार टीवी के सामने एकाद घण्टे बैठ गए या साइना नेहवाल बनने की कोशिश में कुछ ज़्यादा ही बैडमिन्टन खेल आए तो फिर उनको अपनी मम्मी का एक लम्बा लेक्चर ज़रूर सुनना पड़ता था. अक्सर बच्चे अपनी मम्मी के सामने अपने पापा का ईजाद किया हुआ ये नारा लगाते थे –
‘ बाकी सबको काम और टेंशन, मम्मी को बस, आराम और पेंशन.’
नीतू-प्रीतू सपना देखते थे कि मम्मी चली गई हैं और वो दिन चढ़ने तक आराम से अपने बिस्तर पर सो रहे हैं. कोई ज़बर्दस्ती उन्हें गरम-गरम लिहाफ़ में अपने ठन्डे-ठन्डे हाथ डाल कर जगा नहीं रहा है. खाने में बच्चों को ज़बर्दस्ती मूंग की दाल और लौकी की सब्ज़ी नहीं खिलाई जा रही है और न ही छुट्टी के दिन भी होम-वर्क के बहाने देर तक उनको टीवी देखने से रोका जा रहा है. पर सपने कभी सच भी हो जाया करते हैं. नेहा को अपने मायके में दो शादियां अटेन्ड करनी थीं. उसको कुल पन्द्रह दिन बाहर रहना था. पर नेहा को बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता थी और घर की व्यवस्था की फ़िक्र. पर उसके पतिदेव और बच्चों ने उसे भरोसा दिलाया कि कि उसकी गैर हाज़िरी में सब कुछ ठीक होगा. बच्चों ने उससे वादा किया कि वो जमकर पढ़ाई करेंगे और उसके पतिदेव ने भरोसा दिलाया कि वो घर को चकाचक रखेंगे. नेहा ने डॉक्टर मेहता की और नीतू-प्रीतू की बातों पर भरोसा कर के घर उनके जिम्मे पर छोड़ कर अपने मायके को प्रस्थान किया.
अपनी मम्मी के जाने के बाद नीतू-प्रीतू स्कूल से लौटे तो घर में बिल्कुल शान्ति थी. मम्मी की चीख-पुकार की उन्हें कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी कि उनसे डांट खाए बिना उन्हें खाना हज़म ही नहीं होता था. ख़ैर भोजन तो करना ही था. पर खाना था कहां? डायनिंग टेबिल पर उनके पापा के हाथ का एक नोट रखा था जिसमें लिखा था -
‘ प्लीज़ ! इस समय खाने की जगह बिस्किट्स, वैफ़र्स और फलों
का सेवन कीजिए. शाम को आपका डिनर आपके मन-पसन्द रैस्त्रां में होगा.’
बच्चों की तो बाछें खिल गईं. टीवी देखते हुए उन्होंने अपना अनोखा लंच लिया. शाम को बच्चे अपने पापा के साथ अपने मन-पसन्द रैस्त्रां गए. अब तक बेचारे बच्चे रोज़ाना अपनी मम्मी के हाथ का बना खाना ही निगलने के लिए मजबूर थे. पर अब उनकी चांदी होने वाली थी. डॉक्टर मेहता ने बच्चों की पसंद की चटपटी डिशेज़ का ऑर्डर किया.
का सेवन कीजिए. शाम को आपका डिनर आपके मन-पसन्द रैस्त्रां में होगा.’
बच्चों की तो बाछें खिल गईं. टीवी देखते हुए उन्होंने अपना अनोखा लंच लिया. शाम को बच्चे अपने पापा के साथ अपने मन-पसन्द रैस्त्रां गए. अब तक बेचारे बच्चे रोज़ाना अपनी मम्मी के हाथ का बना खाना ही निगलने के लिए मजबूर थे. पर अब उनकी चांदी होने वाली थी. डॉक्टर मेहता ने बच्चों की पसंद की चटपटी डिशेज़ का ऑर्डर किया.
शाही पनीर की खूबसूरत सब्ज़ी का एक चम्मच ही बच्चों के मुंह में गया था कि वो हाय, हाय करते हुए गिलास पर गिलास पानी पी गए. दाल-मखानी में भी दाल और मिर्च की क्वैन्टिटी लगभग बराबर थी और पुलाव में काली मिर्च का अम्बार लगा हुआ था. जैसे तैसे रायते के साथ कड़ी-कड़ी तन्दूरी रोटियां खाकर बच्चों ने अपना पेट भरा.
बच्चों का होम-वर्क उनके लिए कम और उनकी मम्मी के लिए ज़्यादा बड़ा सरदर्द होता था. बच्चों के स्कूल से लौटते ही उनकी मम्मी उनके सर पर सवार होकर उनसे उनका होम-वर्क कम्प्लीट करवाती थीं और उसके बाद ही उनको टीवी देखने या कोई और मस्ती करने की परमीशन देती थीं. ज़रूरत पड़ने पर वो सब्ज़ी काटते हुए या रोटी बनाते-बनाते हुए उनके होमवर्क में उनकी थोड़ी-बहुत हैल्प भी कर दिया करती थीं. डॉक्टर मेहता हमेशा नेहा को बच्चों पर सख्ती करने के लिए टोकते रहते थे. बच्चों को अपनी मम्मी की तुलना में अपने पापा की हर बात में दम नज़र आता था. पर अब उनकी मम्मी की गैर-हाज़री में उनका होम-वर्क उनके लिए बड़ा सर-दर्द बनकर सामने खड़ा हो गया था. डॉक्टर मेहता यूनीवर्सिटी से लौटकर आते तो उनके पास बच्चों की प्रौब्लम्स सॉल्व करने के लिए न तो टाइम था और न ही इस काम में उनकी कोई दिलचस्पी होती थी. बच्चों की रेडी-रिफ़रेन्स बुक, यानी उनकी मम्मी तो अपने मम्मी-पापा के यहां जाकर मज़े कर रही थीं और यहां बच्चे बेचारे रोज़ाना होम-वर्क कम्प्लीट न करने की वजह से अपने टीचर्स की डांट खा रहे थे.
नेहा के जाने के बाद 4-5 दिनों तक घर में कपड़े नहीं धुले थे. गंदे कपड़ों का एक पहाड़ तैयार हो गया था. आख़िरकार डॉक्टर मेहता ने वाशिंग मशीन से बच्चों के कपड़े धोने का प्लान बनाया. कपड़ों का ढेर वाशिंग मशीन के हवाले कर दिया गया. बस ज़रा सी गड़बड़ ये हुई कि सफ़ेद कपड़ों के साथ कुछ नए रंगीन कपड़े भी वाशिंग मशीन में डाल दिए गए. बुरा हो औरेंज और ग्रीन ड्रेसेज़ का जिन्होंने बच्चों की व्हाइट ड्रेसेज़ को तिरंगा बना दिया. शनिवार को मजबूरन बच्चों को इन तिरंगे कपड़ों को ही पहन कर जाना पड़ा. उनकी प्रिंसिपल उनको देखते ही बोल पड़ीं –
‘ क्यों भाई! अभी इण्डिपेन्डेन्स डे में तो बहुत दिन बाकी हैं तुम दोनों बहने तिरंगे फहराती हुई क्यों आ रही हो?’
बेचारी प्रीतू को एक बार और सबकी मज़ाक का शिकार होना पड़ा. एक दिन उसका स्कर्ट ज़रा सा उधड़ गया था, वो अपने पापा के पास उसे सिलवाने के लिए पहुंच गई पर उसके पापा को सिर्फ़ सूई चुभोना आता था, उससे कुछ सिलना नहीं. उन्होंने स्टैपलर लेकर प्रीतू की उधड़ी स्कर्ट को टिपटॉप बना दिया. प्रीतू स्कूल पहुंची तो सबने उसकी खूब हंसी उड़ाई.
बच्चों के बिना बताए ही पूरी कॉलोनी को और उनके स्कूल वालों को मालूम पड़ गया कि उनकी मम्मी कहीं बाहर चली गई हैं. नेहा के हर काम को हल्का-फुल्का मानने वाले डॉक्टर मेहता को भी अब दाल-आटे का भाव मालूम पड़ रहा था. प्रीतू को अपनी मम्मी से लिपट कर सोने की आदत थी. अब उसका शिकार उसके पापा बने. डॉक्टर मेहता अपनी सोती हुई बिटिया की बाहों के फन्दे से अपनी गर्दन छुड़ाते तो उसकी टांगे उनके पेट पर आ जातीं. आखिरकार पिताश्री ने बिस्तर का त्याग कर सोफ़े पर रात बिताना ठीक समझा और प्रीतू रात भर ‘ मम्मी-मम्मी ’ कहकर सुबकती रही.
अपने पापा से नीतू-प्रीतू के ताल्लुक़ात अब तक काफ़ी खराब हो गए थे. आमा के हाथ का रूखा-सूखा खाना खा-खा कर बच्चे बोर हो गए थे. बच्चों को अब अपनी मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. मम्मी की टोका-टोकी और डांट-फटकार की उनको बहुत याद आ रही थी पर अभी उनके अल्मोड़ा लौटने में पूरे सात दिन बाकी थे. पर लगता था कि उनके पापा को उनकी मम्मी की कमी बिलकुल भी महसूस नहीं हो रही थी. पिछली शाम से तो वो मस्ती भरे पुराने गाने भी गुनगुना रहे थे.
अगली शाम को बच्चियां अपना होम-वर्क कर रहे थीं कि दरवाज़े पर कॉल बेल बजी. उन्होंने देखा कि उनकी मम्मी बहुत परेशान सी खड़ी हैं. नेहा ने घबराहट भरी आवाज़ में नीतू से पूछा-
अगली शाम को बच्चियां अपना होम-वर्क कर रहे थीं कि दरवाज़े पर कॉल बेल बजी. उन्होंने देखा कि उनकी मम्मी बहुत परेशान सी खड़ी हैं. नेहा ने घबराहट भरी आवाज़ में नीतू से पूछा-
‘ अब प्रीतू का टैम्पे्रचर कितना है?’
मम्मी की आवाज़ सुनकर प्रीतू दौड़ कर उनके पास आ गई. अपने सामने भली-चंगी प्रीतू को देखकर वो खुश होने के बजाय अपनी नज़रें चुराते हुए अपने पतिदेव से भिड़ गईं. उसने उनसे पूछा –
‘ क्योंजी आपने मुझे प्रीतू की बीमारी की झूठी खबर क्यों दी?’
डॉक्टर मेहता ने कोई जवाब नहीं दिया. अब बच्चों को अपने पापा की करतूत पता चल चुकी थी और कल रात से उनके मस्ती भरे गाने गुनगुनाने का राज़ भी मालूम हो चुका था. प्रीतू अपनी मम्मी से लिपट कर बोली –
‘ मम्मी ! पापा ने आपके पीछे हमको बहुत परेशान किया. अब आप हमको छोड़ कर कभी नहीं जाइएगा.’
नीतू को भी मम्मी के गले लगकर रोने में आज कोई शर्म नहीं आ रही थी. दोनों बहनों को अपनी मम्मी का मोल पता चल चुका था. बच्चों के सर पर हाथ फेरते हुए अचानक नेहा अपने पतिदेव को देखकर खिलखिला कर हंस पड़ी. वो बेचारे भी उससे गले लगकर रोने के लिए बच्चों के पीछे लाइन में खड़े थे.
जवाब देंहटाएं.. बड़ी ही खूबसूरत कहानी ! संवादों में अपने घर की याद आ गई अपने आसपास ही यह सब देखते हुए बड़ी हुई हूं, सच में बहुत ही दिल को छू गई आपकी यह कहानी मां की अहमियत जिंदगी में तब समझ आती है जब वह हमसे दूर चली जाती है मुझे भी अब समझ आ रही .... जब वह मेरे पास नहीं है आपके ब्लॉग पर आई आपको पढ़ा सच में बहुत खुशी खुशी यहां से जा रही हूं, यूं ही लिखते रहिएगा सादर नमन...
प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनिता जी.मेरे ब्लॉग पर आपका सदैव स्वागत है. यह कहानी मेरी बेटियों की आप-बीती है. मेरी बेटियों के हिसाब से उनके बचपन में उनकी मम्मी की अनुपस्थिति में उनके पापा का गृह-संचालन आदिम-युग से भी पुराने ज़माने का हुआ करता था. आज बेटियां बड़ी हो गयी हैं पर वो मानती हैं कि उनके पापा का बचपना अभी तक नहीं गया है.
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
'पांच लिंकों का आनंद' के 15 नवम्बर, 2019 के अंक में मेरी बाल-कथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद श्वेता.
हटाएंअनमोल। वाह।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-11-2019 ) को "नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं" (चर्चा अंक- 3520) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये जाये।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
-अनीता लागुरी 'अनु'
'नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं' (चर्चा अंक 3520) में मेरी बाल-कथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता लागुरी 'अनु' जी.
हटाएंवाह! बहुत खूबसूरत कहानी !!आनंद आ गया पढकर । आदरणीय गोपेश जी ,यह तो घर -घर की कहानी है ।आपकी ,मेरी ,सबकी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शुभा जी. यह कहानी मैंने तब लिखी थी जब मेरी बेटियां क्रमशः 12 और 10 साल की थीं. उस बात को ज़माना गुज़र गया है लेकिन मैं गृह-संचालन में आज भी उतना ही अनाड़ी हूँ, जितना शादी करते समय था. मेरी श्रीमती जी हमेशा यही चाहती हैं कि घर के किसी भी काम में मैं, उनकी कैसी भी, कोई भी मदद नहीं करूं.
हटाएंवाह्ह्ह....आदरणीय सर बहुत मज़ेदार,सुंदर और रोचक कहानी।
जवाब देंहटाएंआनंद भी आया और बचपन भी याद आ गया....बचपन क्या हमारे यहाँ अभी भी ज्य्दा कुछ नही बदला 😀
बहुत सुंदर कहानी
सादर नमन 🙏
धन्यवाद आंचल. वैसे डॉक्टर मेहता अगर विश्वविद्यालय में साहित्य पढ़ाने की जगह गृह-संचालन की प्राइवेट ट्यूशन देते तो उनका नाम भी ज़्यादा होता और घर में दाम भी ज़्यादा आता.
जवाब देंहटाएंआपकी कहानियां और संस्मरण इतने लाजवाब होते हैं कि कब शुरू हुए और कब खत्म पता ही नही चलता । लाजवाब और मनोरंजक सृजन । लगता है हर घर-गृहस्थी में यही सब होता है । गृहस्वामिनी की कीमत बच्चों और गृहस्वामी को उसकी अनुपस्थिति में ही पता चलती है ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा और उत्साह-वर्धन के लिए धन्यवाद मीना जी.
जवाब देंहटाएंमेरी श्रीमती जी मुझे ग्रेटर नॉएडा में छोड़कर, दो-तीन महीने के लिए, छोटी बिटिया के पास, बंगलुरु जाने वाली हैं. बच्चों की मम्मी का मोल मुझे फिर पता चलने वाला है.