आज से 12-13 साल पहले की बात होगी. उन दिनों मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में कार्यरत था. ग्रेटर नॉएडा में हम अपने मकान का ग्राउंड फ्लोर किराए पर उठाते थे और उसकी ऊपरी मंज़िल अपने उपयोग के लिए रखते थे. आजकल की ही तरह उन दिनों भी ग्रेटर नॉएडा में किराएदारों की भारी किल्लत थी. हमारा ग्राउंड फ्लोर आदतन फिर किराए के लिए खाली हो गया था.
मुझे ‘मिशन-किराएदार’ के लिए अल्मोड़ा से ग्रेटर नॉएडा प्रस्थान करना पड़ा. लम्बी छुट्टी लेने में असमर्थ होने के कारण पांच-छह दिनों के अन्दर ही मुझको एक किराएदार खोजना था. मैंने कई प्रॉपर्टी डीलर्स से बात की जिनमें से कई इच्छुक किराएदारों को लेकर हमारा मकान दिखाने आए भी लेकिन हमको किराएदार के रूप में सिर्फ़ पढ़ा-लिखा, नौकरी-पेशा, शाकाहारी और वो भी सीमित परिवार वाला बन्दा चाहिए था. इसलिए बात बनते-बनते हर बार बिगड़ ही रही थी.
एक प्रॉपर्टी डीलर दल-बल के साथ मेरा स्व-घोषित भतीजा बन गया था. अपनी मीठी-मीठी, लल्लो-चप्पों वाली बातों से, इस दल ने मेरा दिल जीत लिया. इस मित्र-मंडली ने कई लोगों को मेरा मकान दिखाया पर किसी से भी डील नहीं हो पाई. मेरे अल्मोड़ा लौटने का वक़्त क़रीब आ रहा था. मुझे लग रहा था कि मकान में ताला लगाकर ही मुझे लौटना होगा लेकिन तभी एक ऐसा नौजवान मेरे पास आया जो कि किराएदार के रूप में मेरी शर्तों को पूरा करता था. चूंकि यह नौजवान बिना किसी प्रॉपर्टी डीलर के आया था इसलिए उसके अनुरोध पर मैंने प्रॉपर्टी डीलर को कमीशन के रूप में दिया जाने वाला 15 दिन का किराया उसके लिए माफ़ कर दिया. एडवांस, सीक्योरिटी, एग्रीमेंट वगैरा, सब कुछ ठीक-ठाक हो गया.
अगले दिन मुझे अल्मोड़ा के लिए प्रस्थान करना था कि तभी मेरा स्व-घोषित भतीजा अपने दल के साथ आ धमका. इस बार भतीजे की बातों में चाशनी नहीं, बल्कि करेला घुला हुआ था. भतीजे ने बताया कि मेरा किराएदार पहले उसके पास आया था इसलिए उसे और मुझे यानी कि हम दोनों को ही, कमीशन की रकम उसको देनी चाहिए थी. मुझे उसकी यह मांग स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि मेरा किराएदार स्वतंत्र रूप से मेरे पास आया था.
बहस होती रही. न वो टस से मस हुआ और न ही मैं झुका और बात बिगड़ती चली गयी. अंत में भतीजा दहाड़ा –
‘अंकल जी, मैं यहाँ का नामी गुंडा हूँ और फिर हम चार लोग हैं. हमको बिना पैसे दिए आप अल्मोड़ा साबुत तो नहीं जा पाएंगे.’
मैंने फिर भी पैसे देने से इंकार करते हुए, बेख़ौफ़ होकर, चांडाल-चौकड़ी को एक सुझाव दिया –
‘वीर बालकों ! एक 56 साल के अकेले बुज़ुर्ग को उसके घर में मारने में क्या मज़ा आएगा? ऐसा करो कि तुम लोग मुझे चौराहे पर मारो ताकि तुम्हारी बहादुरी सैकड़ों लोग देख सकें.’
बहस होती रही. न वो टस से मस हुआ और न ही मैं झुका और बात बिगड़ती चली गयी. अंत में भतीजा दहाड़ा –
‘अंकल जी, मैं यहाँ का नामी गुंडा हूँ और फिर हम चार लोग हैं. हमको बिना पैसे दिए आप अल्मोड़ा साबुत तो नहीं जा पाएंगे.’
मैंने फिर भी पैसे देने से इंकार करते हुए, बेख़ौफ़ होकर, चांडाल-चौकड़ी को एक सुझाव दिया –
‘वीर बालकों ! एक 56 साल के अकेले बुज़ुर्ग को उसके घर में मारने में क्या मज़ा आएगा? ऐसा करो कि तुम लोग मुझे चौराहे पर मारो ताकि तुम्हारी बहादुरी सैकड़ों लोग देख सकें.’
फिर क्या हुआ?
फिर वही हुआ जो कि सुदर्शन की कहानी – ‘हार की जीत’ में बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह के बीच हुआ था. डाकू खड़गसिंह और उसके तीनों साथी, बाबा भारती को पूरी तरह से साबुत छोड़कर अपनी-अपनी नज़रें झुका कर लौट गए.
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम लोग स्थायी रूप से ग्रेटर नॉएडा में बस गए. कई साल बीत गए. एक दिन बाज़ार से मैं पैदल ही लौट रहा था कि एक शानदार ऑडी कार मेरे सामने रुकी, उसमें से एक नौजवान और एक नवयुवती उतरे. पहले उस नौजवान ने मेरे पैर छुए और फिर उस नवयुवती ने. बिना पहचाने ही मैंने उन दोनों को आशीर्वाद दे दिया.
अब उस नौजवान ने पूछा –
‘अंकल जी, आपने मुझे पहचाना?’
अंकल जी बुद्धू बन कर कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहे फिर बोले –
‘भई, बुढ़ापे में याददाश्त कमज़ोर हो जाती है. कुछ याद नहीं आ रहा. हाँ, तुम मुझे अंकल कह रहे हो तो इसका मतलब यह तो निकलता है कि तुम मेरे कोई स्टूडेंट नहीं हो.’
अब उस नौजवान ने पूछा –
‘अंकल जी, आपने मुझे पहचाना?’
अंकल जी बुद्धू बन कर कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहे फिर बोले –
‘भई, बुढ़ापे में याददाश्त कमज़ोर हो जाती है. कुछ याद नहीं आ रहा. हाँ, तुम मुझे अंकल कह रहे हो तो इसका मतलब यह तो निकलता है कि तुम मेरे कोई स्टूडेंट नहीं हो.’
नौजवान ने मुस्कुराकर कहा –
‘हाँ, मैं आपका कोई स्टूडेंट नहीं हूँ. आपको याद नहीं आ रहा है. मैं तो वही लड़का हूँ जिस से मकान के कमीशन को लेकर आप से चक-चक हुई थी.’
मेरे दिमाग की बत्ती फ़ौरन जल उठी और वह दस साल पुराना दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरने लगा. मेरे दिमाग में एक शरारत कौंधी. मैंने अपने हाथ जोड़कर उस नौजवान से पूछा –
मेरे दिमाग की बत्ती फ़ौरन जल उठी और वह दस साल पुराना दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरने लगा. मेरे दिमाग में एक शरारत कौंधी. मैंने अपने हाथ जोड़कर उस नौजवान से पूछा –
‘बालक ! क्या तेरे पुराने साथियों ने तेरा साथ छोड़ दिया जो तू अब अपनी प्यारी सी दुल्हनिया के साथ निहत्थे राहगीरों को लूटने लगा है?’
बालक ने शर्माते हुए कहा –
‘अंकल जी, आपने अभी भी मुझे माफ़ नहीं किया है.’
मैंने उसे इत्मीनान दिलाते हुए कहा –
‘तुझे और तेरे साथियों को तो मैंने तभी माफ़ कर दिया था लेकिन अपनी उस बेवकूफ़ी के लिए मैंने ख़ुद को आज तक माफ़ नहीं किया है. सच कहूं तो मैं तुम सब का तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ कि तुम लोगों ने मुझ दूध के जले को छाछ भी फूँक-फूँक कर पीना सिखा दिया है.’
कहानी का सुखद अंत हुआ. बाबा भारती खुल कर हँसते हुए और अपनी दुल्हनिया सहित खड़ग सिंह, खिसियानी हंसी हँसते हुए, एक-दूसरे से विदा हुए.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-11-2019) को "मीठा करेला" (चर्चा अंक 3532) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'मीठा करेला' (चर्चा अंक - 3532) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
हटाएंअंत भला तो सब भला।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति
धन्यवाद कविता जी. अपने साथ हुए हादसों पर भी कभी-कभी हंसा जा सकता है.
हटाएंजहाँ जहाँ पैर पड़े सन्तन के। प्रणाम।
जवाब देंहटाएंबेचारे संत मुफ़्त में बदनाम हैं. मुसीबतें अगर उन से गले मिलने आती हैं तो क्या वो उन्हें दुत्कार दें?
जवाब देंहटाएंवाह!आदरणीय सर बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण।
सादर नमन 🙏
आँचल, यह संस्मरण रोचक तो हो सकता है लेकिन ख़तरनाक बहुत है.
जवाब देंहटाएंगोपेश भाई, बहुत ही बढ़िया रोचक और मजेदार संस्मरण।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी. पुराने ज़माने के दर्द याद करो तो कभी-कभी मज़ा भी आता है.
हटाएंजीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ता है भले ही बाद में हम उन बातों को हल्के में लें लेकिन जिस समय उन परिस्थितियों से गुजरें तो मानसिक परेशानियों से निकलना कठिन होता है । बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंमीना जी, पिताजी मजिस्ट्रेट थे, छुट्टी के दिन जेल में भेजे जाने से पहले अपराधी हमारे घर के बाहर तक लाए जाते थे. 36 साल विश्वविद्यालय में पढ़ाते समय मेरा एक से एक बड़े गुंडों का भी सामना हुआ है, गोलियां चलते भी देखी हैं, इसलिए स्व-घोषित भतीजों की धमकियाँ मुझे ज़्यादा विचलित नहीं कर पाई थीं लेकिन थोड़ा मानसिक तनाव तो हो ही गया था. अब तो उस वाक़ये को याद कर हंसी ही आती है.
जवाब देंहटाएंसारगर्भित संस्मरण बीते ज़माने को समझने में सहायक है. प्रेरक एवं सार्थक प्रस्तुति आदरणीय सर.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता. ज़माना ज़रूर नया आ गया है लेकिन समाज में पहले की तरह आज भी लाठी वाले की ही चलती है.
हटाएंब्लॉग - 'पांच लिंकों का आनंद' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंरोचक ... अंत अच्छा हे तो कहानी याद नहीं रहती ... पर ऐसी ही होनी चाहियें कहानी ... बहुत शुभ कामनाएं ...
जवाब देंहटाएंमित्र, इस आप-बीती को कहानी मत कहिए क्योंकि इस में कल्पना का लेशमात्र भी पुट नहीं है.
हटाएंवाह!!सर बहुत ही रोचक संस्मरण । आपकी निडरता काबिल ए तारीफ है ।
जवाब देंहटाएंशुभा जी, मेरी निडरता बहुत बार मुसीबत मोल लेती है लेकिन ख़ुद को बार-बार मुसीबत में डालने का भी अपना एक मज़ा है.
हटाएंसर आपके लिखे संस्मरण बहुत सारी सीख भी दे जाते हैं।
जवाब देंहटाएंपढ़ते समय लगा कोई चलचित्र देख रहे हो मानो।
आपके संस्मरण बहुत अच्छे लगते हैं सर।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद श्वेता !
हटाएंमेरे संस्मरण ज़रूर पसंद करो लेकिन कभी उस रास्ते पर मत चलना, जिस पर कि मैं चलता हूँ.
सादर नमन सर.
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक संस्मरणों की शृंखला में आपके सार्थक संस्मरण मील का पत्थर हैं. अतीत का वास्तविक इतिहास और तत्कालीन सामाजिक परिवेश की झलक हमारे लिये चिंतनीय है, ज्ञानवर्धक है.
मेरे संस्मरणों को इतना प्यार देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र !
हटाएंमेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल मेरे साथ हुए हादसों की विविधता को लेकर बहुत अचंभित रहते हैं. उनका कहना है कि गोपेश अपने साथ हुए किसी भी हादसे से सबक़ नहीं लेता है लेकिन दूसरे लोग उसके साथ हुए हादसों से सबक़ लेकर छाछ भी फूँक-फूँक कर पीना ज़रूर सीख सकते हैं.
तो निष्कर्ष यह निकला कि मेरे संस्मरण ज्ञानवर्धक हैं जो कि लोगों को सिखाते हैं कि - 'भैया ! ऐसी ग़लती तुम कभी मत करना !'
आदरनीय गोपेश जी , आपका संस्मरण बहुत ही शानदार है | आपबीती को अपने ही रोचक अंदाज में आपने खूब लिखा | बाबा भारती ने तो खड्ग सिंह से हाथ जोड़कर अच्छाई की गरिमा कायम रखने के लिए उसके छल को छुपाने के लिए निवेदन किया था पर आपने बड़े साहस से सामना किया , एक नहीं चार- चार आधुनिक डाकुओं का , जो बहुत मजेदार है | और आपने कुछ तो सबक सीखा होगा . दुबारा किसी अनजाने व्यक्ति को यूँ मकान किराये पर देने से पहले हजार बार सोचा तो जरुर होगा | आजकल लोग अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में , अपनेपन की चाशनी में डुबोकर , छल करने से बाज़ नहीं आते, ये विचारे बिना कि सामने वाला उनकी हरकतों से किसी जरूरतमंद पर भी कभी भरोसा नहीं कर पायेगा | बहुत ही बालसुलभ अंदाज में लिखे गये इस प्रसंग को पढ़कर मन खुश हो गया | अपने चुलबुले अंदाज में आप यूँ ही समस्त पढने वालों के होठों पर मुस्कान सजाते रहें , यही दुआ है | हार्दिक शुभकामनायें | सादर --
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रेणु जी. मेरे घर में मेरे बड़ों की यह राय है कि मैंने इतिहास विषय में पीएच. डी. नहीं की है बल्कि गलतियाँ कर के उन से सबक़ सीखने में पीएच. डी. की है और दुःख की बात यह है कि मेरी श्रीमती जी और मेरी बेटियां भी ऐसा ही मानती हैं. कभी इस पर भी लिखूंगा.
हटाएंबाबा भारती जैसा मैं महान नहीं हूँ लेकिन उनकी तरह अनजानों पर भरोसा अक्सर कर लेता हूँ. पता नहीं कब सुधरूंगा लेकिन कुछ मनोरंजक घटनाएँ भी मेरी इसी कमज़ोरी के कारण घटित हुई हैं.