शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

एक महीना, चार तारीख़ें

(यह कोई कल्पना-लोक की कथा नहीं है बल्कि लखनऊ यूनिवर्सिटी में 1977 में हुई एक सच्ची घटना है. मृत प्रभात की माँ को अपनी कार में लेकर मेरी चाची, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के मॉर्ग तक गयी थीं. मैं उनके साथ कार की आगे की सीट पर बैठा था और प्रभात की माँ कार की पिछली सीट पर अध-लेटी खुद से ही न जाने कितनी बातें कर रही थी. उसी के स्वगत प्रलाप के आधार पर इस दुखद कथा का ताना-बना बुना गया है.)
एक महीना, चार तारीख़ें
1. पहली तारीख़ – प्रभात
आज मैंने अपनी पीएच. डी. थीसिस सबमिट कर दी. मेरी ख़ुशी की कोई इंतिहा नहीं थी लेकिन मेरे गुरु जी, मेरे गाइड, मेरे आदर्श, प्रोफ़ेसर मेहता, मेरे सर, ने अपने चरणों में झुके हुए इस नाचीज़ के कानों में जैसे कोई बम फोड़ते हुए कहा –
‘बरखुरदार, आज से तुम्हारी फ़ेलोशिप बंद हो जाएगी.’
मेरे तो प्राण ही निकल गए. मैं मन ही मन सोच रहा था -
‘अम्मा-बाबूजी ने मुझे इस मुक़ाम तक पहुंचाने में अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रुरत की कुर्बानी दी है और अपने तीस बीघा खेत में से दस बीघा खेत बेच दिए हैं. इधर मैं हूँ कि उस नुक्सान को अब और बढ़ाने वाला हूँ.’
लेकिन तभी सर ने मेरे कानों में मिस्री घोलते हुए कहा –
‘कल से तुम हमारे डिपार्टमेंट में एक लेक्चरर की ज़िम्मेदारी सँभाल रहे हो. ये रहा तुम्हारा अपॉइंटमेंट लैटर !’
मेरे कानों में जैसे मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं. सर ने इसके आगे क्या कहा, मुझको इसकी कोई खबर ही नहीं हुई.
अम्मा की पैबंद लगी धोती की जगह कोई अच्छी सी साड़ी, उनके शरीर पर मंगल सूत्र के अलावा सभी बेचे गए गहनों में से कम से कम दो-चार की वापसी, बाबू जी के घर में ही रफ़ू किए गए कुर्ते की जगह राजेश खन्ना के स्टाइल वाला कुर्ता और उनकी टूटी-फूटी साइकिल की जगह चमचमाती मोटर साइकिल, बारिश के मौसम में टपकती छत और दरार पड़ी दीवारों वाले हमारे घर का पूर्ण-जीर्णोद्धार, और फिर उसी घर में प्रवेश करती, दुल्हन बनी लजाती-सकुचाती, मुस्काती रजनी !
ये सब के सब अधूरे सपने, एक साथ ही मेरी आँखों में तैरने लगे थे.
सर से विदाई लेकर मैंने जब सबसे पहले यह खुशखबरी जगन चाचा के घर ट्रंक कॉल कर के अम्मा-बाबूजी को सुनाई तो उनकी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. पचास रूपये का ट्रंक कॉल करने में जेब हल्की ज़रूर हुई और फिर रजनी के साथ जश्न मनाने में भी पचास रुपयों की एक्स्ट्रा चोट लग गयी लेकिन आज के दिन इन सब का क्या अफ़सोस करना?
अब तो रात के दस बज रहे हैं. हॉस्टल पहुँच कर अम्मा की भेजी हुई मठरियां खाते हुए अपने पहले लेक्चर की तैयारी कर लेता हूँ, क्या मालूम कि बिना कोई नोटिस दिए हुए ही, हमारे सर, कल ही मुझे स्टूडेंट्स को सुपुर्द कर दें !
अब देखिए, फ़िल्म ‘अंदाज़’ के इन राजेश खन्नाओं को ! बिना लाइट जलाए, हवाई जहाज की स्पीड से मोटर साइकिल चलाते हुए इनको न तो अपना कोई ख़याल है और न ही राह चलते किसी और का.
लेकिन ये पलट कर क्यों आ रहे हैं?
हे भगवान ! ये क्या हुआ? इन्होने मुझे गोली क्यों मारी?
अम्मा ! अम्मा ! बाबूजी ! रजनी ----------
2. दसवीं तारीख – प्रोफ़ेसर मेहता
क्या से क्या हो गया?
मुदर्रिसी के अपने तीस साल के करियर में मैंने प्रभात जैसा ब्राइट स्टूडेंट और कोई नहीं देखा है. सच में गुदड़ी का लाल है यह लड़का ! कुछ ही वक़्त के बाद इसे हमारे रिसर्च-प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका भी तो जाना है. रजनी से इसकी शादी भी तो होनी है.
इसको लेकर इसके अम्मा-बाबूजी ने क्या-क्या सपने देखे होंगे?
इसकी और रजनी की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है? लेकिन अब क्या होगा?
नौ दिन में इसके तीन ऑपरेशन तो हो चुके हैं, इसको 37 बोतल तो खून चढ़ चुका है. तीन दिन तो यह कोमा में रहा है.
कौन लोग थे जिन्होंने इसे गोली मारी?
इसकी तो किसी से दुश्मनी नहीं थी. गाँव का भोला-भाला, सिर्फ़ पढ़ाई से मतलब रखने वाला, गरीब घर का लड़का जो कि ऊंचे स्वर में बोलना तक नहीं जानता. पुलिस कह रही है कि स्टूडेंट यूनियन के वाईस प्रेसीडेंट सुभाष अग्रवाल के धोखे में इसे गोली मारी गयी है. अब अपराधी पकड़े जाएं और उन से पूछताछ कर के असलियत पता भी चल जाए तो जो अनहोनी प्रभात के साथ हुई है उसकी भरपाई तो नहीं होगी.
वैसे डॉक्टर्स बहुत होपफ़ुल हैं. बहुत जल्दी रिकवर कर रहा है, हमारा ज़ख़्मी शेर.
एक महीना अस्पताल में बिता कर जब प्रभात डिपार्टमेंट में वापस आएगा तो हम सब जश्न मनाएंगे.
यूनिवर्सिटी इसके इलाज का पूरा खर्चा उठा रही है. इसको खून देने के लिए मेडिकल कॉलेज में लड़के-लड़कियों का हुजूम उमड़ पड़ा था. कितनों की दुआएं इस मासूम के साथ हैं !
इसके अम्मा-बाबूजी और रजनी तो हॉस्पिटल से रोज़ मंदिर जाते हैं. मैं बरसों से मंदिर नहीं गया था लेकिन इसकी वजह से मुझ जैसा नास्तिक भी संकट मोचक के दरबार में कई बार हाज़री लगा चुका है.
हे भगवान ! सब मंगल करना !
3. बीसवीं तारीख़ – रजनी
आज डॉक्टर मित्तल ने ऐसी खबर सुनाई है जिसका हम सब को पिछले 19 दिनों से इंतज़ार था. अम्मा-बाबूजी का बबुआ और मेरा प्रभात अब एक हफ़्ते में हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो जाएगा.
लखनऊ मेडिकल कॉलेज की हिस्ट्री में यह ऐसा पहला केस होगा जिस में कि इतने ज़्यादा ब्लड-लॉस के बाद किसी की रिकवरी हुई हो. लेकिन हमारी दुआएं तो क़ुबूल होनी ही थीं.
प्रभात ने तो आज तक किसी चींटी का भी दिल नहीं दुखाया होगा. उस बेक़सूर को भला भगवान जी क्यों सज़ा देंगे?
सब कुछ ठीक हो जाएगा. हाँ, यह ज़रूर है कि इस में काफ़ी वक़्त लगेगा. लेकिन मेरा हीरो लेक्चरर भी बनेगा और अमेरिका भी जाएगा.
प्रभात का सपना कि मैं उसके घर में दुल्हन के भेस में प्रवेश कर रही हूँ और अम्मा मेरी आरती उतार रही हैं, यह भी ज़रूर पूरा होगा.
अभी तो प्रभात की थीसिस तैयार करवाने में अपने रोल का उस से एक ज़बर्दस्त इनाम भी तो मुझे लेना है. उसकी और मेरी फ़ेलोशिप का एक बड़ा हिस्सा तो हमारी रिसर्च की ही भेंट चढ़ जाता था लेकिन अब तो उसकी सेलरी हमारा आर्थिक-संकट दूर कर देगी.
कब तक हम पैदल परेड करेंगे या रिक्शे में बैठकर उस में हिचकोले खाते रहेंगे?
हमारे वुड बी डॉक्टर प्रभात और उनकी वुड भी डॉक्टर रजनी का जोड़ा एक मोटर साइकिल तो डिज़र्व करता ही है.
हनीमून के लिए प्रभात को मुझे स्विट्ज़रलैंड में आल्प्स की पहाड़ियों में नहीं तो कम से कम श्री नगर की हसीं वादियों में तो ज़रूर ही ले जाना पड़ेगा.
लेकिन अपने इन तमाम सपनों पर मुझे ब्रेक लगाना पड़ेगा.
मम्मी-पापा तो देहरादून से आकर एक तरह से लखनऊ में ही बस गए थे. दोनों प्रभात पर जान छिड़कते हैं. मैंने ही ज़बर्दस्ती उन्हें वापस देहरादून भेजा है.
प्रभात के पूरी तरह से रि-कवर करते ही वो हमारी शादी की प्लानिंग कर रहे हैं.
सच ! कितना अच्छा लगता है जब किसी लड़की के मम्मी-पापा उसकी पसंद के लड़के को अपनी पसंद बना लें !
मैं कितनी लकी हूँ !
4. तीसवीं तारीख – अम्मा
जय हो बजरंग बली ! आज मेरा बबुआ अस्पताल से छुट्टी पा जाएगा.
भगवान भला करे डागदर मित्तल का ! वो मेरे बबुआ को मौत के चंगुल से छुड़ा कर लाए हैं.
अब तो बबुआ बिस्तर से खुद उठ कर गुसलखाने चला जाता है और रजनी का हाथ पकड़ के बरामदे में थोड़ा घूम भी लेता है.
मेरा बबुआ राजी-खुसी घर पहुँच जाए तो मैं और बबुआ के बाबूजी चारों धाम की जात्रा करेंगे.
बबुआ और रजनी की जोड़ी तो राम-सीता की जोड़ी लगती है. कितना प्यार है इनका आपस में !
रजनी का बस करे तो वो बबुआ को छोड़कर अस्पताल से कभी जाए ही नहीं पर मैं ही उसे ढकेल कर उसके हॉस्टल भेजती हूँ.
इत्ते बड़े घर की लड़की, मुझ गंवार को अपनी माँ के जैसा मान-सम्मान देती है और बबुआ के बाबूजी की तो ऐसी सेवा करती है कि पूछो मत !
अब हमको दो-तीन महीने लखनऊ में ही किराए का घर लेकर रहना होगा. डागदर मित्तल कह रहे थे कि बबुआ को अभी वो लखनऊ से बाहर नहीं जानें देंगे.
थोड़ा कर्जा सर पर जरूर चढ़ जाएगा लेकिन अपने बबुआ की सेवा करने में हम कोई भी कोताही नहीं बरतेंगे.
5-10 बीघा खेत भी बेचनें पड़ें तो क्या चिंता है?
हमारा बबुआ सलामत रहे, हमको और क्या चाहिए !
बबुआ को घर के घी के बने पकवान खिलाऊँगी, उसे बादाम खिलाऊँगी, उसकी किसी भी दवा का कभी नागा नहीं होने दूंगी और जब तक वो पूरी तरह से तंदुरुस्त नहीं हो जाता, उसे कोई भी काम नहीं करने दूंगी.
अब अस्पताल से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने की सुभ घड़ी आ गयी है.
चलो जी, मंदिर में मत्था तो टिका आए, अब देखें कि हमारा बबुआ क्या कर रहा है !
हाय राम ! बबुआ के कमरे में इतने सफ़ेद कोट वाले काहे को भीड़ लगाए हैं?
कहीं मेरे बबुआ को कुछ हो तो नहीं गया?
हाय ! मेरे मुंह से ये क्या निकल गया?
हे राम जी ! हे संकट मोचक ! मेरे बबुआ की भली करियो ! वही हमारे जीवन की आस है !
डागदर साहब ! मेरे बबुआ को क्या हो गया?
आप कुछ बोलते क्यों नहीं?
अरे मेरे बबुआ का मुंह क्यों ढांप रहे हो तुम लोग?
इसको तो आज अस्पताल से छुट्टी मिलनी है.
मेरे मंदिर जाने तक तो ये भला-चंगा था.
डागदर साहब, आप मुझे मेरा बबुआ वापस कर दो. मैं घर में ही उसकी रात-दिन सेवा कर के उसे ठीक कर लूंगी.
अरे ! मुझे छोड़ो ! मुझे बबुआ का मुंह तो देख लेने दो !
बबुआ के बाबूजी ! ऐसे अपना सर मत पीटो, हमारा बबुआ अभी उठ खड़ा होगा.
मेरे हाथ से बजरंग बली का परसाद भी खाएगा.
रजनी बिटिया ! ये क्या हो गया?
तेरी तपस्या क्या अकारथ चली गयी?
मेरा बबुआ ! मेरा लाल ! मेरा छौना !
मुझे छोड़ कर मत जा बेटा !
लौट आ बेटा ! लौट आ ----- !

पसंद करें
टिप्पणी करेंसाझा करें
टिप्पणियाँ

20 टिप्‍पणियां:

  1. ओह सर...बेहद मार्मिक लेखन,एक चलचित्र सा खींच गया आँखों के सामने और भावों का प्रवाह बेहद प्रभावपूर्ण रहा।
    आपकी लेखनी के स्पर्श से हर विधा को जीवंत हो जाती है। प्रणाम सर।

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद श्वेता,
    यह कहानी मैंने 42 साल पहले लिखी थी लेकिन कम्प्यूटर पर उसे किंचित परिवर्तन के साथ आज उतारा है. कहानी टाइप करते वक़्त मेरे कितने आंसू बहे, कितनी बार मेरा गला रुंधा, इसका हिसाब करते-करते सुबह से शाम हो जाएगी.
    लेकिन एक बात तय है कि यह दास्तान मैंने अपने दिल से लिखी है, अपने दिमाग से नहीं !

    जवाब देंहटाएं
  3. मैं स्तब्ध रह गई पढ़कर !!! कहानी के अन्य पात्रों की तरह मैं भी प्रभात के जीवन के प्रति आशावादी हो गई थी परंतु अंत में....
    एक माँ से उसके बेगुनाह बच्चे को यूँ छीननेवालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई ?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मीना जी, प्रभात के हत्यारे पकड़े ही नहीं जा सके. पुलिस एक के बाद एक कहानियां गढ़ती रही और धीरे-धीरे मृतक के आत्मीय-जन के अतिरिक्त सब इस दुखद गाथा को भूल गए.

      हटाएं
  4. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१४-१२-२०१९ ) को " पूस की ठिठुरती रात "(चर्चा अंक-३५४९) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. 'पूस की ठिठुरती रात' (चर्चा अंक- 3549) में मेरी कहानी को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता.

      हटाएं
  5. एक माँ के दारुण दुख को उकेरती करुण कहानी... दुख और क्षोभ से हृदय व्यथित हो गया कहानी पढ़ कर ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी. यह कहानी मेरे दिल के बहुत क़रीब है. इसे मैंने कलम और स्याही से नहीं, बल्कि कलम और अपने आंसुओं से लिखा है.

      हटाएं
    2. व्यथा और दुख दृष्टिगत हो रहा है लेखन में... आँखों देखी घटना को संवेदनशील हृदय भला कैसे भूल सकता है ।

      हटाएं
    3. मीना जी, मेरी चाची तो मेडिकल कॉलेज से लौटकर काफ़ी दिनों तक डिप्रेशन में रही थीं. ऐसे हादसे अपनों के साथ ही नहीं, अगर किसी पराए के साथ भी हों तो वो हमारा दिल को झकझोर देते हैं.

      हटाएं
  6. उत्तर
    1. धन्यवाद मित्र ! लेकिन हौसलाअफ़ज़ाई में इतनी कंजूसी मत किया करो. उस के लिए एक-दो शब्द नहीं, बल्कि दो-चार पंक्तियाँ ज़रूर लिख दिया करो.

      हटाएं

      हटाएं
  7. सच में ,आदरणीय गोपेश जी ..पढते समय ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कथा चलचित्र की तरह हमारे सामने दृष्टि गोचर हो रही है...कुछ अश्रु बिंदु भी ना रोक पाई .....।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुभा जी, ज़बर्दस्ती अपने आंसुओं को रोक कर हमको बहादुरी का कौन सा तमगा मिल जाता है? मुझे बात-बात पर तो नहीं, लेकिन कभी-कभार आंसू बहा लेने में कोई शर्म नहीं आती है.
      आपकी संवेदनशीलता ने अगर आपको आंसू बहाने के लिए मजबूर किया है तो यह ज्ञात हो रहा है कि आप वैष्णव-जन की भांति पीर पराई को अपना समझती हैं.

      हटाएं
  8. चलचित्र की तरह दृश्य आँखों में जीवित हो गए‌। बेहद मर्मस्पर्शी कहानी

    जवाब देंहटाएं
  9. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी.
    मृतक की माँ के साथ कार के अन्दर बिताए गए 15 मिनटों में उसके स्वगत प्रलाप के और मेडिकल कॉलेज की मॉर्ग में उसके चीत्कार के मार्मिक दृश्य आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा हैं.

    जवाब देंहटाएं
  10. ऐसे मृम स्पर्शी सच्चे किस्से जिंदगी का एक हिस्सा बन जाते हैं ,और जब तब अंतर को झंझोर देते हैं उस पर अगर वो आंखों के सामने घटित हो तो पुरे जीवन नहीं भुलाए जा सकते ।
    आपने इतना मर्मांतक लिखा है जैसे कहीं पास ही घटित घटना है ।
    मैं सच निशब्द हूं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मन की वीणा,
      मैंने तो किसी और के वियोग से उपजी अपनी आह को शब्दों में उतारा भर है. वाक़ई, उस हादसे के प्रत्यक्षदर्शी होने का दर्द मैं आज तक भुला नहीं पाया हूँ.

      हटाएं
  11. हे नारायण........
    आदरणीय सर इस हृदय विदारक घटना ने जब पाठकों को हृदय में वेदना गंगा प्रवाहित कर दी तो इस घटना को शब्दों में ढालते वक़्त आपकी कलम ने कितने आँसू बहाए होंगे इसका कोई अंदाज़ा भी नही लगा सकता। प्रभात की माँ की दुर्दशा की तो फिर क्या ही कहें जो अपने बेटे के स्वस्थ होने के इंतज़ार में अपने बेटे का अंत..........
    आपकी कलम को नमन आदरणीय सर 🙏
    पर क्रोध आता है इन आसुरी प्रव्रत्ती के लोगों पर जिन्हें पल भर नही लगता किसी के घर,किसी के सपनों को तोड़ने में,किसी के प्राण और किसी का मान हरण करने में।हे नारायण सबको सद्बुद्धि दो 🙏
    सादर प्रणाम आदरणीय सर 🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आँचल, इस ह्रदय-विदारक सच्ची त्रासदी को लेख-बद्ध करते समय मैंने अपनी तरफ़ से लड़के का नाम 'प्रभात' और लड़की का नाम 'रजनी' इसलिए रक्खा है क्योंकि इन दोनों का मिलन संभव ही नहीं है. एक होनहार युवक की ऐसी अचानक मौत, उसके आत्मीय-जन के लिए अपनी मौत से भी भयानक हो सकती है, यह कोई वहशी दरिंदा कहाँ सोचता है?

      हटाएं