प्राचीन कथा -
हज़रत इब्राहीम जब बल्ख के बादशाह थे, उन्होंने एक गुलाम खरीदा.
हज़रत इब्राहीम उदार थे, उन्होंने गुलाम से पूछा –
‘तेरा नाम क्या है?’
गुलाम बोला –
‘आप जिस नाम से पुकारें !’
हज़रत इब्राहीम ने फिर पूछा –
‘तू क्या खायेगा?’
गुलाम बोला –
जो आप खिलायें !
हज़रत इब्राहीम ने फिर पूछा –
तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?
उत्तर था –
‘जो आप पहनने को दें !’
हज़रत इब्राहीम ने इस बार पूछा –
‘तू क्या काम करेगा?’
गुलाम बोला –
‘जो आप हुक्म करें !’
हज़रत इब्राहीम ने हैरान होकर पूछा –
‘तू चाहता क्या है?’
गुलाम ने जवाब दिया –
‘हुजूर, गुलाम की अपनी चाहत क्या हो सकती है?’
हज़रत इब्राहीम अपनी गद्दी से उतरे और उन्होंने गुलाम को अपने गले लगाते हुए उस से कहा -
‘अरे,तू तो मेरा उस्ताद है !
तूने मुझे सिखा दिया कि परमात्मा के सेवक को कैसा होना चाहिए !’
मानवमात्र के जीवन-दर्शन में दासों के चिंतन को पढा जा सकता है !
मेरे द्वारा इस कहानी का बदला हुआ रूप –
एक आदर्श अंध-प्रचारक -
हज़रत बड़बोले जब अंधेर नगरी के बादशाह थे, उन्होंने एक व्यक्ति को अपना अंध-प्रचारक नियुक्त किया.
चापलूसी-पसंद हज़रत बड़बोले ने अंध-प्रचारक से पूछा -
‘तेरा नाम क्या है?’
अंध-प्रचारक बोला -
‘गरीबपरवर ! आप जिस नाम से भी मुझे पुकारें !
वैसे मेरा नाम लेने की किसी को कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी, सब मुझे हिज़ मास्टर्स वॉइस ही कहेंगे.’
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा -
‘तू क्या खायेगा?’
गुलाम बोला –
‘जो आप खिलायें ! वैसे आपके विरोधियों की गालियाँ, लाठियां तो रोज़ाना और कभी-कभी गोलियां भी मुझे खाने को मिलेंगी ही.’
हज़रत बड़बोले ने फिर पूछा –
‘तुझे कैसे कपडे पसन्द हैं?’
उत्तर था –
‘आपकी पार्टी का झंडा लपेट लूँगा. वैसे भी आपके विरोधी तो मुझे नंगा कर के ही छोड़ेंगे.’
हज़रत बड़बोले का अगला सवाल था –
‘तू क्या काम करेगा?’
अंध-प्रचारक बोला –
‘आपके गुण गाऊंगा और आप के विरोधियों के खिलाफ़ प्रचार करूंगा, उनके विरुद्ध साज़िशें रचवाऊंगा, उन्हें किराए के गुंडों से पिटवाऊंगा और अगर ज़रुरत पड़ी तो उनकी सुपारी दे कर उनको जहन्नुम भी पहुंचवा दूंगा.’
हज़रत बड़बोले ने हैरान होकर पूछा –
‘तू चाहता क्या है?’
अंध-प्रचारक ने उत्तर दिया –
‘हुजूर, अगले चुनाव में सांसद नहीं तो कम से कम विधायक की टिकट दिए जाने के सिवा एक अंध-प्रचारक की अपनी चाहत और क्या हो सकती है?’
हज़रत बड़बोले अपने तख़्त से उतर पड़े और उस अंध-प्रचारक को अपने गले लगा कर उन्होंने फ़रमाया –
‘अरे, तू तो मेरा भी उस्ताद है !
चमचागिरी के मैदान में मैंने भी झंडे गाड़े थे लेकिन मेरे पास न तो तेरे जैसी मोटी चमड़ी थी और न ही तेरे जैसी झूठ और मक्कारी से भरी शीरीं ज़ुबान !
एक न एक दिन तू भी मेरी ही तरह चमचागिरी की सीढ़ी पर चढ़ कर हाकिमे-वक़्त बनेगा !’
चमचा-दर्शन में आदर्श अंध-प्रचारकों की कार्य-शैली को पढ़ाने के लिए इस कथा को अवश्य ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए.
आज फ़िराक़ गोरखपुरी होते तो चमचा-पुराण की भूमिका में अपने शेर को बदल कर कुछ यूँ कहते -
गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त
वो तलुए चाट के गुज़रें कि दुम हिलाने में
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०४-११-२०२१) को
'चलो दीपक जलाएँ '(चर्चा अंक-४२३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चलो दीपक जलाएं' (चर्चा अंक - 4237) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 04 नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
'पांच लिंकों का आनंद' के गुरूवार 4 नवम्बर, 2021 के अंक में में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंसभी के लिए दीप पर्व मंगलमय हो| बहुत खूब
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार दीपोत्सव की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंमेरी गुस्ताख़ी की सराहना के लिए धन्यवाद मनोज कायल जी.
हटाएंसराहनीय लेखन ।
जवाब देंहटाएंमेरी कलम की गुस्ताख़ी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया जिज्ञासा !
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