रविवार, 26 जनवरी 2025

अमर रहे गणतंत्र हमारा

 

शासक को मिलते सुख अनंत
जन-गण-मन धक्के खाते हैं
स्कूल न जा मज़दूरी कर
बच्चे दो रोटी पाते हैं
गणतंत्र दिवस की झांकी में
चहुँ ओर प्रगति दिखलाते हैं
अनपढ़ भूखे बेकारों की
संख्या पर नहीं बताते हैं
दिनकर जा पहुंचे स्वर्गलोक
भारत से टूटे नाते हैं
भारत-संतति की क़िस्मत में
धोखे हैं झूठी बातें हैं
निर्धन पर कर का बोझ बढ़े
धनिकों के लिए सौगाते हैं
गणतंत्र दिवस का है उत्सव
अपनी तो काली रातें हैं

(यह कविता महा-कवि दिनकर की अमर रचना - 'श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं - - - '' से प्रेरित है)

10 टिप्‍पणियां:

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    1. आम भारतीय की वेदना से द्रवित होने के लिए धन्यवाद ओंकार जी.

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  2. भारत में भूखे नंगे यदि अब भी हैं तो इसके ज़िम्मेदार हम सभी हैं केवल सरकार नहीं, क्यूँकि सरकार को जनता ही चुनती है

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    1. अनिता जी मेरी एक पुरानी कविता आपकी बात की तस्दीक करती है –
      हर तरफ़ मजबूरियाँ हैं, हर तरफ़ फ़रियाद है ,
      राम तेरे राज की, कितनी हसीं बुनियाद है.
      खु़दकुशी के फ़ैसले से, दूर होंगी मुश्किलें,
      हम परिन्दों ने नुमाइंदा चुना, सय्याद है.

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  3. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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    1. मेरी दर्द भरी व्यंग्य-रचना की प्रशंसा के लिए धन्यवाद भारती जी.

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  4. प्रगति के आदर्श सामने रख कर ही बेहतर काम करने का उत्साह जागता है। कमियों को नज़रंदाज नहीं , दूर करने का हौसला मिलता है। उलाहनों का भी स्वागत है। :)

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    1. सियासी नौटंकियाँ मुझे प्रभावित नहीं करतीं. गणतंत्र दिवस पर आयोजित उत्सव में मुझे गण की कीमत पर तंत्र का यशोगान ही दिखाई पड़ता है.
      खरी-खरी कहने की परंपरा तो कबीर ने डाली है, मैं तो उनका एक अदना सा अनुयायी हूँ.

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