गुरुवार, 20 अगस्त 2015

चरखा और खादी

असहयोग आन्दोलन में गांधीजी ने भारतीयों को चरखे और खादी के रूप में एक ऐसा ब्रहमास्त्र दिया था जिसका तोड़ अँगरेज़ सरकार के पास नहीं था. हजारों साल से विश्व के सबसे बड़े वस्त्र निर्यातक देश भारत को विदेशी कपड़ों का सबसे बड़ा आयातक देश बनाने में अंग्रेजों को मात्र डेढ़ सौ साल लगे थे. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही स्वदेशी की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा था और आर्थिक राष्ट्रवाद के विकास के साथ-साथ इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी होने लगा था. स्वदेशी आन्दोलन के दौरान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविता ‘स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार’ प्रकाशित हुई थी -

‘स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार कीजे, विनय इतना हमारा मान लीजे,
शपथ  करके विदेशी वस्त्र त्यागो, न जावो पास, उससे दूर भागो.
अरे भाई, अरे प्यारे, सुनो बात, स्वदेशी वस्त्र से शोभित करो गात,
वृथा क्यों फूंकते हो देश का दाम. करो मत और अपना नाम बदनाम.’

गांधीजी ने चरखे को भगवान् श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के रूप में प्रस्तुत किया. गांधीजी के इस सुदर्शन चक्र ने अन्याय और दमन का ऐसा प्रतिकार किया कि अन्यायी और आततायी भी उनका प्रशंसक बन गया. उस्मान की नज़्म ‘चरखा’ चरखे की इसी महत्ता को दर्शाती है –

‘गुलामी से हमको छुड़ायेगा चरखा, लुटेरों की हस्ती मिटाएगा चरखा,
पड़े सर धुनेंगे विलायत के ताजिर (व्यापारी), इधर शान अपनी बढ़ाएगा चरखा.
न फिर खून चूसेंगे योरप के पिस्सू, हमें मुफलिसी (निर्धनता) से बचाएगा चरखा,
घरों में इसे जब चलाएंगे हिंदी (भारतवासी), विलायत में हलचल मचाएगा चरखा.’


1921 में ‘स्वराज’ पत्र में गया प्रसाद शुक्ल सनेही ‘त्रिशूल’ का एक शेर प्रकाशित हुआ था जिसमें स्त्रियों के आभूषण प्रेम की भर्त्सना की गयी थी –

‘निहायत बेहया हैं, अब भी जी जेवर पहनते हैं,
जिन्हें मुल्क का कुछ दर्द, वो खद्दर पहनते हैं.’


पंडित सोहन लाल द्विवेदी की कविता ‘भैरवी’ में खादी को भारत के सभी असाध्य आर्थिक रोगों के लिए संजीवनी के रूप में प्रस्तुत किया गया है -

‘खादी के धागे-धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा.
खादी ही भर-भर देशप्रेम का, प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी.’


अंत में शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ‘स्वराज्य की कुंजी’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

‘स्वदेशी प्रेम जनता में अगर इक बार हो जाये,
हमारा राज्य भारत में, बिना तलवार हो जाये,
वसन बनने लगें सुन्दर, हमारे हिन्द में जिस दम,
उसी दम मानचेस्टर का नरम बाज़ार हो जाये.
विदेशी वस्तु लेने से, सभी यदि हाथ धो बैठें,
स्वतः आधीन यह अपनी, ब्रिटिश सरकार हो जाये.
सुदर्शन चक्र चरखे को, अगर सब हाथ में ले लें,
भयानक तोप गोरों की, यहाँ बेकार हो जाये.’

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत खूब जी एक हफ्ते की बात थी कुछ देर नहीं कर दी :)

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  2. सुशील बाबू, तारीफ के लिए धन्यवाद. तुम चाहोगे तो जल्दी-जल्दी आ जायेंगे.

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  3. मेरे आलेख को ब्लॉग बुलेटिन में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद.

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