हीरो –
2001 में एक कॉमेडी फ़िल्म आई थी –‘लव के लिए कुछ भी करेगा’. फ़िल्म तो कोई ख़ास नहीं थी पर उसमें अंडर वर्ड दादा असलम भाई का करैक्टर बहुत मज़ेदार था. इस किरदार को जॉनी लीवर ने बहुत खूबसूरती के साथ निभाया था.
असलम भाई को अपने एक्टिंग टैलेंट पर बहुत भरोसा है पर उन्हें कोई फिल्मों में चांस ही नहीं देता. उनको अक्ल का अँधा और गाँठ का पूरा समझने वाले उनकी कमजोरी का फ़ायदा उठाते हैं और उनको जमकर चूना लगाते हैं. उनको हीरो मटीरियल बताते हुए वो उनके दुबई के चश्मे, उनकी चीन की चड्डी और उनकी ईरानी चाय की तारीफ़ में गाना भी गाते हैं – 'असलम भाई, असलम भाई, दुबई का चश्मा, चीन की चड्डी और ईरानी चाय, असलम भाई !’
इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से पैतीस साल पहले कुछ ऐसा ही एक हादसा इस खाकसार के साथ भी हुआ था.
हीरो बनने का मुगालता मुझे भी हुआ था पर मुझे खुद को हीरो के रूप में स्थापित करने वाला मटीरियल कुछ और था.
इस हादसे की शुरुआत एक सुखद घटना से हुई थी –
1966 में हाई स्कूल में मेरी फर्स्ट डिवीज़न आई थी और गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज, बाराबंकी में मेरी सेकंड पोजीशन भी आई थी. परिवार वालों ने मुझे पुरस्कारों से लाद दिया था. सबसे पहले हमारे बाबा ने 100/- का इनाम दिया और पिताजी को आदेश दिया कि इन पैसों से मुझे घड़ी लाकर दी जाए. पिताजी ने इन 100/- रुपयों में 17 रूपये और मिलाकर एच. एम. टी. बंगलौर से मेरे लिए ‘जनता रिस्टवाच’ मंगवाई थी. स्टेनलेस स्टील की बॉडी वाली क्या खूबसूरत घड़ी थी वो. हमारे श्रीश भाई साहब ने हमको गोल्डन फ्रेम का एक मेड इन चाइना धूप का चश्मा प्रदान किया. पर मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम था पिताजी द्वारा प्रदत्त मेड इन इंग्लैंड ‘हरक्युलिस साइकिल.'
आप पूछेंगे – ‘1966 तक तो भारत में पचासों स्वदेशी साइकिल बनने लगी थीं फिर यह विदेशी साइकिल क्यूँ?’
इसका रहस्य भी जान लीजिए. दरअसल ये साइकिल पिताजी ने 1947 में जुडिशियल मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त होने के तुरंत बाद खरीदी थी. तब भारत में स्वदेशी साइकिल या तो बनती ही नहीं थीं और बनती भी थीं तो बेकार किस्म की.
इस प्रकार रिस्ट वाच, धूप का चश्मा और उन्नीस साल पुरानी इम्पोर्टेड साइकिल पाकर गोपेश मोहन जैसवाल हीरो बन गए. गुलज़ार साहब का लिखा फ़िल्म ‘घर’ का एक गाना है – आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’. मुझे शक़ है कि गुलज़ार साहब ने 1966 की मेरी मनोदशा को देखकर ही यह गीत लिखा होगा.
वाह, उन्नीस साल पुरानी भी हो तो क्या, साइकिल पर बैठने वाले के पाँव ज़मीन पर कहाँ पड़ते हैं? पेडल मारो और ज़मीन पर पाँव रक्खे बगैर हीरो की तरह जहाँ चाहो वहां पहुँच जाओ. और ‘पैगाम’ में दिलीप कुमार, ‘पेइंग गेस्ट’ में देवानंद, ‘नज़राना’ में राज कपूर और ‘एक ही रास्ता’ में सुनील दत्त भी तो साइकिल चलाते नज़र आते हैं.
घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तो साइकिल से जाया ही जाता था, बाज़ार के चक्कर, ऑफिसर्स क्लब के चक्कर, इजाज़त मिलने पर सिनेमा हॉल के चक्कर, सब साइकिल पर ही लगाए जाते थे. साइकिल युग से पहले मीलों पैदल चलने वाले जैसवाल साहब साइकिल पर सवार होते ही गोलमटोल होने में नए कीर्तिमान स्थापित करने लगे पर उनका साइकिल सवारी का नशा उतरा नहीं.
घड़ी अगर तुम्हारे पास है तो उसे दूसरों को दिखाना तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है. मैं उन दिनों हाथ में घड़ी बांधकर जब साइकिल चलाता था तो मेरी कोशिश यह रहती थी कि सबको मेरी घड़ी ज़रूर दिखाई देती रहे. क्लास में भी हर पांच मिनट के बाद घड़ी देखना और उसे अपने साथियों को दिखाना मेरी आदत बन गयी थी.
और धूप का चश्मा ! वाह, क्या चीज़ बनाई है भगवान ने ! फ़िल्म ‘वक़्त’ में राजकुमार गौगल्स में कितना स्मार्ट और हैण्डसम लगा था? और मैं क्या इस रंगीन चश्मे में उस से कम हैण्डसम लगता था? मेरा आइना गवाह था कि मैं भी धूप के चश्मे में हीरो लगता था.
हिंदी साहित्य में मेरी अभिरुचि के कारण हिंदी के हमारे गुरु जी मिश्रा सर मुझे बहुत प्यार करते थे पर हिंदी विषय के ही एक अंग, अनिवार्य संस्कृत से मैं उखड़ा-उखड़ा रहता था. अनिवार्य संस्कृत के पीरियड में गुरूजी से छुपाकर मैं क्लास में धूप का चश्मा लगाकर अपनी घड़ी में टाइम देख रहा था. गुरु जी
‘रूप यौवन संपन्नाः, विशाल कुल संभवः,
विद्या हीना न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.'
श्लोक पढ़ा रहे थे. ये श्लोक मैंने सुना तो था पर मैं इसका अर्थ नहीं जानता था. गुरु जी ने मुझसे इसका अर्थ पूछा तो मैं अपने गौगल्स उतारकर सिर्फ़ इतना बोल पाया – ‘गुरु जी आप ही इसका अर्थ बता दीजिए.’
गुरु जी ने इस श्लोक का बड़ा क्रांतिकारी अर्थ बताया –
‘कवि कहता है कि गोपेश रूपवान है, युवा है, साइकिल, घड़ी और धूप के चश्मे वाला संपन्न व्यक्ति है, विशाल कुल का है किन्तु हीरो बनने के चक्कर में विद्याहीन होता जा रहा है और पलाश के फूल की भांति गंधहीन हो गया है.’
गुरु जी के साथ पूरा क्लास हंस रहा था और मैं था कि शर्म से लाल होकर धरती फटने और फिर उसमें समा जाने की कामना कर रहा था.
धीरे-धीरे मुझ पर से साइकिल और घड़ी का ख़ुमार उतर गया. दस साल बाद साइकिल की जगह स्कूटर आ गया और घड़ी बेचारी भी बेमानी हो गयी पर धूप का चश्मा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग बन गया. पिताजी कहा करते थे कि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आउटडोर शूटिंग में हमारे हीरो साहब के चौखटे पर धूप का चश्मा होना ज़रुरी है.
आज भी बिना धूप के चश्मे के मैं दिन में बाहर नहीं निकल सकता. लोगबाग इस गलतफ़हमी में रहते हैं कि मैंने हाल ही में अपनी आँखों का ऑपरेशन कराया है.
मैंने हीरो बनने का सपना छोड़ दिया है मैं कोई असलम भाई हूँ क्या, जो हीरो बनने के ऊटपटांग ख़्वाब देखूं? न मेरे बदन पर चीन की चड्डी है, न मेरे हाथों में ईरानी चाय का प्याला है और मेरा चश्मा भी दुबई का नहीं, बल्कि खालिस हिन्दुस्तानी है.
समझ में नहीं आता कि लोगबाग हमेशा हीरो बनने के सपने ही क्यूँ देखते हैं. भई, गांधीजी से सीखो, देखो, लाठी और लंगोटी में सारा जीवन काट दिया और अगर गाँधी जी तक पहुँचने की तुम्हारी हैसियत नहीं है तो जैसवाल साहब के चरणों में जाकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ मन्त्र की दीक्षा लो, तुम्हारा जीवन पवित्र और धन्य हो जाएगा. .
2001 में एक कॉमेडी फ़िल्म आई थी –‘लव के लिए कुछ भी करेगा’. फ़िल्म तो कोई ख़ास नहीं थी पर उसमें अंडर वर्ड दादा असलम भाई का करैक्टर बहुत मज़ेदार था. इस किरदार को जॉनी लीवर ने बहुत खूबसूरती के साथ निभाया था.
असलम भाई को अपने एक्टिंग टैलेंट पर बहुत भरोसा है पर उन्हें कोई फिल्मों में चांस ही नहीं देता. उनको अक्ल का अँधा और गाँठ का पूरा समझने वाले उनकी कमजोरी का फ़ायदा उठाते हैं और उनको जमकर चूना लगाते हैं. उनको हीरो मटीरियल बताते हुए वो उनके दुबई के चश्मे, उनकी चीन की चड्डी और उनकी ईरानी चाय की तारीफ़ में गाना भी गाते हैं – 'असलम भाई, असलम भाई, दुबई का चश्मा, चीन की चड्डी और ईरानी चाय, असलम भाई !’
इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से पैतीस साल पहले कुछ ऐसा ही एक हादसा इस खाकसार के साथ भी हुआ था.
हीरो बनने का मुगालता मुझे भी हुआ था पर मुझे खुद को हीरो के रूप में स्थापित करने वाला मटीरियल कुछ और था.
इस हादसे की शुरुआत एक सुखद घटना से हुई थी –
1966 में हाई स्कूल में मेरी फर्स्ट डिवीज़न आई थी और गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज, बाराबंकी में मेरी सेकंड पोजीशन भी आई थी. परिवार वालों ने मुझे पुरस्कारों से लाद दिया था. सबसे पहले हमारे बाबा ने 100/- का इनाम दिया और पिताजी को आदेश दिया कि इन पैसों से मुझे घड़ी लाकर दी जाए. पिताजी ने इन 100/- रुपयों में 17 रूपये और मिलाकर एच. एम. टी. बंगलौर से मेरे लिए ‘जनता रिस्टवाच’ मंगवाई थी. स्टेनलेस स्टील की बॉडी वाली क्या खूबसूरत घड़ी थी वो. हमारे श्रीश भाई साहब ने हमको गोल्डन फ्रेम का एक मेड इन चाइना धूप का चश्मा प्रदान किया. पर मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम था पिताजी द्वारा प्रदत्त मेड इन इंग्लैंड ‘हरक्युलिस साइकिल.'
आप पूछेंगे – ‘1966 तक तो भारत में पचासों स्वदेशी साइकिल बनने लगी थीं फिर यह विदेशी साइकिल क्यूँ?’
इसका रहस्य भी जान लीजिए. दरअसल ये साइकिल पिताजी ने 1947 में जुडिशियल मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त होने के तुरंत बाद खरीदी थी. तब भारत में स्वदेशी साइकिल या तो बनती ही नहीं थीं और बनती भी थीं तो बेकार किस्म की.
इस प्रकार रिस्ट वाच, धूप का चश्मा और उन्नीस साल पुरानी इम्पोर्टेड साइकिल पाकर गोपेश मोहन जैसवाल हीरो बन गए. गुलज़ार साहब का लिखा फ़िल्म ‘घर’ का एक गाना है – आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’. मुझे शक़ है कि गुलज़ार साहब ने 1966 की मेरी मनोदशा को देखकर ही यह गीत लिखा होगा.
वाह, उन्नीस साल पुरानी भी हो तो क्या, साइकिल पर बैठने वाले के पाँव ज़मीन पर कहाँ पड़ते हैं? पेडल मारो और ज़मीन पर पाँव रक्खे बगैर हीरो की तरह जहाँ चाहो वहां पहुँच जाओ. और ‘पैगाम’ में दिलीप कुमार, ‘पेइंग गेस्ट’ में देवानंद, ‘नज़राना’ में राज कपूर और ‘एक ही रास्ता’ में सुनील दत्त भी तो साइकिल चलाते नज़र आते हैं.
घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तो साइकिल से जाया ही जाता था, बाज़ार के चक्कर, ऑफिसर्स क्लब के चक्कर, इजाज़त मिलने पर सिनेमा हॉल के चक्कर, सब साइकिल पर ही लगाए जाते थे. साइकिल युग से पहले मीलों पैदल चलने वाले जैसवाल साहब साइकिल पर सवार होते ही गोलमटोल होने में नए कीर्तिमान स्थापित करने लगे पर उनका साइकिल सवारी का नशा उतरा नहीं.
घड़ी अगर तुम्हारे पास है तो उसे दूसरों को दिखाना तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है. मैं उन दिनों हाथ में घड़ी बांधकर जब साइकिल चलाता था तो मेरी कोशिश यह रहती थी कि सबको मेरी घड़ी ज़रूर दिखाई देती रहे. क्लास में भी हर पांच मिनट के बाद घड़ी देखना और उसे अपने साथियों को दिखाना मेरी आदत बन गयी थी.
और धूप का चश्मा ! वाह, क्या चीज़ बनाई है भगवान ने ! फ़िल्म ‘वक़्त’ में राजकुमार गौगल्स में कितना स्मार्ट और हैण्डसम लगा था? और मैं क्या इस रंगीन चश्मे में उस से कम हैण्डसम लगता था? मेरा आइना गवाह था कि मैं भी धूप के चश्मे में हीरो लगता था.
हिंदी साहित्य में मेरी अभिरुचि के कारण हिंदी के हमारे गुरु जी मिश्रा सर मुझे बहुत प्यार करते थे पर हिंदी विषय के ही एक अंग, अनिवार्य संस्कृत से मैं उखड़ा-उखड़ा रहता था. अनिवार्य संस्कृत के पीरियड में गुरूजी से छुपाकर मैं क्लास में धूप का चश्मा लगाकर अपनी घड़ी में टाइम देख रहा था. गुरु जी
‘रूप यौवन संपन्नाः, विशाल कुल संभवः,
विद्या हीना न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.'
श्लोक पढ़ा रहे थे. ये श्लोक मैंने सुना तो था पर मैं इसका अर्थ नहीं जानता था. गुरु जी ने मुझसे इसका अर्थ पूछा तो मैं अपने गौगल्स उतारकर सिर्फ़ इतना बोल पाया – ‘गुरु जी आप ही इसका अर्थ बता दीजिए.’
गुरु जी ने इस श्लोक का बड़ा क्रांतिकारी अर्थ बताया –
‘कवि कहता है कि गोपेश रूपवान है, युवा है, साइकिल, घड़ी और धूप के चश्मे वाला संपन्न व्यक्ति है, विशाल कुल का है किन्तु हीरो बनने के चक्कर में विद्याहीन होता जा रहा है और पलाश के फूल की भांति गंधहीन हो गया है.’
गुरु जी के साथ पूरा क्लास हंस रहा था और मैं था कि शर्म से लाल होकर धरती फटने और फिर उसमें समा जाने की कामना कर रहा था.
धीरे-धीरे मुझ पर से साइकिल और घड़ी का ख़ुमार उतर गया. दस साल बाद साइकिल की जगह स्कूटर आ गया और घड़ी बेचारी भी बेमानी हो गयी पर धूप का चश्मा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग बन गया. पिताजी कहा करते थे कि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आउटडोर शूटिंग में हमारे हीरो साहब के चौखटे पर धूप का चश्मा होना ज़रुरी है.
आज भी बिना धूप के चश्मे के मैं दिन में बाहर नहीं निकल सकता. लोगबाग इस गलतफ़हमी में रहते हैं कि मैंने हाल ही में अपनी आँखों का ऑपरेशन कराया है.
मैंने हीरो बनने का सपना छोड़ दिया है मैं कोई असलम भाई हूँ क्या, जो हीरो बनने के ऊटपटांग ख़्वाब देखूं? न मेरे बदन पर चीन की चड्डी है, न मेरे हाथों में ईरानी चाय का प्याला है और मेरा चश्मा भी दुबई का नहीं, बल्कि खालिस हिन्दुस्तानी है.
समझ में नहीं आता कि लोगबाग हमेशा हीरो बनने के सपने ही क्यूँ देखते हैं. भई, गांधीजी से सीखो, देखो, लाठी और लंगोटी में सारा जीवन काट दिया और अगर गाँधी जी तक पहुँचने की तुम्हारी हैसियत नहीं है तो जैसवाल साहब के चरणों में जाकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ मन्त्र की दीक्षा लो, तुम्हारा जीवन पवित्र और धन्य हो जाएगा. .
गाँधी की बात करने वालों पर विजिलेंस वालों की नजर है । बाकी लिखते रहें बढ़िया है ।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों से मुफ़्त का खाया-पिया नहीं है. किसी हाई क्लास जेल में एक कोठरी मिल जाए तो क्या बुरा है.
जवाब देंहटाएं