बड़े भैया –
हम चार भाई हैं जिनमें कि मैं सबसे छोटा हूँ पर जब मेरी उम्र करीब 24 साल की रही होगी तो हमारे परिवार में एक और भाई आ गया. पर हैरत की बात यह थी कि यह भाई मुझसे छोटा नहीं, बल्कि मेरे बड़े भाई साहब और मेरी स्वर्गीया बहन जी से भी बड़ा था. आप सबको ज़्यादा हैरान होने की ज़रुरत नहीं है. हमारे ये बड़े भैया और कोई नहीं, बल्कि स्टार ऑफ़ दि मिलेनियम, अमिताभ बच्चन हैं.
माँ हरवंश राय बच्चन की बहुत बड़ी प्रशंसिका थीं और जयदेव के संगीत निर्देशन में उनकी तथा मन्ना डे की आवाज़ में ‘मधुशाला’ का पाठ सुनकर तो इसमें पहले से भी ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया था. योग्य पिता के योग्य बेटे से उनका प्रथम परिचय फ़िल्मी पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ था. माँ को अमिताभ बच्चन ‘आनंद’ के ज़माने से ही अच्छे लगने लगे थे पर उन्होंने उन्हें अपने बड़े बेटे का दर्जा दिया फ़िल्म ‘दीवार’ के बाद.
अमिताभ बच्चन को देख कर माँ कहती थीं – ‘बेटा हो तो ऐसा हो.’
कैसा बेटा? ऐसा बेटा जो ‘दीवार’ के बड़े बेटे विजय की तरह माँ के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर घर चलाता हो या ऐसा सपूत जो कि ज़रुरत पड़ने पर ‘अमर अकबर एंथनी’ के एंथनी की तरह अपनी माँ को अपना खून देता हो.
माँ की नज़रों में हमारे अपने बड़े भाई साहब एक आदर्श बेटे के मापदंड के बहुत करीब थे (मैं तो माँ का घोषित ऊधमी बेटा था) पर उन्हें अपदस्थ कर कब अमिताभ बच्चन, माँ के आदर्श बेटे बन गए, यह खुद उन्हें ही पता नहीं चला.
हीरोइनों में अमिताभ बच्चन के साथ माँ को सिर्फ़ जया बच्चन ही पसंद आती थी. फ़िल्म मर्द में अमिताभ बच्चन पर कोड़े पड़वाने वाली अमृता सिंह उन्हें क़तई पसंद नहीं थी. रेखा को तो वो ‘घर उजाड़ू’ कहती थीं. ‘सिलसिला’ में अमिताभ-जया की घर-गृहस्थी उजाड़ने और संजीव कुमार से बेवफ़ाई करने के लिए उन्होंने रेखा को कभी माफ़ नहीं किया.
सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन और निरूपा रॉय, माँ और बेटे के रोल में हमारी माँ को बहुत अच्छे लगते थे पर फ़िल्म ‘दीवार’ में उन्हें विजय की माँ से बड़ी शिक़ायत थी. उसको छोटे बेटे की जगह बड़े बेटे का साथ देना चाहिए था और धीरे-धीरे समझा-बुझाकर उसे सही रास्ते पर ले आना चाहिए था. पिताजी इस बात के लिए माँ की बहुत खिंचाई करते थे. वो माँ से कहते थे –
‘तुम प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर्स को इसके बारे में चिट्ठी तो लिखो, हो सकता है कि वो तुम्हारी बात मानकर स्टोरी में ज़रूरी तब्दीलियाँ कर दें.’
दुःख की बात यह थी कि माँ के सुझाव उनके दिल में ही रह गए, ज़रूरी पते पर पहुंचे ही नहीं.
तेजी बच्चन जी की आधुनिकता माँ को क़तई पसंद नहीं थी पर चूंकि उन्होंने अमिताभ जैसा लाल भारत को दिया था, इसके लिए हमारी माँ उनके सात खून तक माफ़ करने को तैयार थीं. वैसे माँ अपने लाड़ले अमिताभ को हरवंश राय बच्चन जी का बेटा ज़्यादा और तेजी बच्चन जी का बेटा कम मानती थीं.
फ़िल्म ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को भीषण चोट लगी तो सबसे ज़्यादा नुक्सान पिताजी को हुआ. माँ जब तक टीवी न्यूज़ में और अख़बार में, अमिताभ बच्चन के स्वास्थ्य-लाभ का समाचार नहीं जान लेती थीं, पिताजी को चाय नसीब नहीं होती थी.
फिल्मों से कोसों दूर रहने वाले मेरे पिताजी को माँ मजबूर कर देती थीं कि वो उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्में सिनेमा हॉल में दिखाएं. जब मैं छुट्टियों में अल्मोड़ा से लखनऊ पहुँचता था तो पिताजी अपनी ये ज़िम्मेदारी चुपके से मेरे नाम ट्रांसफ़र कर देते थे.
पिताजी के स्वर्गवास के बाद माँ ने सिनेमा हॉल जाकर फिल्में देखना बिलकुल छोड़ दिया. माँ के लिए टीवी ही मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बन गया. 1994 में दूरदर्शन ने साल भर तक हर रविवार अमिताभ बच्चन की फिल्में प्रसारित की थीं. उन दिनों माँ करीब चार महीने हमारे साथ अल्मोड़ा में रही थीं. माँ फ़िल्म शुरू होने से पहले ही खाना खा लेती थीं. हमारे लिए उनके निर्देश थे कि अमिताभ बच्चन की फ़िल्म चलने के दौरान न तो हमारे दोस्त घर आएं और ही हमारी बेटियों की सहेलियां.
अमिताभ बच्चन की फ़िल्म देखने के दौरान माँ के श्री मुख से – ‘धन्य हो.’ के उदगार औसतन दर्जन भर बार तो निकलते ही थे. मेरी दुष्ट बेटियों ने तो अमिताभ बच्चन का नाम ही ‘धन्य ताउजी’ रख दिया था.
जिन फिल्मों में अमिताभ बच्चन को मरते हुए दिखाया जाता था, उन के निर्माता, निर्देशक और कहानीकार माँ की हिट लिस्ट में आ जाते थे. पैसे के लालच में अमिताभ बच्चन को ऐसी हत्यारी फिल्मों में काम करने देने की छूट देने के लिए वो हरिवंश राय बच्चन, तेजी बच्चन और यहाँ तक कि जया बच्चन तक को माफ़ नहीं करती थीं.
अमिताभ युग से पहले माँ को दिलीप कुमार सबसे अच्छे लगते थे पर फ़िल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ बच्चन को गोली मारकर उन्होंने माँ की दृष्टि में एक खलनायक की पदवी प्राप्त कर ली थी.
अमिताभ बच्चन के स्वर में बच्चन जी की कविताओं का पाठ सुनना और देखना हम सबके लिए वाक़ई एक दिव्य अनुभव होता है पर माँ के लिए तो यह ‘आठहु सिद्धि, नवो निधि के सुख’ से बढ़कर होता था.
'कौन बनेगा करोड़पति' की सफलता में मेरी माँ का बहुत बड़ा योगदान था. अगर माँ जैसे प्रशंसक न होते तो क्या अमिताभ बच्चन का पुनरुत्थान संभव था? शाम आठ बजे से ही माँ का रिकॉर्ड चालू हो जाता था -'नौ बज गए क्या?'
उन दिनों हमारे यहाँ इन्वर्टर नहीं था. बिजली जाते ही टीवी भी गुल हो जाता था. अगर 'कौन बनेगा करोड़पति' के दौरान बिजली चली जाती थी तो बिजली विभाग वालों के साथ हमसे भी खफ़ा हो जाती थीं और हमसे अगले दिन तक बात भी नहीं करती थीं.
बड़े दुःख की बात है कि माँ अपने दिल में अमिताभ बच्चन को देखने की हसरत लिए हुए ही इस दुनिया से चली गईं पर यह तय है कि जाते-जाते भी वो अपने लाड़ले दत्तक पुत्र को स्पेशल आशीर्वाद देकर ही गयी होंगी.
हमारी माँ जैसी माएं तो अमिताभ बच्चन की लाखों होंगी पर हमारे तो एक ही माँ थी और वो भी अमिताभ बच्चन ने हमसे क़रीब-क़रीब छीन ही ली थी.
हे सदी के महानायक ! हे स्टार ऑफ़ दि मिलेनियम ! हम अपनी माँ की चोरी के लिए तुम्हें कभी माफ़ नहीं करते पर उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए हम तुम्हें माफ़ करते हैं और भगवान से तुम्हारे दीर्घायु होने की कामना भी करते हैं.
जय हो आपकी भी और आपके बड़े भैया जी की भी । अच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद सुशील बाबू. बड़े भैया की जय-जयकार करने वाले तो करोड़ों हैं. क्या उनमें तुम शामिल नहीं हो?
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