चाचा नेहरु के तीन भक्त -
बच्चों में नेहरु चाचा की लोकप्रियता बेमिसाल थी. हम सभी भाई-बहन भी उनके मुरीद थे. पर हमने अपने प्रिय चाचा को या तो तस्वीरों में देखा था या डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में, उनको रूबरू देखने का हमको कभी मौक़ा नहीं मिला था.
जनवरी, 1959 की बात है, मैं तब आठ साल का था. हम उन दिनों लखनऊ में रहते थे और जाड़े के मौसम में हर रविवार को प्रातः 10 बजे कैपिटल सिनेमा में दिखाई जाने वाली डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स देखने जाया करते थे. एक बार की बात है कि हमारे बड़े भाई साहब घर पर ही थे पर बाक़ी हम तीन भाई जोश से लबरेज़ होकर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने के लिए कैपिटल सिनेमा पहुँच गए. ये शिक्षाप्रद डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स ही हमारे मनोरंजन का साधन थीं और मज़े की बात यह थी कि इन्हें देखने के लिए खुद पिताजी हमको प्रोत्साहित करते थे. हमको इन्हें देखने के लिए अपना पॉकेटमनी खर्च करने की भी ज़रुरत नहीं होती थी क्यूंकि इसके लिए पिताजी ही हमारे फिनान्सर हुआ करते थे.
खैर हम कैपिटल सिनेमा पहुंचे (यह विधान सभा के सामने स्थित है), वहां आठ-आठ आने में बालकनी की तीन टिकटें लीं पर डॉक्यूमेंट्री शुरू होने में तो अभी पंद्रह मिनट का समय बाक़ी था.
हम बाहर सड़क पर आ गए तो देखा कि सड़क के दोनों तरफ़ बड़ी भीड़ है और हाथ में तिरंगे लिए सैकड़ों बच्चे क़तार में खड़े हुए हैं. हमने इसका सबब पूछा तो पता चला कि आधे घंटे बाद नेहरु जी का काफ़िला वहां से गुजरने वाला है. यह सुनकर मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा.
खुली जीप में खड़े हुए चाचा नेहरु हमको देखने को मिलेंगे? मुझे तो अपनी खुशकिस्मती पर विश्वास ही नहीं हो रहा था.
पर हाय, हम तो डॉक्यूमेंट्री देखने के लिए पूरे डेेड़ रूपये खर्च कर चुके थे. हमारे श्रीश भाई साहब दौड़ कर टिकट काउंटर पर गए और वहां उन्होंने बुकिंग क्लर्क से टिकट लौटा कर उनके पैसे वापस करने की बात की पर उसने टिकट वापस लेने से साफ़ इनकार कर दिया.
जैसे कि फ़िल्म मुगले आज़म में बादशाह अकबर ने महारानी जोधा से पूछा था - 'सुहाग चाहिए या औलाद?'
कुछ वैसा ही सवाल हमारे सामने था - ' डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने का मौक़ा छोड़कर और अपने डेड़ रूपये बर्बाद करके हमको चाचा नेहरु को देखना है, या चाचा नेहरु को देखने का मौक़ा छोड़कर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखकर अपने डेड़ रूपये वसूल करने हैं?'
अंत में चाचा नेहरु के आगे डेड़ रूपयों की जीत हुई, हमने दुखी मन से पूरे एक घंटे तक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखी.
हम सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो पता चला कि नेहरु जी 45 मिनट पहले वहां से जा चुके थे.
इसके बाद हमको फिर कभी अपने चाचा नेहरु से मिलने का मौक़ा नहीं मिला.
अपने चाचा नेहरु के हम तीन भक्तों को उनसे न मिल पाने का बहुत मलाल रहा पर उनसे हमको एक बड़ी शिक़ायत भी थी -
'नेहरु चाचा ! क्या आप उस रास्ते से गुजरने का समय आधा घंटा पहले का या डेड़ घंटे बाद का नहीं रख सकते थे?'
बच्चों में नेहरु चाचा की लोकप्रियता बेमिसाल थी. हम सभी भाई-बहन भी उनके मुरीद थे. पर हमने अपने प्रिय चाचा को या तो तस्वीरों में देखा था या डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में, उनको रूबरू देखने का हमको कभी मौक़ा नहीं मिला था.
जनवरी, 1959 की बात है, मैं तब आठ साल का था. हम उन दिनों लखनऊ में रहते थे और जाड़े के मौसम में हर रविवार को प्रातः 10 बजे कैपिटल सिनेमा में दिखाई जाने वाली डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स देखने जाया करते थे. एक बार की बात है कि हमारे बड़े भाई साहब घर पर ही थे पर बाक़ी हम तीन भाई जोश से लबरेज़ होकर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने के लिए कैपिटल सिनेमा पहुँच गए. ये शिक्षाप्रद डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स ही हमारे मनोरंजन का साधन थीं और मज़े की बात यह थी कि इन्हें देखने के लिए खुद पिताजी हमको प्रोत्साहित करते थे. हमको इन्हें देखने के लिए अपना पॉकेटमनी खर्च करने की भी ज़रुरत नहीं होती थी क्यूंकि इसके लिए पिताजी ही हमारे फिनान्सर हुआ करते थे.
खैर हम कैपिटल सिनेमा पहुंचे (यह विधान सभा के सामने स्थित है), वहां आठ-आठ आने में बालकनी की तीन टिकटें लीं पर डॉक्यूमेंट्री शुरू होने में तो अभी पंद्रह मिनट का समय बाक़ी था.
हम बाहर सड़क पर आ गए तो देखा कि सड़क के दोनों तरफ़ बड़ी भीड़ है और हाथ में तिरंगे लिए सैकड़ों बच्चे क़तार में खड़े हुए हैं. हमने इसका सबब पूछा तो पता चला कि आधे घंटे बाद नेहरु जी का काफ़िला वहां से गुजरने वाला है. यह सुनकर मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा.
खुली जीप में खड़े हुए चाचा नेहरु हमको देखने को मिलेंगे? मुझे तो अपनी खुशकिस्मती पर विश्वास ही नहीं हो रहा था.
पर हाय, हम तो डॉक्यूमेंट्री देखने के लिए पूरे डेेड़ रूपये खर्च कर चुके थे. हमारे श्रीश भाई साहब दौड़ कर टिकट काउंटर पर गए और वहां उन्होंने बुकिंग क्लर्क से टिकट लौटा कर उनके पैसे वापस करने की बात की पर उसने टिकट वापस लेने से साफ़ इनकार कर दिया.
जैसे कि फ़िल्म मुगले आज़म में बादशाह अकबर ने महारानी जोधा से पूछा था - 'सुहाग चाहिए या औलाद?'
कुछ वैसा ही सवाल हमारे सामने था - ' डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने का मौक़ा छोड़कर और अपने डेड़ रूपये बर्बाद करके हमको चाचा नेहरु को देखना है, या चाचा नेहरु को देखने का मौक़ा छोड़कर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखकर अपने डेड़ रूपये वसूल करने हैं?'
अंत में चाचा नेहरु के आगे डेड़ रूपयों की जीत हुई, हमने दुखी मन से पूरे एक घंटे तक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखी.
हम सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो पता चला कि नेहरु जी 45 मिनट पहले वहां से जा चुके थे.
इसके बाद हमको फिर कभी अपने चाचा नेहरु से मिलने का मौक़ा नहीं मिला.
अपने चाचा नेहरु के हम तीन भक्तों को उनसे न मिल पाने का बहुत मलाल रहा पर उनसे हमको एक बड़ी शिक़ायत भी थी -
'नेहरु चाचा ! क्या आप उस रास्ते से गुजरने का समय आधा घंटा पहले का या डेड़ घंटे बाद का नहीं रख सकते थे?'
:) बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. चाचा नेहरु की जगह अगर आज के नेता होते तो उन से न मिलने का मलाल नहीं, बल्कि उनसे मिलने का मलाल होता.
जवाब देंहटाएंसुहाग चाहिए या औलाद?'
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार
प्रशंसा के लिए धन्यवाद संजय भास्कर जी.
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