सोमवार, 6 अगस्त 2018

प्रलय - भाग 1

सितम्बर, 2010 में पहाड़ पर अति-वृष्टि और बादल फटने से बड़ी तबाही हुई थी. ये तबाही 2013 में हुई तबाही से तो बहुत कम थी लेकिन दिल दहलाने को, प्रशासन के निकम्मेपन को जतलाने को और बड़ी से बड़ी आपदा में भी सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा देखने वालों का हम से परिचय कराने के लिए काफ़ी थी. मैंने इस त्रासदी को बहुत नज़दीक से देखा है और अपने अनुभव को मैंने एक कहानी की शक्ल देने की कोशिश की है. 'प्रलय' शीर्षक इस लम्बी कहानी के चार भाग हैं. आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग.
(कहानी के पात्रों के अनुरूप उनकी भाषा पर आंचलिक प्रभाव है, मेरी प्रार्थना है कि मित्रगण इसमें भाषा की अशुद्धता न खोजें)
पिछले दो महीने से बारिश जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. सितम्बर का आधा महीना बीत चुका था. अब तो इन्द्र भगवान को लम्बी छुट्टी पर चले ही जाना चाहिए था. सबको उम्मीद थी कि कि अब खुले आसमान के रोज़ दर्शन हुआ करेंगे. बरसात के बाद शैलनगर की सुन्दरता देखते बनती है. हिमालय की चोटियां बिलकुल साफ़ दिखाई देती हैं और वो भी ऐसे जैसे आप हाथ बढ़ाकर उन्हें छू सकते हैं. पहाडि़यां और वादियां हरी मखमल की खूबसूरती को समेटे हुए दिखाई पड़ती हैं और जंगलों में फूलों की बहार होती है. पिकनिक, ट्रेकिंग और पर्वतीय तीर्थ-यात्रा के लिए ये मौसम बड़ा खुशगावार होता है. पर इस बार इन्द्र भगवान ने सितम्बर को सितमगर बनाने की ठान ली थी. दस सितम्बर से पानी बरसना शुरू हुआ. लगा कि आखरी बरसात है, हमको थोड़ा-बहुत भिगोकर हमसे विदा ले लेगी पर पानी था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था.
बिशनपुर गांव की लछमिया का फौजी बेटा शंकर छुटि्टयों में अपने घर आने वाला था. दो दिन की लगातार बारिश से लछमिया का जी घबराने लगा था. वो भगवान से मना रही थी कि उसका बेटा सही-सलामत उस तक पहुंच जाए. अब बादल कब छटेंगे ये तो पत्रा देखकर भानू पंडितजी ही बता पाएंगे. बीस रूपये का एक नोट,एक थैली में अपने खेत की पैदावार करेले, कद्दू की थैली और गाय के दूध से भरा एक बड़ा लोटा पंडितजी के चरणों में अर्पित करके उसने उनसे पूछा -
'पंडितजी! जरा पत्रा देखकर बताइए कि इन्दर देवता कब अपने घर वापस जाएंगे. मुझे संकर की बड़ी फिकर हो रही है. कल वो रेलगाड़ी से गौरीद्वार पहुंच रहा है पर ऐसी बरखा में शैलनगर कैसे आ पाएगा?'
भानू पंडितजीने काले बादलों को देखा, अपनी उंगलियों पर कुछ गणना की, पत्रा के दो-चार पन्ने पलटे, फिर इत्मीनान से अपने मुहं में गुटके की एक बड़ी डोज़ डाल कर बोले -
'अरे लछमिया तू बेकार में परेशान हो रही है. कहावत है - 'काला बादल जी डरवावे, भूरा बादल पानी लावे.'
अब तो बादलों का रंग भूरे से काला पड़ गया है. अब कोई चिन्ता की बात नहीं है. पत्रा बांचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि दो-चार घण्टों में तेरी चिन्ता दूर हो जाएगी. मैं मन्तर पढ़ देता हूं. बारिश शर्तिया रूक जाएगी. और हाँ, घर जाकर बाहर की दीवाल के सहारे सींक वाली झाड़ू उल्टी रख देना. इससे बारिश रुक जाएगी.'
लछमिया इस भविष्यवाणी को सुनकर और पंडितजीके मन्तर की शक्ति को जानकर खुश हो गई. उसने पूरी श्रद्धा से पंडितजी को दण्डवत प्रणाम किया और फिर अपने घर जाने के लिए उठने लगी. पंडितजी ने उससे उलाहने के स्वर में कहा -
'अरी भागवान! मेरी दक्षिणा तो देती जा.'
लछमिया के कुछ समझ नहीं आया. बीस का एक नोट, थैली भर करेले-कद्दू और लोटा भर गाय का बढि़या दूध क्या उसने पंडितजी की मुहं दिखाई के लिए दिए थे?
पंडितजी ने लछमिया के कंफ्यूजन को दूर करने के लिए उसे समझाया -
'अरे तेरा चढ़ावा तो पत्रा देखने में खरच हो गया. बरखा रोकने का मन्तर पढ़ने में मेरा जो पुण्य लगा उसका मेहनताना तो और देती जा.'
अपनी साड़ी में उरसा हुआ बीस का आखरी नोट पंडितजी को थमाने में लछमिया को कष्ट तो बहुत हुआ पर बेटे के घर आने की खुशी में उसने लालची पंडित का ये गुनाह माफ़ कर दिया. उसने घर पहुंचते ही देवी मैया का जाप करके दीवाल के बाहर सींक वाली झाड़ू को उल्टा करके रख दिया. अब चिन्ता की कोई बात नहीं थी. उल्टी झाड़ू के टोटके और भानू पंडितजी के मन्तर के चमत्कार से बरसात थमने ही वाली थी और कल उसका लाडला संकर उससे गलबहिंया करने ही वाला था.
पर लगता है भानू पंडितजी का मन्तर और उल्टी झाड़ू का टोटका कुछ असरदार नहीं निकले. बरसात थमने की उनकी प्रार्थना ऊपर इन्द्र भगवान तक नहीं पहुँची. पानी पहले की तरह झमाझम बरसता रहा. बल्कि थोड़ी देर बाद बिजली के कड़कने की आवाज़ें कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई और बारिश ने भी तूफ़ान का रूप ले लिया. लछमिया का एक कमरे का मकान कई जगह से फ़र्श की सिंचाई करने लगा. लछमिया बेचारी की बाल्टी, थाली और परात सब के सब फ़र्श को सूखा रखने में खर्च हो गए. लछमिया की बहू बिन्नो उसके साथ काम में हाथ बटाने लगी. लछमिया ने बिन्नो को प्यार से कहा -
'बिन्नो ! हम गरीबों की कुटिया में तेरी जैसी लच्छमी आई है. अभी तो तेरी लगन का साल भर भी नहीं हुआ है. मैं तुझ से ये उल्टे-सीधे काम कराऊँगी ? तेरी माँ भग्गो को मैं क्या जवाब दूंगी? तू आराम कर मैं सब कर लूंगी.'
पर बिन्नो उसके साथ सामान बचाओ अभियान में जुटी रही. बिन्नो ने घर के कीमती(?) सामानों को घर की एकमात्र चौकी पर रखकर उन्हें टूटे त्रिपाल के टुकड़ों और पॉलीथीन की थैलियों से ढक दिया. वैसे लछमिया को अपनी जान की कोई चिन्ता नहीं थी और न अपने घर या उसके सामान की. उसका लायक बेटा इस बार मकान की छत और घर के कच्चे फ़र्श को पूरी तरह से पक्का कराने वाला था. उसको चिन्ता थी तो बस बिन्नो की और अपने संकर की. लछमिया अपने संकर की चिन्ता कर सोच रही थी कि वो इस तूफ़ना में कैसे घर पहुंचेगा. उसको भानू पंडितजी पर गुस्सा आ रहा था. इतना चढ़ावा अगर वो सीधे इन्दर देवता को चढ़ाती तो वो खुद बरसात रोक देते पर वो तो पंडितजी के झांसे में आ गई. लछमिया ने अपने हाथ ऊपर जोड़ कर भगवान से अरदास की -
'हे भगवान ! भली करियो. मेरा संकर कुसल से घर आ जाए या ऐसा करो कि उसको गौरीद्वार पर ही रोक दो !'
कड़कड़ की आवाज़ के साथ लछमिया के घर के बगल का तून का पेड़ बिन्नो के मायके वाले घर पर गिर पड़ा. बिन्नो 'हाय अम्मा ! हाय मुन्नी !' का चीत्कार करते हुए उस तरफ़ दौड़ पड़ी. लछमिया भी उसके साथ भागी पर दोनों मकान के मलबे में दबी औरतों की दर्द भरी चीखें सुनने के अलावा कुछ नहीं कर पाईं. उनकी मदद की गुहार सुनकर कोई नहीं आया. सब के सब अपनी जान और अपना-अपना घर बचाने में लगे हुए थे. रोती कलपती बिन्नो का हाथ पकड़ कर लछमिया उसे फिर अपने घर खींच लाई. यहां कम से कम उनकी जान जाने का खतरा तो नहीं था. घर की टूटी खिड़की से दोनों सास-बहू रोती-कलपती अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर विनाश लीला देख रही थीं. किसना दर्जी के घर में पनाला सा बह रहा था और वो कुदाली से पानी की निकासी की नाकाम कोशिश कर रहा था पर कुछ देर बाद उसको इस कसरत से छुटकारा मिल गया. उसके घर के ऊपर के टीले पर बना भूसन लुहार का मकान भरभराकर उसके मकान पर गिर पड़ा. बिन्नो अपने दर्द को भूलकर किसना को बचाने के लिए दौड़ पड़ी पर किसना तब तक मलबे में दबकर बिलकुल शांत हो गया था.
कुछ देर बाद बिजली कड़कने के साथ एक दिल दहलाने वाली आवाज़ हुई. लगा कि जैसे आसमान ही फट गया हो. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं था. आसमान कहां फटता है? वो तो धमाके के साथ ज़रा सा बादल फट गया था. अब इस छोटे से हादसे से बिशनपुर गांव में दो मन्जि़ला बाढ़ आ जाए और तीस-चालीस मकान बह जाएं या टूट जाएं तो क्या किया जा सकता है?
- क्रमशः ...

14 टिप्‍पणियां:

  1. कथा यथार्थ पर आधारित है,, मर्मस्पर्शी विनाश का चेहरा दिखाती धारा प्रवाह लिये, आगे के भाग का इंतजार रहेगा।

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    1. धन्यवाद कुसुम जी. यह कहानी बहुत व्यथित और कुंठित होकर लिखी थी. मानवता को शर्मसार करती हुई हवस और मौक़ा-परस्ती का यह आँखों-देखा हाल है. कहानी लम्बी ज़रूर है पर उबाऊ नहीं है, इसका भरोसा दिलाता हूँ.

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  2. आपने इस खौफनाक मंज़र को जिस तरह से अभिव्यक्ति दी है, उससे तो बेसब्री हो गई कि अगला भाग कब पढ़ें?
    यह उत्सुकता इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आपने लिखा है कि यह घटना आपने आँखों देखी है।

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  3. मीना जी. इस कहानी के चार भाग हैं. इतना आश्वासन अवश्य दे सकता हूँ कि आपको यह कहानी लम्बी होते हुए भी बोझिल नहीं लगेगी. पूरी कहानी पढ़िएगा ज़रूर. आप जैसे कलम के धनी लोगों की राय मेरे लिए बहुत कीमती होती है. बेबाक़ी से अपनी राय दीजिएगा.

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  4. दिल दहल गया सर....बहुत भयावह चित्रण किया है आपने।
    रोचक शैली में लिखी गयी कहानी के अगले भाग की उत्सुकता से प्रतीक्षा है।

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    1. धन्यवाद श्वेता जी. दिल अभी से ही दहल गया है तो आगे उस से बड़े सदमों के लिए तैयार रहिए. अभी तो माया-मोह से दूर आदरणीय पंडित जी की धर्म-सेवा से ही आप परिचित हुई हैं. आगे-आगे और पुण्यात्मा आएँगे.

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  5. व्यथा और दर्दके साथ इन्सान की मजबूरी का सजीव चित्रण है आपकी कहानी के पहले भाग में । दूसरे अंक की प्रतीक्षा रहेगी ।

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  6. धन्यवाद मीना जी. मुझे भी कहानी के अगले भाग के पोस्ट किए जाने के बाद आप जैसे सहृदय पाठकों और सृजनशील बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

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  7. कथा के पात्र जीवन्त और घटनाएँ आँखों के सामने घटित होता महसूस हो रहा है. सजीव शब्द चित्रण. आगामी अंक का इंतज़ार रहेगा.

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    1. धन्यवाद राही जी. अभी इस कहानी की तीन कड़ियाँ और आनी हैं. मुझे भी आपकी आगामी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू. 2013 की प्रलय की विभीषिका तो मैंने नहीं देखी. तुम तो उस महा-प्रलय और 2010 की उस छोटी प्रलय, दोनों के ही प्रत्यक्ष-दर्शी थे. कुछ पुरानी बातें क्या याद आईं?

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  9. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०६ अगस्त २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'



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    1. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. आपसे मेरा निवेदन है कि आप सुविधानुसार 'लोकतंत्र' संवाद मंच में इस कहानी की चरों कड़ियों को सम्मिलित करें. मैं इस कहानी की अगली कड़ी 8 अगस्त को पोस्ट करूंगा.

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